मंगलवार, 7 फ़रवरी 2023

👉 संकल्प शक्ति

संकल्प का अपना विज्ञान है। उसे कर्म का बीजारोपण कह सकते हैं। संकल्प की चरणबद्ध रूपरेखा बनाई जाती है। इसमें सोच विचार कर निश्चय किये जाते हैं। निश्चय को मन में छिपाकर नहीं रखा जाता है, वरन् प्रकट किया जाता है। उसकी क्रमबद्ध योजना बनाई जाती है। तत्परतापूर्वक और तन्मयतापूर्वक मन लगाने के लिए साहस जुटाया जाता है। साधन एवं सहयोग एकत्रित करने का ताना-बाना बुना जाता है और उसके लिए समुचित दौड़-धूप की जाती है। कठिनाइयाँ आ सकती हैं और उनका सामना अथवा समाधान करने के लिए पहले से ही क्या तैयारी रखी जा सकती है, इन सब प्रश्रों पर गंभीरता एवं दूरदर्शिता के साथ विचार किया जाता है। जानकारों के साथ परामर्श किया जाता है। सामयिक परिवर्तनों की गुंजाइश रहती है। ऐसे सुनिश्चित प्रयत्नों को संकल्प कहते हैं।
  
संकल्प और असंकल्प का अन्तर समझने वालों को असफलता से बचने और सफलता के लक्ष्य तक पहुँचने में विशेष कठिनाई नहीं होती। संकल्पवान् हर परिस्थिति का सामना करने के लिए साहस उभारते हैं। आंतरिक और परिस्थितिजन्य अवरोधों से जूझने का पराक्रम करते हैं। फलत: असमंजस हटता है और पुरुषार्थ की गतिशीलता प्रखर होती चली जाती है। लक्ष्य तक पहुँचने का यही राजमार्ग है।
  
श्रेष्ठता की साधना संकल्प से ही संभव होती है। संकल्प को ही व्रत कहते हैं। व्रतधारी ही तपस्वी और मनस्वी कहलाते हैं। लक्ष्य की ओर शब्दवेधी बाण की तरह सनसनाते हुए चल पडऩे की क्षमता उन्हीं में होती है। संकल्प का कार्य है- अमुक कार्य करने का अमुक लक्ष्य तक पहुँचने का दृढ़ निश्चय। दृढ़ निश्चय का अर्थ है- काम करने की सुव्यवस्थित योजना बनाना, उसके लिए समुचित श्रम, साधना और मनोयोग लगाने की प्रतिज्ञा। प्रतिज्ञा का अर्थ है- आत्म गौरव को दाँव पर लगा देना, प्रयास को चरम पुरुषार्थ के साथ पूरा करना। मन:संस्थान की संरचना कर सकना संकल्प का ही काम है। इसी से कहा जाता है कि संकल्प कभी अधूरे नहीं रहते।
  
संकल्प को जड़ और सफलता को तना कहा जा सकता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए तत्त्ववेत्ताओं ने व्रतशील संकल्प के निर्धारण के कार्य को आधी सफलता माना है। यह मान्यता अक्षरश: सत्य है, जिसे संदेह हो वह इस सच्चाई की परीक्षा स्वयं करके देख सकता है।
  
सृष्टि का प्रादुर्भाव भी प्रजापति ब्रह्म की संकल्पशक्ति के  द्वारा ही हुआ है। जागरूकता पुरुषार्थ का प्रथम संकल्प है। हममें से प्रत्येक को कुछ सृजनात्मक संकल्प करना चाहिए। अब हमें जागरूक होने की आवश्यकता है। मनगढंत हवाई उड़ानें भरते रहने से हम कहीं के न रहेंगे। कहा भी गया है- ख्वाब कभी पूरे नहीं होते, संकल्प कभी अधूरे नहीं रहते।
  
संकल्प शक्ति के प्रचण्ड सामथ्र्यवान-व्रतशील व्यक्ति उच्च आदर्शों को लेकर अपने कार्य क्षेत्र में उतरे और तुच्छ सामथ्र्य के रहते हुए भी महान् कार्य करने में सफल हुए हैं। भगवान् ने मनुष्य को जहाँ अन्य प्राणियों की तुलना में अनेकों शारीरिक-मानसिक विशेषताएँ प्रदान की हैं, वहाँ एक और विलक्षण अनुदान भी दिया है, जिसका नाम है संकल्प बल। इसकी सामथ्र्य का कोई पारावार नहीं है। संकल्प बल ही है, जो सन्मार्ग पर चल पड़े, तो व्यक्तित्व को इतना ऊँचा उठा सकता है, जिस पर देवता भी ईष्र्या करने लगें। नर हो या नारी, बालक हो या वृद्ध, स्वस्थ हो या रुग्ण, धनी हो या निर्धन, परिस्थितियों से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। प्रश्र संकल्प शक्ति का है। मनस्वी व्यक्ति अपने लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ बनाते और सफल होते हैं। समय कितना लगा और श्रम कितना पड़ा, उसमें अंतर हो सकता है, पर आत्म निर्माण के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति अपनी आकांक्षा को सक्रियता एवं प्रखरता के अनुरूप देर-सबेर में सफल करके ही रहता है। यदि मनुष्य अपनी साहसिकता को जगा लें, संकल्प शक्ति का सदुद्देश्य के लिए उपयोग करने लगे, तो कोई कारण नहीं कि वह अपनी गौरव- गरिमा का सिक्का जमाने में किसी से पीछे रहे।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 अपने अन्दर के भगवान् को जगाइये

