मंगलवार, 30 जुलाई 2019

👉 मन की ऊँचाई:-

मंदिरों के शिखर और मस्जिदों की मिनारें ही ऊँची नहीं करनी हैं, मन को भी ऊँचा करना हैं ताकि आदर्शों की स्थापना हो सकें।

एक बार गौतम स्वामी ने महावीर स्वामी से पूछा, ‘भंते ! एक व्यक्ति दिन-रात आपकी सेवा, भक्ति, पूजा में लीन रहता हैं, फलतः उसको दीन-दुखियों की सेवा के लिए समय नहीं मिलता और दूसरा व्यक्ति दुखियों की सेवा में इतना जी-जान से संलग्न रहता हैं कि उसे आपकी सेवा-पूजा, यहां तक कि दर्शन तक की फुरसत नहीं मिलती। इन दोनों में से श्रेष्ठ कौन है।

भगवान महावीर ने कहा, वह धन्यवाद का पात्र हैं जो मेरी आराधना-मेरी आज्ञा का पालन करके करता हैं और मेरी आज्ञा यही हैं कि उनकी सहायता करों, जिनको तुम्हारी सहायता की जरूरत हैं।

अज्ञानी जीव-अमृत में भी जहर खोज लेता हैं और मन्दिर में भी वासना खोज लेता हैं। वह मन्दिर में वीतराग प्रतिमा के दर्शन नहीं करता, इधर-उधर ध्यान भटकाता हैं और पाप का बंधन कर लेता हैं। पता हैं  चील कितनी ऊपर उड़ती हैं ? बहुत ऊपर उड़ती हैं, लेकिन उसकी नजर चांद तारों पर नहीं, जमीन पर पड़े, घूरे में पड़े  हुए मृत चूहे पर होती हैं।

यहीं स्थिति अज्ञानी मिथ्या दृष्टि जीव की हैं। वह भी बातें तो बड़ी-बड़ी करता हैं, सिद्वान्तों की विवेचना तो बड़े ही मन को हर लेने वाले शब्दों व लच्छेदार शैली में करता हैं, लेकिन उसकी नजर घुरे में पड़े हुए मांस पिण्ड पर होती हैं, वासना पर होती हैं और ज्ञानी सम्यकदृष्टि जीव भले ही दलदल में रहे, लेकिन अनुभव परमात्मा का करता हैं।

👉 आज का सद्चिंतन 30 July 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 July 2019


👉 शपथ पूर्वक सृजन यात्रा:-

अब हम सर्वनाश के किनारे पर बिलकुल आ खड़े हुए हैं। कुमार्ग पर जितने चल लिए उतना ही पर्याप्त है। अगले कुछ ही कदम हमें एक दूसरे का रक्तपान करने वाले भेड़ियों के रूप में बदल देंगे। अनीति और अज्ञान से ओत-प्रोत समाज सामूहिक आत्महत्या कर बैठेगा। अब हमें पीछे लौटना होगा। सामूहिक आत्महत्या हमें अभीष्ट नहीं। नरक की आग में जलते रहना हमें अस्वीकार है। मानवता को निकृष्टता के कलंक से कलंकित बनी न रहने देंगे। पतन और विनाश हमारा लक्ष्य नहीं हो सकता।  दुर्बुद्धि एवं दुष्प्रवृत्तियों को सिंहासन पर विराजमान रहने देना सहन न करेंगे। अज्ञान और अविवेक की सत्ता शिरोधार्य किए रहना अब अशक्य है। हम इन परिस्थितियों को बदलेंगे, उन्हें बदलकर ही रहेंगे।
  
