शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

👉 माथे का टीका

काफी समय पहले की बात है कि एक मन्दिर के बाहर बैठ कर एक भिखारी भीख माँगा करता था। (वह एक बहुत बड़े महात्मा जी का शिष्य था जो कि इक पूर्ण संत थे) उसकी उम्र कोई साठ को पार कर चुकी थी। आने जाने वाले लोग उसके आगे रक्खे हुए पात्र में कुछ न कुछ डाल जाते थे। लोग कुछ भी डाल दें, उसने कभी आँख खोल कर भी न देखा था कि किसने क्या डाला।

उसकी इसी आदत का फायदा उसके आस पास बैठे अन्य भिखारी तथा उनके बच्चे उठा लेते थे। वे उसके पात्र में से थोड़ी थोड़ी देर बाद हाथ साफ़ कर जाते थे।

कई उसे कहते भी थे कि, सोया रहेगा तो तेरा सब कुछ चोरी जाता रहेगा। वह भी इस कान से सुन कर उधर से निकाल देता था। किसी को क्या पता था कि वह प्रभु के प्यार में रंगा हुआ था। हर वक्त गुरु की याद उसे अपने में डुबाये रखती थी।

एक दिन ध्यान की अवस्था में ही उसे पता लगा कि उसकी अपनी उम्र नब्बे तक पहुंच जायेगी। यह जानकर वह बहुत उदास हो गया। जीवन इतनी कठिनाइयों से गुज़र रहा था पहले ही और ऊपर से इतनी लम्बी अपनी उम्र की जानकारी - वह सोच सोच कर परेशान रहने लग गया।

एक दिन उसे अपने गुरु की उम्र का ख्याल आया। उसे मालूम था कि गुरुदेव की उम्र पचास के आसपास थी। पर ध्यान में उसकी जानकारी में आया कि गुरुदेव तो बस दो बरस ही और रहेंगे।

गुरुदेव की पूरी उम्र की जानकारी के बाद वह और भी उदास हो गया। बार बार आँखों से बूंदे टपकने लग जाती थीं। पर उसके अपने बस में तो नही था न कुछ भी। कर भी क्या सकता था, सिवाए आंसू बहाने के।

एक दिन सुबह कोई पति पत्नी मन्दिर में आये। वे दोनों भी उसी गुरु के शिष्य थे जिसका शिष्य वह भिखारी था। वे तो नही जानते थे भिखारी को, पर भिखारी को मालूम था कि दोनों पति पत्नी भी उन्ही गुरु जी के शिष्य थे।

दोनों पति पत्नी लाइन में बैठे भिखारियों के पात्रों में कुछ न कुछ डालते हुए पास पहुंच गये। भिखारी ने दोनों हाथ जोड़ कर उन्हें ऐसे ही प्रणाम किया जैसे कोई घर में आये हुए अपने गुरु भाईओं को करता है।

भिखारी के प्रेम पूर्वक किये गये प्रणाम से वे दोनों प्रभावित हुए बिना न रह सके। भिखारी ने उन दोनों के भीतर बैठे हुए अपने गुरुदेव को प्रणाम किया था इस बात को वे जान न पाए।

उन्होंने यही समझा कि भिखारी ने उनसे कुछ अधिक की आस लगाई होगी जो इतने प्यार से नमस्कार किया है। पति ने भिखारी की तरफ देखा और बहुत प्यार से पुछा, कुछ कहना है या कुछ और अधिक चाहिए ?

भिखारी ने अपने पात्र में से एक सिक्का निकाला और उनकी तरफ बढ़ाते हुए बोला, जब गुरुदेव के दर्शन को जायो तो मेरी तरफ से ये सिक्का उनके चरणों में भेंट स्वरूप रख देना।

पति पत्नी ने एक दुसरे की तरफ देखा, उसकी श्रद्धा को देखा, पर एक सिक्का, वो भी गुरु के चरणों में! पति सोचने लगा क्या कहूँगा, कि एक सिक्का! कभी एक सिक्का गुरु को भेंट में तो शायद किसी ने नही दिया होगा, कभी नही देखा।

पति भिखारी की श्रद्धा को देखे तो कभी सिक्के को देखे। कुछ सोचते हुए पति बोला, आप इस सिक्के को अपने पास रक्खो, हम वैसे ही आपकी तरफ से उनके चरणों में रख देंगे।

