सोमवार, 11 अक्टूबर 2021

👉 सच्ची सरकार

कन्धे पर कपड़े का थान लादे और हाट-बाजार जाने की तैयारी करते हुए नामदेव जी से पत्नि ने कहा- भगत जी! आज घर में खाने को कुछ भी नहीं है। आटा, नमक, दाल, चावल, गुड़ और शक्कर सब खत्म हो गए हैं। शाम को बाजार से आते हुए घर के लिए राशन का सामान लेते आइएगा।

भक्त नामदेव जी ने उत्तर दिया- देखता हूँ जैसी विठ्ठल जीकी कृपा। अगर कोई अच्छा मूल्य मिला, तो निश्चय ही घर में आज धन-धान्य आ जायेगा।

पत्नि बोली संत जी! अगर अच्छी कीमत ना भी मिले, तब भी इस बुने हुए थान को बेचकर कुछ राशन तो ले आना। घर के बड़े-बूढ़े तो भूख बर्दाश्त कर लेंगे। पर बच्चे अभी छोटे हैं, उनके लिए तो कुछ ले ही आना।

जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।
ऐसा कहकर भक्त नामदेव जी हाट-बाजार को चले गए।

बाजार में उन्हें किसी ने पुकारा- वाह सांई! कपड़ा तो बड़ा अच्छा बुना है और ठोक भी अच्छी लगाई है। तेरा परिवार बसता रहे। ये फकीर ठंड में कांप-कांप कर मर जाएगा।
दया के घर में आ और रब के नाम पर दो चादरे का कपड़ा इस फकीर की झोली में डाल दे।

भक्त नामदेव जी- दो चादरे में कितना कपड़ा लगेगा फकीर जी?

फकीर ने जितना कपड़ा मांगा,
इतेफाक से भक्त नामदेव जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था।
और भक्त नामदेव जी ने पूरा थान उस फकीर को दान कर दिया।

दान करने के बाद जब भक्त नामदेव जी घर लौटने लगे तो उनके सामने परिजनो के भूखे चेहरे नजर आने लगे। फिर पत्नि की कही बात, कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है। दाम कम भी मिले तो भी बच्चो के लिए तो कुछ ले ही आना।

अब दाम तो क्या, थान भी दान जा चुका था। भक्त नामदेव जी एकांत मे पीपल की छाँव मे बैठ गए।

जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।
जब सारी सृष्टि की सार पूर्ती वो खुद करता है, तो अब मेरे परिवार की सार भी वो ही करेगा। और फिर भक्त नामदेव जी अपने हरिविठ्ठल के भजन में लीन गए।

अब भगवान कहां रुकने वाले थे।
भक्त नामदेव जी ने सारे परिवार की जिम्मेवारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।

अब भगवान जी ने भक्त जी की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया।
नामदेव जी की पत्नी ने पूछा- कौन है?
नामदेव का घर यही है ना?
भगवान जी ने पूछा।

अंदर से आवाज हां जी यही आपको कुछ चाहिये
भगवान सोचने लगे कि धन्य है नामदेव जी का परिवार घर मे कुछ भी नही है फिर ह्र्दय मे देने की सहायता की जिज्ञयासा हैl

भगवान बोले दरवाजा खोलिये
लेकिन आप कौन?

भगवान जी ने कहा- सेवक की क्या पहचान होती है भगतानी? जैसे नामदेव जी विठ्ठल के सेवक, वैसे ही मैं नामदेव जी का सेवक हूl

ये राशन का सामान रखवा लो। पत्नि ने दरवाजा पूरा खोल दिया। फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ, कि घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई।
इतना सामान! नामदेव जी ने भेजा है? मुझे नहीं लगता। पत्नी ने पूछा।

भगवान जी ने कहा- हाँ भगतानी! आज नामदेव का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है।
जो नामदेव का सामर्थ्य था उसने भुगता दिया।
और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है।
जगह और बताओ।
सब कुछ आने वाला है भगत जी के घर में।

शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था।

समान रखवाते-रखवाते पत्नि थक चुकी थीं। बच्चे घर में अमीरी आते देख खुश थे। वो कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और कभी गुड़। कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर-भर कर मेवे लेकर बैठ जाते। उनके बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।

भक्त नामदेव जी अभी तक घर नहीं आये थे, पर सामान आना लगातार जारी था।

आखिर पत्नी ने हाथ जोड़ कर कहा- सेवक जी! अब बाकी का सामान संत जी के आने के बाद ही आप ले आना।
हमें उन्हें ढूंढ़ने जाना है क्योंकी वो अभी तक घर नहीं आए हैं।

भगवान जी बोले- वो तो गाँव के बाहर पीपल के नीचे बैठकर विठ्ठल सरकार का भजन-सिमरन कर रहे हैं।
अब परिजन नामदेव जी को देखने गये

सब परिवार वालों को सामने देखकर नामदेव जी सोचने लगे, जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ़ रहे हैं।

इससे पहले की संत नामदेव जी कुछ कहते उनकी पत्नी बोल पड़ीं- कुछ पैसे बचा लेने थे। अगर थान अच्छे भाव बिक गया था, तो सारा सामान संत जी आज ही खरीद कर घर भेजना था क्या?