शपथपूर्वक परिवर्तन के पथ पर हम चले हैं और जब तक सामर्थ्य की एक बूँद भी शेष है, तब तक चलते ही रहेंगे। अविवेक को पदच्युत करेंगे। जब तक विवेक को मूर्धन्य न बना लेंगे, तब तक चैन न लेंगे। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की प्रकाश किरणें हर अंतःकरण तक पहुँचाएँगे और वासना और तृष्णा के निकृष्ट दलदल से मानवीय चेतना को विमुक्त करके रहेंगे। मानव समाज को सदा के लिए दुर्भाग्यग्रस्त नहीं रखा जा सकता। उसे महान आदर्शों के अनुरूप ढलने और बदलने के लिए बलपूर्वक घसीट ले चलेंगे। पाप और पतन का युग बदला जाना चाहिए। उसे बदल कर रहेंगे।
  
इसी धरती पर स्वर्ग का अवतरण और इसी मानव प्राणी में देवत्व का उदय हमें अभीष्ट है और इसके लिए भागीरथ तप करेंगे। ज्ञान की गंगा को भूलोक में लाया जाएगा और उसके पुण्य जल में स्नान कराके कोटि-कोटि नर-पशुओं को नर-नारायणों में परिवर्तित किया जाएगा। इसी महान शपथ और व्रत को ज्ञानयज्ञ के रूप में परिवर्तित किया गया है। विचारक्रान्ति की आग में गंदगी का कूड़ा-करकट जलाने के लिए होलिका-दहन जैसा अपना अभियान है। अनीति और अनौचित्य के गलित कुष्ठ से विश्वमानव का शरीर विमुक्त करेंगे। समग्र कायाकल्प का युग परिवर्तन का, लक्ष्य पूरा ही किया जाएगा। ज्ञानयज्ञ की चिनगारियाँ विश्व के कोने-कोने में प्रज्वलित होंगी। विचारक्रांति का ज्योतिर्मय प्रवाह जन-जन के मन को स्पर्श करेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, अक्टूबर १९६९, पृष्ठ ५७, ५८

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग 40)

👉 ज्योतिर्विज्ञान की अति महती भूमिका
ज्येातिष की उपयोगिता आध्यात्मिक चिकित्सा के लिए असंदिग्ध है। यदि आध्यात्मिक चिकित्सक की ज्योतिष का सही और समुचित ज्ञान है तो वह रोगी के जीवन का काफी कुछ आकलन कर सकता है। हालाँकि आज के दौर में ज्योतिष विद्या के बारे में अनेकों भ्रान्तियाँ फैली हैं। कई तरह की कुरीतियों, रूढ़ियों व मूढ़ताओं की कालिख ने इस महान विद्या को आच्छादित कर रखा है। यदि लोक प्रचलन एवं लोक मान्यताओं को दरकिनार कर इसके वास्तविक रूप के बारे में सोचा जाय तो इसकी उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता। यह व्यक्तित्व के परीक्षा की काफी कारगर तकनीक है। इसके द्वारा व्यक्ति की मौलिक क्षमताएँ, भावी सम्भावनाएँ आसानी से पता चल जाती हैं। साथ ही यह भी मालूम हो जाता है कि व्यक्ति के जीवन में कौन से घातक अवरोध उसकी राह रोकने वाले हैं अथवा प्रारब्ध के किन दुर्योगों को उसे किस समय सहने के लिए विवश होना है।
लेकिन इसके लिए इसके स्वरूप एवं प्रक्रिया के विषय को जानना जरूरी है।

आज का विज्ञान व वैज्ञानिकता इस सत्य को स्वीकारती है कि अखिल ब्रह्माण्ड ऊर्जा का भण्डार है। यह स्वीकारोक्ति यहाँ तक है कि आधुनिक भौतिक विज्ञानी पदार्थ के स्थान पर ऊर्जा तरंगों के अस्तित्व को स्वीकारते हैं। उनके अनुसार पदार्थ तो बस दिखने वाला धोखा है, यथार्थ सत्य तो ऊर्जा ही है। इस सृष्टि में कोई भी वस्तु हो या फिर प्राणि- वनस्पति, वह जन्मने के पूर्व भी ऊर्जा था और मरने के बाद भी ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तरंगों का एक हिस्सा बन जायेगा। विज्ञानविद् एवं अध्यात्मवेत्ता दोनों ही इस सत्य को स्वीकारते हैं कि ब्रह्माण्डव्यापी इस ऊर्जा के अनेकों तल- स्तर एवं स्थितियाँ हैं जो निरन्तर परिवॢतत होती रहती हैं। इनमें यह परिवर्तन ही सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय का कारण है।

