शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

👉 आत्मोन्नति के चार आधार (भाग 1)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

🔶 युग-निर्माण परिवार का गठन एक प्रयोगशाला के रूप में हुआ है। प्रयोगशाला में रासायनिक पदार्थ तैयार किए जाते है और उसके परिणाम को सर्वसाधारण के सामने उपस्थित किया जाता है। युग-निर्माण परिवार का गठन एक पाठशाला के तरीके से हुआ है, जहाँ विद्यार्थी पढ़ाए जाते हैं और पढ़-लिखकर के वे समाज क महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को सँभालते हैं। गायत्री परिवार का गठन एक व्यायामशाला करते हैं और पहलवान बनकर के दंगल में कुश्तियाँ पछाड़ते हैं। युग-निर्माण परिवार का गठन नर्सरी के तरीके से किया गया है, जिसमें छोटे-छोटे फलदार पौधे तैयार किये जाते हैं और यहाँ पैदा होने के बाद दूसरे बगीचों में भेज दिये जाते हैं, जहाँ बड़े-बड़े उद्यान-बगीचे बनकर तैयार होते हैं।
        
🔷 युग-निर्माण परिवार का गठन एक कृषि फार्म के तरीके से हुआ है। कृषि फार्म में छोटे-छोटे प्रयोग गन्ने के, सोयाबीन के, अमुक के, तमुक के किए जाते हैं और उसके जो निष्कर्ष निकलते हैं, वह सब लोगों को मालूम पड़ते हैं और उसी आधार पर वे अपने-अपने कृषि कार्य को आरम्भ करते हैं। व्यक्तित्वों के निर्माण की एक प्रयोगशाला के रूप में, पाठशाला के रूप में, व्यायामशाला के रूप में, नर्सरी के रूप में और कृषि फार्म के रूप में युग-निर्माण परिवार का गठन किया गया है। हम चाहते हैं कि व्यक्ति बदल जाएँ और ऊँचे उठें, क्योंकि हम समाज को ऊँचा उठाना चाहते हैं, समुन्नत बनाना चाहते हैं।

🔶 आखिर समाज है क्या? समाज व्यक्तियों का समूह मात्र है। व्यक्ति जैसे होंगे वैसे ही तो समाज बनेगा। समाज कोई अलग चीज नहीं है, वरन् व्यक्तियों के समूह का नाम है। इसलिए व्यक्तियों को श्रेष्ठ बनाने का मतलब है—समय को अच्छा बनाना और समय को अच्छा बनाने का मतलब है—युग के प्रवाह को बदल देना। युग का प्रवाह बदल देना अर्थात् समाज को बदल देना। समाज को बदल लेना अर्थात् व्यक्तियों को बदल देना—यही हमारा उद्देश्य है। इसी क्रियाकलाप के लिए और इसी परिवर्तन के लिए हम लगे हुए हैं और युग-निर्माण का जो नारा लगाते हैं, उसका मतलब ही यह है कि हम युग बदलेंगे, समाज बदलेंगे और व्यक्ति बदलेंगे।

🔷 बदलने के लिए हम व्यापक क्षेत्र में प्रयोग नहीं कर सकते। अतः छोटे क्षेत्र में हम प्रयोग करते हैं, ताकि इसकी देखा-देखी इसका अनुकरण करते हुए अन्यत्र भी यही परम्पराएँ चलें, अन्यत्र भी इसी तरीके के क्रियाकलाप चालू किए जा सकें। बाहर की परिस्थितियाँ मन की स्थिति के ऊपर निर्भर हैं। मन जैसा भी हमारा होता है, परिस्थितियाँ अनुरूप बननी शुरू हो जाती हैं। हम इच्छाओं से हमारा मस्तिष्क काम करता है। मस्तिष्क की गणनाओं से शरीर काम करता है। शरीर और मस्तिष्क दोनों ही हमारी अन्तरात्मा की, अन्तःकरण की प्रेरणा से काम करते हैं। इसलिए जरूरत को, आन्तरिक मान्यताओं को, निष्ठाओं को परिवर्तित कर दिया जाए तो जीवन का सारा का सारा ढाँचा ही बदल जाएगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 गाथा इस देश की, गाई विदेशियों ने (अन्तिम भाग)

🔶 कहाँ तक गिनायें, ऐसे आख्यानों से यूरोप का इतिहास भरा पड़ा है। फ्रेडरिक शेलिग, प्रो॰ मैक्समूलर, रोम्या रोलाँ, एम लुई जिकोलिएट, विक्टर कोसिन आदि अनेक विद्वानों तथा दार्शनिकों ने मुक्त कंठ से भारतीय गरिमा की प्रशंसा की है। जो भी इस संस्कृति के प्रभाव में आया उसी का मन इसे देख कर मोह गया। भारतीयों की सहृदयता, धर्म, श्रद्धा और ईश्वर विश्वास के आगे संसार नत-मस्तक हो जाता है।

🔷 वह ज्ञान, वह गौरव, विज्ञान, कला समृद्धि और संस्कृति सबका सब इस देश के गर्भ में अभी भी विद्यमान है। वह खोजें दृढ़ हैं, निरर्थक या लोप नहीं हुईं। उन विद्याओं का अस्तित्व अब भी विद्यमान है और यह प्रतीक्षा किया करता है कि कोई आये और हमारे अनन्त भंडार में से जितना मन चाहे, बटोर ले जाय। किन्तु कहाँ है वह साहस? उस तन्मयता को क्या हो गया? कहाँ है वे कर्मवीर जो राष्ट्र के गौरव को फिर से ऊँचा उठा सकें।

🔶 हमने एक परिभाषा सीख ली है-”पतन की परिभाषा।” नशे में झूमते हुये व्यक्ति को जैसे खुद का भी होश-हवास नहीं रहता ठीक उसी तरह हो गये हैं हम! हमारी रगों में विदेशीपन का, बनावट का नशा छा गया है। अपने साँस्कृतिक गौरव को भूल चुके हैं। तभी दिनों-दिन हमारी दुर्गति बढ़ती जा रही है। बेकारी रह नहीं सकती। भ्रष्टाचार टिक नहीं सकता, व्यभिचार पनप नहीं सकता, अत्याचार अधिक दिन तक सर उठाये खड़ा नहीं रह सकता, पर हमारा आत्माभिमान तो जागे।

🔷 हम जिस दिन अपने गौरव को समझ पायेंगे उस दिन हमारी अवस्था ही भिन्न होगी। सर्वत्र हास-परिहास होगा। ज्ञान की गंगा यहाँ बह रही होगी। समृद्धि का कुबेर अपना खजाना लुटा रहा होगा। सब कुछ होगा पर हमारी आध्यात्मिक वृत्तियाँ भी तो जागें। यदि इतना साहस हम में पैदा हो जाय तो युग को बदलते देर न लगेगी। वह स्वर्णिम विहान विहँसता हुआ चला आयेगा। आइये! अब उसी धर्म और संस्कृति के अवगाहन के लिए तैयार हों।

🌹  समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1965 अगस्त पृष्ठ 10
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/August/v1.10

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