भक्त नामदेव जी कुछ पल के लिए विस्मित हुए। फिर बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया, कि जरूर मेरे प्रभु ने कोई खेल कर दिया है।

पत्नि ने कहा सच्ची सरकार को आपने थान बेचा और वो तो समान घर मे भैजने से रुकता ही नहीं था। पता नही कितने वर्षों तक का राशन दे गया। उससे मिन्नत कर के रुकवाया- बस कर! बाकी संत जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।

भक्त नामदेव जी हँसने लगे और बोले-! वो सरकार है ही ऐसी। जब देना शुरू करती है तो सब लेने वाले थक जाते हैं। उसकी देना कभी भी खत्म नहीं होता।

👉 अपनी श्रद्धा को उर्वर एवं सार्थक बनने दें

कभी हमने पूर्व जन्मों के सत् संस्कार वालों और अपने साथी सहचरों को बड़े प्रयत्नपूर्वक ढूंढा है और 'अखण्ड- ज्योति परिवार की शृद्खला में गूंथकर एक सुन्दर गुलदस्ता तैयार किया था। मंशा थी इन्हें देवता के चरणों में चढ़ा येंगे। पर अब जब जब कि बारीकी से नजर डालते हैं कि कभी के अति सुरम्य पुष्प अब परिस्थितियों ने बुरी तरह विकृत कर दिये है। वे अपनो कोमलता, शोभा और सुगंध तोनों ही खोकर बुरी तरह इतनी मुरझा गये कि हिलाते- दुलाते हैं तो भी सजीवता नहीं आती उलटी पंखड़ियाँ भर जाती हैं। ऐसे पुष्पों को फेंकना तो नहीं है क्योंकि मूल संस्कार जब तक विद्यमान हैं तब तक यह आशा भी है कि कभी समय आने पर इनका भी कुछ सदुपयोग सम्भव होगा, किसी औषधि में यह मुरझाये फूल भी कभी काम आयेंगे। पर आज तो देव देवो पर चढ़ाये जाने योग्य सुरभित पुष्पों की आवश्यकता है सो उन्हीं की छांट करनी पड़ रही है। अभी आज तो सजीवता ही अभीष्ट है और वस्तुस्थिति की परख तो कहने- सुनने- देखने- मानने से नहीं वरन् कसौटी पर कसने से ही होता है। सो परिवार को सजोवता- निर्जीवता- आत्मीयता, विडम्बना के अंश परखने के लिए यह वर्तमान प्रक्रिया प्रस्तुत की है। बेकार की घचापच छट जाने से अपने अन्तरिम परिवार को एक छोटी सीमा अपने लिए भी हलकी पड़ेगी बौर अधिक ध्यान से सींचे- पोसे जाने के कारण वे पौधे भी अधिक लाभान्वित होंगे