हालाँकि यह परिवर्तन क्यों होता है- इस बारे में वैज्ञानिकों एवं अध्यात्मविदों में सैद्धान्तिक असहमति है। वैज्ञानिक दृष्टि जहाँ इस परिवर्तन के मूल कारण मात्र सांयोगिक प्रक्रिया मानकर मौन धारण कर लेती है। वहीं आध्यात्मिक दृष्टिकोण इसे ब्राह्मीचेतना से उपजी सृष्टि प्रकिया की अनिवार्यता के रूप में समझता है। इसके अनुसार मनुष्य जैसे उच्चस्तरीय प्राणी की स्थिति में परिवर्तन उसके कर्मों, विचारों, भावों एवं संकल्प के अनुसार होता है। ज्योतिष विद्या का आधारभूत सब यही है। यद्यपि इस विद्या के विशेषज्ञ यह भी बताते हैं कि जीवन व्यापी परिवर्तन के इस क्रम में ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के विविध स्तर भी किसी न किसी प्रकार से मर्यादित होते हैं। ऊर्जा के इन विभिन्न स्तरों को ज्योतिष के विशेषज्ञों ने प्रतीकात्मक संकेतों में वर्गीकृत किया है। नवग्रह, बारह राशियाँ, सत्ताइस नक्षत्र इस क्रमिक वर्गीकरण का ही रूप है। प्रतीक कथाओं, उपभागों एवं रूपकों में इनके बारे में कुछ भी क्यों न कहा गया हो, पर यथार्थ में ये ब्रह्माण्डीय ऊर्जा धाराओं के ही विविध स्तर व स्थितियाँ हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 58

👉 success.

Don’t aim at success. The more you aim at it and make it a target, the more you are going to miss it. For success, like happiness, cannot be pursued; it must ensue, and it only does so as the unintended side effect of one’s personal dedication to a cause greater than oneself or as the by-product of one’s surrender to a person other than oneself. Happiness must happen, and the same holds for success: you have to let it happen by not caring about it. I want you to listen to what your conscience commands you to do and go on to carry it out to the best of your knowledge. Then you will live to see that in the long-run—in the long-run, I say!—success will follow you precisely because you had forgotten to think about it

Viktor E. Frankl

👉 भावनाओं से संचालित जीवनधारा

शरीर और उसकी गतिविधियों के संबंध में सामान्य रूप से हमारी स्थिति ऐसी रहती है, जैसी बच्चों के प्यारे मामाजी की। जिन्होंने अपनी ऐनक आँखों पर चढ़ा रखी है और सारे घर में ऐनक को ढूँढ़ने के लिए उलट-पुलट कर रहे हैं। भन्नाये हुए मामाजी जब बच्चों से ऐनक का पता पूछते हैं, तो बच्चे भी उनकी इस अनभिज्ञता का खूब आनंद लेकर खिलखिलाते हैं। आँखों पर चश्मा चढ़ा है और दुनिया में ढूँढ़ा जा रहा है।
  
अध्यात्मवेत्ताओं ने लगभग यही स्थिति सामान्य लोगों के संबंध में पायी है। ज्ञान और विभूतियों का अथाह सागर मानवीय काया में भरा हुआ है और मनुष्य दर-दर की ठोकरें खा रहा है। पदार्थों में सुख, शांति, संतोष खोजता फिरता अभावग्रस्त जीवन जी रहा है।
  