नही आप इसी को रखना उनके चरणों में। भिखारी ने बहुत ही नम्रता पूर्वक और दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा। उसकी आँखों से झर झर आंसू भी निकलने लग गये।

भिखारी ने वहीं से एक कागज़ के टुकड़े को उठा कर सिक्का उसी में लपेट कर दे दिया। जब पति पत्नी चलने को तैयार हो गये तो भिखारी ने पुछा, वहाँ अब भंडारा कब होगा?भंडारा तो कल है, कल गुरुदेव का जन्म दिवस है न। भिखारी की आँखे चमक उठीं। लग रहा था कि वह भी पहुंचेगा, गुरुदेव के जन्म दिवस के अवसर पर।

दोनों पति पत्नी उसके दिए हुए सिक्के को लेकर चले गये। अगले दिन जन्म दिवस (गुरुदेव का) के उपलक्ष में आश्रम में भंडारा था। वह भिखारी भी सुबह सवेरे ही आश्रम पहुंच गया।

भंडारे के उपलक्ष में बहुत शिष्य आ रहे थे। पर भिखारी की हिम्मत न हो रही थी कि वह भी भीतर चला जाए। वह वहीं एक तरफ खड़ा हो गया कि शायद गेट पर खड़ा सेवादार उसे भी मौका दे भीतर जाने के लिए। पर सेवादार उसे बार बार वहाँ से चले जाने को कह रहा था।

दोपहर भी निकल गयी, पर उसे भीतर न जाने दिया गया। भिखारी वहाँ गेट से हट कर थोड़ी दूर जाकर एक पेड़ की छावं में खड़ा हो गया। वहीं गेट पर एक कार में से उतर कर दोनों पति पत्नी भीतर चले गये। एक तो भिखारी की हिम्मत न हुई कि उन्हें जा कर अपने सिक्के की याद दिलाते हुए कह दे कि मेरी भेंट भूल न जाना। और दूसरा वे दोनों शायद जल्दी में भी थे इस लिए जल्दी से भीतर चले गये। और भिखारी बेचारा, एक गरीबी, एक तंग हाली और फटे हुए कपड़े उसे बेबस किये हुए थे कि वह अंदर न जा सके।

दूसरी तरफ दोनों पति पत्नी गुरुदेव के सम्मुख हुए, बहुत भेंटे और उपहार थे उनके पास, गुरुदेव के चरणों में रखे। पत्नी ने कान में कुछ कहा तो पति को याद आ गया उस भिखारी की दी हुई भेंट। उसने कागज़ के टुकड़े में लिपटे हुए सिक्के को जेब में से बाहर निकाला, और अपना हाथ गुरु के चरणों की तरफ बढ़ाया ही था तो गुरुदेव आसन से उठ खड़े हुए, गुरुदेव ने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाकर सिक्का अपने हाथ में ले लिया, उस भेंट को गुरुदेव ने अपने मस्तक से लगाया और पुछा, ये भेंट देने वाला कहाँ है, वो खुद क्यों नही आया ?

गुरुदेव ने अपनी आँखों को बंद कर लिया, थोड़ी ही देर में आँख खोली और कहा, वो बाहर ही बैठा है, जायो उसे भीतर ले आयो। पति बाहर गया, उसने इधर उधर देखा। उसे वहीं पेड़ की छांव में बैठा हुआ वह भिखारी नज़र आ गया।

पति भिखारी के पास गया और उसे बताया कि गुरुदेव ने उसकी भेंट को स्वीकार किया है और भीतर भी बुलाया है। भिखारी की आँखे चमक उठीं। वह उसी के साथ भीतर गया, गुरुदेव को प्रणाम किया और उसने गुरुदेव को अपनी भेंट स्वीकार करने के लिए धन्यवाद दिया।

गुरुदेव ने भी उसका हाल जाना और कहा प्रभु के घर से कुछ चाहिए तो कह दो आज मिल जायेगा। भिखारी ने दोनों हाथ जोड़े और बोला - एक भेंट और लाया हूँ आपके लिए, प्रभु के घर से यही चाहता हूँ कि वह भेंट भी स्वीकार हो जाये।

हाँ होगी, लायो कहाँ है? वह तो खाली हाथ था, उसके पास तो कुछ भी नजर न आ रहा था भेंट देने को, सभी हैरान होकर देखने लग गये कि क्या भेंट होगी!

