बिन श्रद्घा-विश्वास के नहीं सधेगा अभ्यास
इस सच्चाई के बावजूद अनेकों को अभ्यास से शिकायतें भी हैं। उनका कहना है कि इतने सालों से अभ्यास कर रहे हैं, पर मेरे जीवन में वैसा कुछ भी नहीं हुआ, जिसकी उम्मीद थी। सालों-साल साधना करने के बावजूद, सालों तक गायत्री जपने के बावजूद जिन्दगी में कोई चमत्कारी परिवर्तन नहीं हुए। तब क्या; अभ्यास की महिमा गलत है अथवा फिर साधना की विधि में कोई दोष है?
इस जिज्ञासा के समाधान में महर्षि पतंजलि कहते हैं कि न तो अभ्यास की महत्ता में कोई सन्देह है और न ही गायत्री महामंत्र की साधना या कोई योग विधि में कोई दोष है। बात सिर्फ इतनी सी है कि अभ्यास ठीक तरह से किया नहीं गया। अभ्यास किस तरह से किया जाय इसकी चर्चा महर्षि अपने अगले सूत्र में करते हैं-
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढ़भूमिः॥ १/१४॥
शब्दार्थ-तु= परन्तु, सः= वह (अभ्यास), दीर्घकालनैरन्तर्य- सत्कारासेवितः= बहुत काल तक निरन्तर (निरन्तर) और आदरपूर्वक (श्रद्धा-निष्ठा के साथ) सांगोपांग सेवन किया जाने पर, दृढ़भूमि=दृढ़ अवस्था वाला होता है। यानि कि- बिना किसी व्यवधान के श्रद्धा-भरी निष्ठा के साथ लगातार लम्बे समय तक इसे जारी रखने पर वह दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार अभ्यास की सफलता के लिए चार चीजों का होना जरूरी है, इनमें पहली है-लम्बा समय, दूसरी है-निरन्तरता, तीसरी है-भाव भरी श्रद्धा और चौथी है-दृढ़ निष्ठा। साधना अभ्यास में यदि ये चार तत्त्व जुड़े हों, तो अभ्यास चमत्कारी परिणाम उत्पन्न किए बिना नहीं रहता। जिन्हें अपने अभ्यास के परिणाम से शिकायत है, उन्हें महर्षि के इस कथन के प्रकाश में आत्मावलोकन व आत्मसमीक्षा करनी चाहिए। वे अवश्य ही यह पाएँगे कि उनके जीवन में कहीं न कहीं किसी तत्त्व की कमी है।
अक्सर देखा जाता है कि लोग शुरुआत तो बड़े उत्साह के साथ करते हैं, बड़ी उमंग-उल्लास से अपनी साधना का प्रारम्भ करते हैं, बाद में महीने-दो-महीने, साल दो साल या ज्यादा से ज्यादा पाँच-छः साल में इसे छोड़ बैठते हैं। जो लोग दीर्घकाल तक साधना जारी भी रखते हैं, उनमें प्रायः निरन्तरता का अभाव होता है। होता यह है कि एक महीने मन लगाकर साधना की, बाद में सब कुछ छूट गया। फिर एकाएक मन में उत्साह उमड़ा और दुबारा शुरू हो गया। पर इस बार दो-तीन महीने में थक कर रुक गए। यही सिलसिला जीवन पर्यन्त चलता रहता है। रुक-रुक कर चलना, थक-थक कर रुकना, इस तरह से साधना अभ्यास कभी भी सफल नहीं होता है। साधना की अविराम गति में लय का संगीत होना चाहिए।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
इस सच्चाई के बावजूद अनेकों को अभ्यास से शिकायतें भी हैं। उनका कहना है कि इतने सालों से अभ्यास कर रहे हैं, पर मेरे जीवन में वैसा कुछ भी नहीं हुआ, जिसकी उम्मीद थी। सालों-साल साधना करने के बावजूद, सालों तक गायत्री जपने के बावजूद जिन्दगी में कोई चमत्कारी परिवर्तन नहीं हुए। तब क्या; अभ्यास की महिमा गलत है अथवा फिर साधना की विधि में कोई दोष है?
इस जिज्ञासा के समाधान में महर्षि पतंजलि कहते हैं कि न तो अभ्यास की महत्ता में कोई सन्देह है और न ही गायत्री महामंत्र की साधना या कोई योग विधि में कोई दोष है। बात सिर्फ इतनी सी है कि अभ्यास ठीक तरह से किया नहीं गया। अभ्यास किस तरह से किया जाय इसकी चर्चा महर्षि अपने अगले सूत्र में करते हैं-
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढ़भूमिः॥ १/१४॥
शब्दार्थ-तु= परन्तु, सः= वह (अभ्यास), दीर्घकालनैरन्तर्य- सत्कारासेवितः= बहुत काल तक निरन्तर (निरन्तर) और आदरपूर्वक (श्रद्धा-निष्ठा के साथ) सांगोपांग सेवन किया जाने पर, दृढ़भूमि=दृढ़ अवस्था वाला होता है। यानि कि- बिना किसी व्यवधान के श्रद्धा-भरी निष्ठा के साथ लगातार लम्बे समय तक इसे जारी रखने पर वह दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार अभ्यास की सफलता के लिए चार चीजों का होना जरूरी है, इनमें पहली है-लम्बा समय, दूसरी है-निरन्तरता, तीसरी है-भाव भरी श्रद्धा और चौथी है-दृढ़ निष्ठा। साधना अभ्यास में यदि ये चार तत्त्व जुड़े हों, तो अभ्यास चमत्कारी परिणाम उत्पन्न किए बिना नहीं रहता। जिन्हें अपने अभ्यास के परिणाम से शिकायत है, उन्हें महर्षि के इस कथन के प्रकाश में आत्मावलोकन व आत्मसमीक्षा करनी चाहिए। वे अवश्य ही यह पाएँगे कि उनके जीवन में कहीं न कहीं किसी तत्त्व की कमी है।
अक्सर देखा जाता है कि लोग शुरुआत तो बड़े उत्साह के साथ करते हैं, बड़ी उमंग-उल्लास से अपनी साधना का प्रारम्भ करते हैं, बाद में महीने-दो-महीने, साल दो साल या ज्यादा से ज्यादा पाँच-छः साल में इसे छोड़ बैठते हैं। जो लोग दीर्घकाल तक साधना जारी भी रखते हैं, उनमें प्रायः निरन्तरता का अभाव होता है। होता यह है कि एक महीने मन लगाकर साधना की, बाद में सब कुछ छूट गया। फिर एकाएक मन में उत्साह उमड़ा और दुबारा शुरू हो गया। पर इस बार दो-तीन महीने में थक कर रुक गए। यही सिलसिला जीवन पर्यन्त चलता रहता है। रुक-रुक कर चलना, थक-थक कर रुकना, इस तरह से साधना अभ्यास कभी भी सफल नहीं होता है। साधना की अविराम गति में लय का संगीत होना चाहिए।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या