संसार के छोटे कहे जाने वाले प्राणी एक निश्चित प्रकृति लेकर जन्मते हैं और प्राय: अंत तक उसी स्थिति में बने रहते हैं। इतना स्वार्थी मनुष्य ही था, जिसे अपने साधनों से तृप्ति नहीं हुई और उसने दूसरों के स्वत्व का अपहरण करना प्रारंभ किया। न्यायाधीश बनकर आया था; पर स्वयं अन्याय करने लगा। ऐसी स्थिति में परमात्मा के अनुदान भला उसका कब तक साथ देते; क्योंकि परमात्मा ने ही आत्मा को आच्छादित कर रखा है। आत्मा मेें जो भी शक्ति और प्रकाश है, वह सब परमात्मा का ही स्वरूप है। परमात्मा आत्मा से विलग कहाँ?
  
सम्पूर्ण देव शक्तियाँ इसमें समायी हुई हैं। जब अग्रि देव जाग्रत् होते हैं, तो भूख लगती है, वरुण देवता को जल की जरूरत पड़ती है। किसी को निद्रा की, तो किसी को जागृति की। सबकी अपनी दिशा-अपना काम है।
  
इनमें पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता न होती रहे और उनका नियंत्रण बराबर किया जाता रहे। इस दृष्टि से एक जबरदस्त नियामक सत्ता की आवश्यकता जान पड़ी, तो परमात्मा स्वयं उसमें आत्मा के रूप में समा गया। इस तरह इस अद्ïभुत मनुष्य जीवन का प्रादुर्भाव इस सृष्टि में हुआ। तब से लेकर आज तक मनुष्य निरन्तर एक प्रयोग के रूप में चलता आ रहा है। कभी वह गलती करता है, तो उस अपराध के बदले सजा मिलती है और यदि वह अधिक कर्तव्यशील होता है, तो उसे अधिक बड़े ईनाम और अधिकार दिये जाते हैं। गलती का परिणाम दु:ख और भलाई का परिणाम सुख। सुख और दु:ख का यह अंतद्र्वन्द्व आदिकाल से चलता आ रहा है।
  
जब मनुष्य के अन्तर का असुर-भाग बलवान हो जाता है, तो दु:खों में बढोत्तरी होती है। वर्तमान समय इस स्थिति की पराकाष्ठा है, यह कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। मनुष्य का यह पतन देखकर विश्वास नहीं होता कि उसके अंदर परमात्मा जैसी महत्त्वपूर्ण शक्ति का विकास हो सकता है। दुर्बल मनुष्य में सर्वशक्तिमान् परमात्मा ओत-प्रोत हो सकता है, इसकी इन दिनों कल्पना भी नहीं की जा सकती।
  
मनुष्य की इस दयनीय दशा का एक ही कारण है और वह यह है कि उसने अपनी मनोभूमि इतनी गंदी बना ली है, जहां परमात्मा का प्रखर प्रकाश पहँुचना सम्भव नहीं है। यदि सचेत रहकर उसने अपनी भलाई की शक्ति को जीवन्त रखा होता, तो वह जिन साधनों को लेकर इस धरती पर आया था, वे अचूक ब्रह्म अस्त्र है। उनकी शक्ति वज्र से भी प्रबल सिद्ध होती है। सृष्टिï का अन्य कोई भी प्राणी उसका सामना करने में समर्थ नहीं हो सकता। वह युवराज बनकर आया था। विजय, सफलतायें, उत्तम सुख, शक्ति, शौर्य-साहस, निर्भयता उसे उत्तराधिकार में मिले थे। इनसे वह चिरकाल तक सुखी रह सकता था। भ्रम, चिन्ता, शंका, संदेह आदि का कोई स्थान उसके जीवन में नहीं, पर अभागे मनुष्य ने अपनी दुरवस्था अपने आप उत्पन्न की। अंत:करण की-ईश्वरीय सत्ता की उपेक्षा करने के कारण ही उसकी यह दु:खद स्थिति बनी। अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने का अपराधी मनुष्य स्वयं है, इसका दोष परमात्मा को नहीं।
  
ईश्वरीय गुणों से पथ-भ्रष्टï मनुष्य की जो दुर्दशा होनी चाहिए थी, वह हुई। दु:ख की खेती उसने स्वयं बोई और उसका फल भी उसे ही चखना पड़ा। परमात्मा हमारे अति समीप रहकर प्रेम का संदेश देता है, पर मनुष्य अपनी वासना से (कुबुद्धि से) उसे कुचल देता है। वह अपनी सादगी, ताजगी और प्राण शक्ति से हमें सदैव अनुप्राणित रखने का प्रयत्न करता है, पर मनुष्य आडम्बर, आलस्य और अकर्मण्यता के द्वारा उस शक्ति को छिन्न-भिन्न कर देता है। कालान्तर में जब आंतरिक प्रकाश की शक्ति क्षीण पड़ जाती है, तो दु:ख और द्वन्द्व के बखेड़े बढ़ जाते हैं। तब मनुष्य को औरों की भलाई करना तो दूर, अपना ही जीवन भार रूप हो जाता है। परमात्मा की अंत:करण से विस्मृति ही कष्टï और क्लेश के बंधन का कारण है।

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