हे गुरुदेव, मैंने तो भीख मांग कर ही गुज़ारा करना है, मैं तो इस समाज पर बोझ हूँ। इस समाज को मेरी तो कोई जरूरत ही नही है। पर हे मेरे गुरुदेव, समाज को आपकी सख्त जरूरत है, आप रहोगे, अनेकों को अपने घर वापिस ले जायोगे।

इसी लिए मेरे गुरुदेव, मैं अपनी बची हुई उम्र आपको भेंट स्वरूप दे रहा हूँ। कृपया इसे कबूल करें।" इतना कहते ही वह भिखारी गुरुदेव के चरणों पर झुका और फिर वापिस न उठा। कभी नही उठा।

वहाँ कोहराम मच गया कि ये क्या हो गया, कैसे हो गया? सभी प्रश्न वाचक नजरों से गुरुदेव की तरफ देखने लग गये। एक ने कहा,  हमने भी कई बार कईओं से कहा होगा कि भाई मेरी उम्र आपको लग जाए, पर हमारी तो कभी नही लगी। पर ये क्या, ये कैसे हो गया??

गुरुदेव ने कहा, इसकी बात सिर्फ इस लिए सुन ली गयी क्योंकि इसके माथे का टीका चमक रहा था। आपकी इस लिए नही सुनी गयी क्योंकि माथे पर लगे टीके में चमक न थी।

सभी ने उसके माथे की तरफ देखा, वहाँ तो कोई टीका न लगा था। गुरुदेव सबके मन की उलझन को समझ गये और बोले  टीका ऊपर नही, भीतर के माथे पर लगा होता है..!!

👉 प्रतिहिंसा का अन्त नहीं

👉 आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग (भाग ३)

कर्मयोगियों को सुशील, मनोहर मिलनसार प्रकृति का होना होगा। उसको पूर्ण रूप से, अनुकूलता, क्षमाशीलता, सहानुभूति करने वाला, विश्व प्रेम, दया के गुणों से युक्त रहना होगा। उनको दूसरों की चाल तथा आदतों के अनुकूल ही अपने को बनाना होगा। उनको अपने हृदय को ऐसा बनाना होगा कि सभी को अपने गले लगा सकें। उन्हें अपने मन को शाँत तथा समतुल्य रखना होगा। दूसरों को सुखी देखकर उनको प्रसन्न होना होगा। अपनी सब इन्द्रियों को अपने वश में करना होगा। अपना जीवन बहुत सादगी से व्यतीत करना होगा। उन्हें अनादर, अपकीर्ति, निन्दा, कलंक, लज्जित होना, कठोर वचन सुनना, शीत-उष्ण तथा रोगों के कष्ट को सहना होगा। उन्हें सहनशील होना होगा। उनको आप में, ईश्वर में, शास्त्रों में, अपने गुरु के वचन में पूरा विश्वास रखना होगा।

जो मनुष्य संसार की सेवा करता है वह अपनी ही सेवा करता है। जो मनुष्य दूसरों की मदद करता है वास्तव में वह अपनी ही मदद करता है। यह सदा ध्यान में रखने योग्य बात है। जब आप दूसरे व्यक्ति की सेवा करते हैं, जब आप अपने देश की सेवा करते हैं तब आप यह समझकर कि ईश्वर ने आपको सेवा द्वारा अपने को उन्नत तथा सुधारने का दुर्लभ अवसर दिया है। उस मनुष्य के आप कृतज्ञ हों जिसने आपको सेवा करने का अवसर दिया हो।

कर्मयोग ही मन को अन्तर्ज्योति तथा आत्मज्ञान की प्राप्ति का उपयुक्त पात्र बनाता है। वह हृदय को विशाल बनाकर सब प्रकार के बाधा विघ्नों को जो एकता प्राप्त करने में बाधक हुआ करते हैं, हटा देता है। कर्मयोग ही चित्त वृद्धि के लिये एक सफल साधन है।