नव- निर्माण के लिए अभी बहुत काम करना बाकी है। विचार- प्रसार तो उसका बीजारोपण है। इसके बिना कोई गति नहीं। अक्षर ज्ञान की शिक्षा पाये बिना ऊंची पढ़ाई की न तो आशा है न सम्भावना है। इसलिए प्रारम्भ में हर किसी को अक्षर ज्ञान कराना अनिवार्य है। पीछे जिसकी जैमी अभिरुचि हो शिक्षा के विषय चुनना रह सकता है पर अनिवार्य में छूट किसी को नहीं मिल सकती। प्रारम्भिक अक्षर सबको समान रूप में  पढ़ने पड़ेगे। विचारों की उप-योगिता, महत्ता, शक्ति और प्रमुखता का रहस्य हर किसी के मस्तिष्क में कूट- कूट कर भरा जाना है और बताया जाना है कि व्यक्ति की महानता और समाज की प्रखरता उसमें सक्षिप्त विचार पद्धति पर ही सन्निहित है। परिस्थितियों के बिगड़ने- बनने का एकमात्र आधार विचारणा ही है। विवेक के प्रकाश में यह परखा जाना चाहिये कि हमने अपने ऊपर कितने अवांछनीय और अनुपयुक्त  विचार अंट रखे है और उनने हमारी कितनी लोमहर्षक दुर्गति की है। हमें तत्त्वदर्शी की तरह वस्तुस्थिति का विश्लेषण करना होगा और निर्णय करना होगा कि किन आदर्शों और उत्कृष्टताओं को अपनाने के लिए कठिबद्ध हों ताकि वर्तमान के नरक को हटाकर उज्ज्वल भविष्य की स्वर्गीय सम्भावनाओं को मूर्तिमान् बना सकना सम्भव हो सके। विचार- क्रान्ति का मूल यही रत्रतन्त्र चिन्तन है। जन- मानस को उसी की प्राथमिक शिक्षा दी जानी है। अभी हमारी योजना का प्रथम चरण यही है। अगले चरणों में तो अनेक रचनात्मक और अनेक संघर्षात्मक काम करने को पड़े हैं। युग परिवर्तन और घरती पर स्वर्ग का अवतरण अगणित प्रयासों की अपेक्षा रखता है। वह बहुत व्यापक और बहुमुखी योजना हमारे मस्तिष्क में है। उसकी एक हलकी- सी झाकी गत दिनों योजना में करा भी चुके हैं। वह हमारा रचनात्मक प्रयास होगा। संघर्षात्मक पथ एक और ही जिसके अनुसार अवांछनीयता, अनैतिकता एवं अरामाजिकता के विरुद्ध प्रचलित 'घिराव' जैसे भाध्यमों से लेकर समग्र बहिष्कार तक और उतनी अधिक दबाव देने की प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं जिससे दुष्टुता भी बोल जाय और उच्छ्खनता का कचू-मर निकल जाय। सजग, समर्थ लोगों की एक सक्रिय  स्वय- सेवक सेना प्राण हथेली पर रखकर खड़ी हो जाय तो आज जिन अनैतिकताओं का चारों और बोलबाला है और जो न हटने वालो न टलने वाली दीखती हैं। आंधी में उड़ते तिनकों की तरह तिरोहित हो जाँयगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1969

👉 भक्तिगाथा (भाग ७४)

जहाँ भक्ति है, वहाँ भगवान हैं

ये क्षण बड़े शीतल व सुखद थे। ये अनुभूतियाँ कई क्षणों तक सभी को घेरे रहीं, तभी उस सघन आध्यात्मिक वातावरण में एक प्रखर तेजस्विता ने आकार ग्रहण किया। यह आकृति परम तेजस्वी व प्रखर तपस्वी ऋषि दुर्वासा की थी। ऋषि दुर्वासा अपने प्रचण्ड तप व असाध्य साधन के लिए विख्यात थे। उन्होंने योग एवं तंत्र की अनगिनत दुष्कर साधनाएँ सम्पन्न की थीं। विविध विद्याएँ अपने सभी सुफल के साथ उनके सामने करबद्ध खड़ी रहती थीं। इन महान ऋषि ने केवल दुर्व खाकर हजारों वर्ष तप किया था। दीर्घ अवधि तक इस दुर्व (दूब)+असन (भोजन) के कारण ही उनका नाम दुर्वासा हो गया था। उनकी चमत्कारिक शक्तियों व विकट तप की ही भाँति उनका क्रोध भी लोकविख्यात था परन्तु उनका क्रोध सदा ही किसी न किसी भाँति लोककल्याणकारी था।

ऐसे ऋषि दुर्वासा का आगमन, सुखद किन्तु आश्चर्यजनक था। वे महारूद्र के रौद्रतेज की साकार रौद्र मूर्ति थे। उनके आगमन से कुछ को प्रसन्नता हुई तो कुछ को आश्चर्य। परन्तु सुखी सभी थे क्योंकि सभी को यह लग रहा था कि महर्षि के आगमन से भक्तिगाथा में एक नयी कथा पिरोयी जाएगी। ऋषियों ने महर्षि का स्वागत किया। देवों, गन्धर्वों, सिद्धों व चारणों ने उन्हें भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया। महर्षि दुर्वासा ने विहंसते हुए सभी का अभिवादन स्वीकार किया। उन्हें इस तरह हंसते हुए देखकर सभी को आश्वस्ति मिली। सभी को आश्वस्ति पाते देखकर महर्षि भी पुलकित हुए। उन्होंने सभी से कहा कि ‘‘मैंने अपने जीवन में अनगिनत साधनाएँ की हैं। इनकी संख्या इतनी अधिक है कि अब तो मैंने साधनाओं एवं सिद्धियों की गणना करना ही छोड़ दिया है। विद्याओं के विविध प्रकार और उनके सुफल मेरे लिए अर्थहीन हो गए हैं। इन सबसे मुझे किंचित मात्र भी शान्ति नहीं मिली।

