घृणित विचार, क्षणिक, उत्तेजना, आवेश हमारी जीवनी शक्ति के अपव्यय के अनेक रूप हैं। जिस प्रकार काले धुएँ से मकान काला पड़ जाता है, उसी प्रकार स्वार्थ, हिंसा, ईर्ष्या, द्वेष, मद, मत्सर के कुत्सित विचारों से मनो मन्दिर काला पड़ जाता है। हमें चाहिए कि इन घातक मनोविकारों से अपने को सदा सुरक्षित रक्खें। गंदे, ओछे विचार रखने वाले व्यक्ति से बचते रहें। वासना को उत्तेजित करने वाले स्थानों पर कदापि न जायं, गन्दा साहित्य कदापि न पढ़े। अभय पदार्थों का उपयोग सर्वथा त्याग दें।
शान्त चित्त से बैठकर ब्रह्म-चिन्तन, प्रार्थना, पूजा इत्यादि नियमपूर्वक किया करें, आत्मा के गुणों का विकास करें। सच्चे आध्यात्मिक व्यक्ति में प्रेम, ईमानदारी, सत्यता, दया, श्रद्धा, भक्ति और उत्साह आदि स्थाई रूप से होने चाहिए। दीर्घकालीन अभ्यास तथा सतत शुभचिंतन एवं सत्संग से इन दिव्य गुणों की अभिवृद्धि होती है।
अपने जीवन का सदुपयोग कीजिए। स्वयं विकसित होइये तथा दूसरों को अपनी सेवा, प्रेम, ज्ञान से आत्म-पथ पर अग्रसर कीजिए। दूसरों को देने से आपके ज्ञान की संचित पूँजी में अभिवृद्धि होती है।
हमारे जीवन का उद्देश्य भगवत्प्राप्ति या मुक्ति है। परमेश्वर बीजरूप से हमारे अन्तरात्मा में स्थित हैं। हृदय को राग, द्वेष आदि मानसिक शत्रुओं, सांसारिक प्रपंचों, व्यर्थ के वितंडावाद, उद्वेगकारक बातों से बचाकर ईश्वर-चिन्तन में लगाना चाहिए। दैनिक जीवन का उत्तरदायित्व पूर्ण करने के उपरान्त भी हममें से प्रायः सभी ईश्वर को प्राप्त कर ब्रह्मानन्द लूट सकते हैं।
एषा बुद्धिमताँ बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्।
यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति माऽमृतम्॥
मानव की कुशलता, बुद्धिमत्ता साँसारिक क्षणिक नश्वर भोगों के एकत्रित करने में न होकर अविनाशी और अमृत-स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति में है।
शान्त चित्त से बैठकर ब्रह्म-चिन्तन, प्रार्थना, पूजा इत्यादि नियमपूर्वक किया करें, आत्मा के गुणों का विकास करें। सच्चे आध्यात्मिक व्यक्ति में प्रेम, ईमानदारी, सत्यता, दया, श्रद्धा, भक्ति और उत्साह आदि स्थाई रूप से होने चाहिए। दीर्घकालीन अभ्यास तथा सतत शुभचिंतन एवं सत्संग से इन दिव्य गुणों की अभिवृद्धि होती है।
अपने जीवन का सदुपयोग कीजिए। स्वयं विकसित होइये तथा दूसरों को अपनी सेवा, प्रेम, ज्ञान से आत्म-पथ पर अग्रसर कीजिए। दूसरों को देने से आपके ज्ञान की संचित पूँजी में अभिवृद्धि होती है।
हमारे जीवन का उद्देश्य भगवत्प्राप्ति या मुक्ति है। परमेश्वर बीजरूप से हमारे अन्तरात्मा में स्थित हैं। हृदय को राग, द्वेष आदि मानसिक शत्रुओं, सांसारिक प्रपंचों, व्यर्थ के वितंडावाद, उद्वेगकारक बातों से बचाकर ईश्वर-चिन्तन में लगाना चाहिए। दैनिक जीवन का उत्तरदायित्व पूर्ण करने के उपरान्त भी हममें से प्रायः सभी ईश्वर को प्राप्त कर ब्रह्मानन्द लूट सकते हैं।
एषा बुद्धिमताँ बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्।
यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति माऽमृतम्॥
मानव की कुशलता, बुद्धिमत्ता साँसारिक क्षणिक नश्वर भोगों के एकत्रित करने में न होकर अविनाशी और अमृत-स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति में है।
सब ओर से समय बचाइए; व्यर्थ के कार्यों में जीवन जैसी अमूल्य निधि को नष्ट न कीजिए, वरन् उच्च चिन्तन, मनन, ईशपूजन में लगाइए, सदैव परोपकार में निरत रहिए। दूसरों की सेवा, सहायता एवं उपकार से हम परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं।
📖 अखण्ड ज्योति, फरवरी १९५७ पृष्ठ ६
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1957/February/v1.6
All World Gayatri Pariwar Official Social Media Platform
Shantikunj WhatsApp
8439014110
Official Facebook Page
Official Twitter
Official Instagram
Youtube Channel Rishi Chintan
Youtube Channel Shantikunjvideo
Official Telegram