बिन श्रद्घा-विश्वास के नहीं सधेगा अभ्यास
जो साधक किसी तरह अपनी साधना में दीर्घकाल और निरन्तरता को बनाए रखते हैं, उनमें भावभरी श्रद्धा एवं अडिग निष्ठा की कमी रह जाती है। बार-बार मन में सन्देह एवं चित्त में व्यग्रता पनपती रहती है। पता नहीं, यह साधना सही है भी या नहीं। पता नहीं, साधना का पथ दिखाने वाले गुरु ठीक भी हैं या नहीं। पता नहीं, मुझे मंजिल मिलेगी भी या नहीं। इस तरह से डगमगाती श्रद्धा और चंचल निष्ठा, साधक और उसकी साधना को कहीं भी नहीं पहुँचने देती। वह प्रत्यक्ष में क्रिया तो करता रहता है, पर भाव और विचारों की कमजोरी के कारण उसकी साधना सदा प्राणहीन और बलहीन बनी रहती है।
साधना के अभ्यास में बल और प्राण कैसे आएँ? इसका उत्तर स्वयं परम पूज्य गुरुदेव का अपना जीवन है। चौबीस वर्षों का दीर्घकाल, उसमें सदा बनी रहने वाली तप की निरन्तरता, सद्गुरु और गायत्री मंत्र पर गहन भाव श्रद्धा एवं अविचल अडिग निष्ठा ने ही उन्हें महासाधक और महायोगी होने का गौरव दिलाया। गुरुदेव अपनी चर्चा में कहते थे कि मेरे लिए गायत्री महामंत्र, गायत्री माता और अपनी मार्गदर्शक सत्ता में कभी कोई अन्तर नहीं रहा। गायत्री महामंत्र के २४ अक्षर ही मेरे जीवन सर्वस्व थे और हैं। अपनी अविराम साधना में पल-पल इनमें मैंने अपने प्राण अर्पित किए हैं। यही है आदर्श मानदण्ड—साधना के अभ्यास का। बिना थके, बिना रुके, समर्पित भावनाओं के साथ साधना का अभ्यास करते जाना चाहिए।
गायत्री महामंत्र की साधना के सम्बन्ध में गुरुदेव की एक बात और मनन योग्य है। वह कहते थे- गायत्री साधना के चमत्कार अनुभव करने हैं, तो मन को इधर-उधर मत भटकाओ, अधिक नहीं तो अनुष्ठान के नियमों का पालन करते हुए २४-२४ हजार के अनुष्ठान करते रहो। समर्पित भाव श्रद्धा के साथ की गई निरन्तर, निष्ठापूर्वक और लम्बे समय की साधना के परिणाम में गायत्री महामंत्र तुम्हें सब कुछ दे देगा। इस साधना में भाव श्रद्धा कैसी हो इस बारे में गोस्वामी जी महाराज के वचन है-
पुलक गात हिय सिय रघुबीरु।
जीह नाम जप लोचन नीरू॥
भावना से पुलकित शरीर, हृदय में आराध्य की छवि, जिह्वा से मंत्र जप, और नयनों में भाव बिन्दु। महातपस्वी भरत की साधना के प्रसंग में कही गयी चौपाई गायत्री साधकों के लिए जीवन मंत्र बन सकती है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या