शरीर गतिशील रहता है, बुद्धि निर्णय लेकर उसकी दिशा निर्धारित करती है, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि यह निर्णय मानवीय अंतराल की गहराइयों में छिपी भावनाओं के अनुरूप होते हैं। शराबी की बुद्धि नशा किये जाने के विरुद्ध लाख तर्क प्रस्तुत करे या अन्यों के तर्कों से प्रभावित हो, किन्तु अंतः में समायी कुसंस्कार जनित भावना उसके कदम मदिरालय तक खींच ले जाती है। यदि कहा जाये कि व्यक्ति की जीवन धारा भावनाओं पर ही आधारित है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिन मूलभूत भावनाओं पर जीवन सत्ता का आधिपत्य है, वे हैं-
  
पहली शारीरिक प्रवृत्ति सहकारिता- शरीर का प्रत्येक कोश अपने आप में पूर्ण है। यदि उपयुक्त सेल कल्चर में रखा जाये, तो प्रत्येक कोश अमीबा की तरह अपना स्वाभाविक जीवन व्यतीत कर सकता है। फिर भी सभी कोश सहकारिता का परिचय देते हुए अपने आपको विभिन्न ऊतकों, अवयवों एवं संस्थानों में गठित कर लेते हैं।
  
दूसरी प्रवृत्ति संघर्ष की है। जीवकोशों में रसायन, हारमोन्स, विटामिन आदि का सुनिश्चित परिणाम है। यदि विजातीय तत्त्व इस संतुलन को बिगाड़ते हैं,तो सेल मेम्ब्रेन में पाये जाने वाले एन्जाइम निरंतर उन तत्त्वों से जूझते रहते हैं।      जीवन साधना का एक बड़ा  साधन संघर्ष है, जिसके द्वारा अपनी इंद्रियों एवं भावनाओं को नियंत्रित किया जाता है।
  
सामंजस्य  की सुंदर प्रवृत्ति शारीरिक गतिविधियों में देखी जाती है। रक्त किसी कारण से शरीर से बीस  प्रतिशत तक निकल भी जाये, तो रक्त आयतन यथावत् बना रहता है। लगभग दस घण्टे के भीतर उसकी पूर्ति मज्जा कोशों द्वारा कर दी जाती है। एक गुर्दा या एक फेफड़ा किसी कारणवश निकाल भी दिया जाये, तो दूसरा दोनों की पूरी व्यवस्था सँभाल लेता है। दुर्गंध पाते ही श्वास नलियाँ सिकुड़ जाती हैं व खाँसी आने लगती है।
  
अंग-अवयवों की सतत सक्रियता उसकी पराक्रम भावना पर आधारित है। पराक्रम का घटना रोग है तथा रुकना मृत्यु, चाहे वह कोशिका संबंधी हो, अंग अवयव या जीवन संबंधी। निरंतर सक्रियता बनाये रखे बिना निर्बाध जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। भौतिक जीवन में आलस्य, प्रमाद व मानसिक थकान अनुभव करना एक तरह से पराक्रम भावना का घटना है।
  
शरीर की प्रत्यावर्तन  की भावना शरीर को नित नूतनता प्रदान करती है। अस्थियों में जमे कैल्शियम का तो क्त्त् प्रतिशत भाग हर साल नया हो जाता है। रक्तकण एवं शरीर के प्रत्येक कोश की आयु अल्प होती है। नये कोशों का निर्माण एवं पुराने कोशों के अवसान का क्रम चलता रहता है। अस्सी दिनों में शरीर की प्रायः सारी चमड़ी नई हो जाती है।
  
नियमित अनुशासन  बने रहना जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। हृदय को ही लें, उसकी सामान्य धड़कन गति स्त्र0  से त्त्0 बार प्रति मिनट है। यदि यह ताल रहित  हो जाये, तो व्यक्ति कार्डियक फेल्योर की स्थिति में पहुँच जाता है।
  
स्रष्टा की सर्वोच्च कृति मानव शरीर है। उसकी गतिविधियाँ निर्वाह करने में समर्थ है। इनको पोषण देकर परिवार, समाज एवं विश्व व्यवस्था तक फैलाया जा सके, तो स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की सरंचना असंभव नहीं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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