निष्काम सेवा करने से आप अपने हृदय को पवित्र बना लेते हैं। अहंभाव, घृणा, ईर्ष्या, श्रेष्ठता का भाव और उसी प्रकार के और सब आसुरी सम्पत्ति के गुण नष्ट हो जाते हैं। नम्रता, शुद्ध प्रेम, सहानुभूति, क्षमा, दया की वृद्धि होती है। भेद-भाव मिट जाते हैं। स्वार्थपरता निर्मूल हो जाती है। आपका जीवन विस्तृत तथा उदार हो जायेगा। आप एकता का अनुभव करने लगेंगे। अन्त में आपको आत्मज्ञान प्राप्त हो जायेगा। आप सब में “एक” और “एक” में ही सबका अनुभव करने लगेंगे। आप अत्यधिक आनन्द का अनुभव करने लगेंगे। संसार कुछ भी नहीं है केवल ईश्वर की ही विभूति है। लोक सेवा ही ईश्वर की सेवा है। सेवा को ही पूजा कहते हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1950 पृष्ठ 8

👉 MISCELLANEOUS Quotation & Answer (Part 7)

Q.7. Why is the Sadhak advised to keep the progress in Sadhana a secret?

Ans. The purpose of keeping Sadhana secret is only to avoid the possibility of confusion because of multiple interactions with people, so that after dispelling all doubts, one holds fast to it firmly and marches ahead on the chosen path. People try to criticise, find faults and suggest new methods and create doubts in the mind of the Sadhak, if he discusses the method of his Sadhana with several persons. Everyone who is consulted will suggest something new and the Sadhak’s mind will get confused and he will lose faith. He will then change frequently his method of Sadhana and on account of doubt get deprived of its benefits. It is therefore, essential to have full faith in one’s well settled method and it should be pursued with unflinching devotion, under the guidance of an accomplished Guru.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 87

👉 लक्ष्य

क्षण भंगुर लालसाओं और उनकी तृप्ति को लक्ष्य नहीं बनाया जा सकता। जो अभी हैं, अभी नहीं हैं। जिनके रंग-रूप पल-पल बदलते हैं। जिनके पूरी होने से मिलने वाली तृप्ति, नहीं पूरी होने से मिलने वाली अतृप्ति से गहरा अवसाद एवं विषाद देती है। ऐसी क्षण भंगुर माया मरीचिका भला जीवन का लक्ष्य कैसे हो सकती है। लक्ष्य को तो सदा शाश्वत्-सर्वकालिक एवं शान्तिदायक होना चाहिए।
  
महान सन्त गुरजिएफ अपने शिष्यों से कथा कहते थे- आकाश में उड़ने वाली चिड़िया को अपने से थोड़ी ही दूर एक चमकता हुआ श्वेत बादल दिखा। उसने सोचा- चलो मैं उड़कर उस बादल को छू लूँ। ऐसा सोचते हुए वह चिड़िया उस बादल को अपना लक्ष्य बनाकर अपनी पूरी क्षमता से उड़ चली। लेकिन हवाओं के साथ अठखेलियाँ करता वह बादल कभी पूर्व में जाता तो कभी पश्चिम में और कभी तो वहीं रुककर चक्कर खाते हुए चक्करों का चक्रव्यूह रचाने लगता। यही नहीं कभी वह छुपता तो कभी प्रकट हो जाता। अपनी बहुतेरी कोशिशों के बाद चिड़िया उस तक नहीं पहुँच सकी।
  
प्रयासों के इस दौर में उसने पाया कि जिस बादल के पीछे वह अपने जीवन को दाँव में लगाकर भाग रही थी, वह अचानक हवा के झोकों से छट गया है। अपने अथक प्रयत्न के परिणाम में उस चिड़िया ने देखा कि अरे! यहाँ तो कुछ भी नहीं है। इस सच को देखकर उस चिड़िया को अपनी भूल का अहसास हुआ। उसके जाग्रत् हो चुके अन्तर्विवेक ने कहा; यह तो बड़ी भूल हो गयी। यदि लक्ष्य बनाना हो तो क्षण भंगुर बादलों को नहीं बल्कि पर्वत की चोटियों को बनाना चाहिए, जो शाश्वत और अनन्त है।
  
गुरजिएफ की यह बोध कथा प्रायः हम सभी के जीवन में घटित होती है। हममें से अनेक क्षण भंगुर बादलों की ही तरह क्षण भंगुर लालसाओं को लक्ष्य बनाने के भ्रम में पड़े रहते हैं। यदि वे अन्तर्विवेक के प्रकाश में देखें तो निकट ही अनादि और अनन्त परमात्मा की पर्वतमालाएँ भी हैं। जिसे जीवन का लक्ष्य बनाने से सदा-सर्वदा कृतार्थता और धन्यता ही उपलब्ध होती है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १९५

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...