यह परम शान्ति तो भक्ति में है। जिसकी वजह से वत्स अम्बरीश का इतने युगों बाद नामश्रवण भी भावों को भिगो देता है। जहाँ भक्ति है, वहाँ स्वयं भगवान हैं, और जहाँ भगवान हैं, वहाँ पराजय और अशुभ टिक ही नहीं सकते। इसलिए भक्ति ही श्रेष्ठतम साधन मार्ग है।’’ महर्षि दुर्वासा के ये अनुभूतिवाक्य सभी को प्रीतिपूर्ण लगे। उन सबने देवर्षि की ओर देखा। देवर्षि ने पुलकित मन से महर्षि दुर्वासा की ओर देखते हुए अपने नए सूत्र का उच्चारण किया-

‘तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः’॥ ३३॥
इसलिए संसार बन्धन से मुक्त होने की इच्छा रखने वालों को भक्ति ही ग्रहण करनी चाहिए।

देवर्षि के इन वचनों को सुनकर ऋषिश्रेष्ठ दुर्वासा कह उठे- ‘‘नारद के ये वचन त्रिकालसत्य हैं, त्रिवारसत्य हैं, और सच यही है कि यही सर्वकालिक सत्य है। मेरी स्वयं की अनुभूति भी यही कहती है।’’ फिर थोड़ा रुककर वह बोले- ‘‘सम्भव है कि आपने यह कथा सुन रखी हो परन्तु फिर भी मैं इसे कहना चाहता हूँ।’’ ‘‘अवश्य कहें-महर्षि!’’ सभी ने लगभग एक स्वर से कहा। केवल ऋषि अत्रि मुस्करा दिए। ऋषि दुर्वासा ने पिता की इस मुस्कान पर दोनो हाथ जोड़ लिए और कहना प्रारम्भ किया- ‘‘अभी आपने ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के मुख से भक्त अम्बरीश का भक्तिप्रसंग सुना है। मैं भी आज उनकी भक्ति की सराहना करना चाहता हूँ। इस कथा को घटित हुए युगों बीत गए परन्तु मेरे अन्तःकरण में वे सभी दृश्य अभी भी जीवन्त हैं।

उस दिन भी एकादशी व्रत के परायण का उत्सव था। ठीक वैसा ही आयोजन, वैसा ही समारोह-सम्भार, जिसकी कथा आप सभी ने थोड़ी ही देर पहले सुनी है। बस अन्तर था तो इतना, कि वत्स अम्बरीश ने एक दिन पूर्व मुझे आमंत्रित किया था परन्तु मैं परायण उत्सव पर निश्चित मुहूर्त्त से काफी विलम्ब से पहुँचा। अम्बरीश जब तक प्रतीक्षा कर सकते थे, उन्होंने की। परन्तु बाद में ऋषियों के निर्देश से उन्होंने परायण कर लिया। हालांकि, इसके लिए उन्होंने मुझसे क्षमायाचना भी की। परन्तु मैं उस दिन अहंता से ग्रसित था। सो मैंने क्रोधवश क्रूर करालकृत्या का प्रयोग अम्बरीश पर कर दिया। वहाँ उपस्थित ऋषियों के पास इसकी कोई काट न थी। सभी असहाय से खड़े इसे देखते रहे। और क्रूर करालकृत्या अम्बरीश को जलाने लगी।

उन्होंने ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की ओर देखा और इन महान ऋषि के संकेत को समझकर आर्त स्वर से पुकारा- रक्षा करो नारायण! करूणा करो हे भक्तवत्सल!! अम्बरीश की इस आर्त पुकार ने जैसे सप्तलोक और चौदह भुवनों को बेध दिया और फिर पलक झपकते ही जैसे सहस्रों-सहस्र सूर्य आकाश में उदित हो गए। यह नारायण के सुदर्शन चक्र का प्राकट्य था, जिसने क्षणार्ध में उस कृत्या को भस्मीभूत कर दिया। फिर वह सुदर्शन वेगपूर्ण हो मुझे दण्डित करने के लिए दौड़ा। मैं भी भयभीत होकर भागा- पहले पिताश्री अत्रि एवं माताश्री अनुसूइया के पास गया। इन्होंने मुझे परामर्श दिया कि पुत्र तुम अम्बरीश की शरण में जाओ। अन्यत्र तुम्हें कहीं भी शरण न मिलेगी। पर मुझ अभिमानी को यह बात समझ में न आयी। सो ऋषियों के पास से त्रिदेवों के पास गया। ब्रह्मा, शिव और अन्त में नारायण के पास। परन्तु वहाँ भी वही कहा गया- कि तुम अम्बरीश के अपराधी हो उन्हीं की शरण में जाओ। आखिर थक हार कर मैं अम्बरीश के पास आया। परन्तु यह क्या, उन्होंने तो मेरे पाँव पकड़ लिए, और कहा आप पर नारायण की अवश्य कृपा होगी। उनके इस स्वरों के साथ ही सुदर्शन तिरोहित हो गया। परन्तु उस दिन मुझे यह बोध अवश्य हो गया कि भक्ति से श्रेष्ठ अन्य कोई साधन नहीं है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १३६

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