गुरुवार, 21 अक्टूबर 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ७७)

भक्तवत्सल भगवान के प्रिय भीष्म

देवर्षि ने उन्हें सत्कारपूर्वक अपने पास बिठाया और इसी के साथ भक्तिसूत्र के अगले सत्य का उच्चारण किया-

‘तत्तु विषयत्यागात् सङ्गत्यागाच्च’॥३५॥
वह (भक्ति-साधन) विषय त्याग और सङ्गत्याग से सम्पन्न होता है।

इस सूत्र को सुनकर न जाने क्यों महर्षि धौम्य की आँखें भींग आयीं। महर्षि की आँखों में अचानक छलक आए इन आँसुओं को सभी ने देखा। सप्तऋषियों सहित सभी देवगण-सिद्धगण महर्षि के इन भावबिन्दुओं को निहारने लगे परन्तु किसी ने कहा कुछ नहीं। थोड़ी देर तक सब ओर मौन पसरा रहा। इसे बेधते हुए ब्रह्मर्षि विश्वामित्र और पुलह लगभग एक साथ कह उठे- ‘‘लगता है इन क्षणों में किन्हीं स्मृतियों ने आपको विकल किया है।’’ ‘हाँ’ कहते हुए ऋषि धौम्य ने अपना सिर उठाया और बोले, ‘‘देवर्षि के सूत्र से मुझे विषय और सङ्ग का सम्पूर्ण रूप से त्याग करने वाले भक्त भीष्म की याद आ गयी।’’ भीष्म का नाम सुनकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से भी न रहा गया। आखिर उन्होंने ही तो अष्टवसुओं को श्राप दिया था। इन अष्टवसुओं में से सात को तो जगन्माता श्रीगंगा जी मुक्त कर पायीं परन्तु आठवें वसु ‘धौ’ को शान्तनु के आग्रहवश वह अपने जल प्रवाह में न प्रवाहित कर सकीं।
यही गंगापुत्र देवव्रत थे। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को भीष्म के अतीत का यह प्रसंग भूला न था। वह भी उन्हें याद कर भावविह्वल हो उठे और कहने लगे, ‘‘निश्चय ही गंगापुत्र महान भक्त थे। सारे जीवन उन्होंने पीड़ाएँ सहीं, घात-प्रतिघात सहे, किन्तु सत्य से कभी न विचलित हुए। इन पीड़ाओं ने ही उनके अन्तःकरण को भक्ति-सरोवर बना दिया था। महर्षि धौम्य आपने तो उनका सान्निध्य-संग पाया है। उन परमभागवत भीष्म की भक्तिगाथा हम सबको अवश्य सुनाएँ।’’ ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के वचनों का सभी ने अनुमोदन किया। गायत्री के महाभर्ग को धारण करने वाले विश्वामित्र और पुलह भी कह उठे, ‘‘अवश्य ऋषि धौम्य! उन महान भक्त की गाथा सुनाकर हम सब को तृप्ति दें।’’ ऋषि धौम्य ने यह सब सुनकर उन सभी की ओर देखा, फिर देवर्षि की तरफ निहारा। उनकी इस दृष्टि को देवर्षि ने अपना अहोभाग्य समझा और कहने लगे, ‘‘गंगापुत्र भीष्म तो सदा ही माता गंगा की भाँति पवित्र हैं। उनके जीवन की भक्तिलहरों से हम सभी अभिसिंचित होना चाहेंगे ऋषिवर!’’

सभी के आग्रह से महर्षि की भावनाएँ शब्द बन कर झरने लगीं। वे कहने लगे, ‘‘गंगापुत्र देवव्रत को उनकी सत्यनिष्ठा ने, उनकी अटल प्रतिज्ञा ने भीष्म बनाया। यूँ तो उनके सुदीर्घ जीवन के अनेको अविस्मरणीय प्रसंग हैं, जिन्हें महर्षि वेदव्यास ने ‘जय’ काव्य में कहा है परन्तु एक प्रसंग सबसे अनूठा है, जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपने इस भक्त के वश में हो गए थे। उन दिनों महाभारत का महासमर चल रहा था।’’ ऋषि धौम्य की वाणी अपने स्मृति रस में भीगने लगी। ‘‘दुर्योधन प्रायः ही पितामह को पाण्डवों के वध के लिए उकसाता रहता था। एक दिन उसने कहा-पितामह! आपने तो अपने गुरू भार्गव परशुराम को भी युद्घ में पराजित किया है। आपके सामने मनुष्य तो क्या स्वयं देवगण भी नहीं टिक सकते। तब फिर पाण्डवों की क्या मजाल? कहीं हस्तिनापुर के प्रति आपकी निष्ठा तो नहीं डिग रही। कुटिल शकुनि की चालों में आकर दुर्योधन ने भीष्म के मर्म पर चोट की।

भीष्म व्यथित हो उठे। उन्होंने पाँच बाण अपने तूणीर से अलग करते हुए प्रतिज्ञा की-कल के युद्घ में इन पाँच बाणों से पाण्डवों का वध होगा। यदि ऐसा न हो सका तो?- दुर्योधन की जिह्वा को काल ने कीलित करते हुए नया प्रश्न किया। दुर्योधन के प्रश्न का भीष्म ने उत्तर दिया- तो फिर स्वयं श्रीकृष्ण को शस्त्र उठाना पड़ेगा। दुर्योधन को वचन देने के उपरान्त भीष्म और भी व्यथित हो उठे। वह अपने शिविर में बैठे हुए श्रीकृष्ण को पुकारने लगे- हे जनार्दन! हे माधव!! अपने भक्त की लाज रखो गोविन्द, भक्त की पुकार भगवान ने सुनी। उन लीलापुरुषोत्तम ने अपनी लीला रची। इस प्रतिज्ञा की चर्चा सुनकर महारानी द्रोपदी व्यथित हो उठी। वह उन्हें लेकर भीष्म के शिविर में पहुँची। भीष्म आँख मूँदे श्रीकृष्ण का ध्यान कर रहे थे। द्रोपदी के प्रणाम करने पर उन्होंने आँख मूँदे ही उसे सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दे डाला। इस आशीर्वाद को सुनकर द्रोपदी बिलख उठी और बोली, यह कैसा आशीर्वाद? द्रोपदी की वाणी को सुनकर भीष्म चौंके, उन्होंने आँखें खोलीं और बोले, पुत्री! तुम्हें जो यहाँ तक लाए हैं, वे स्वयं कहाँ हैं? भक्त की विकल पुकार सुनकर योगेश्वर श्रीकृष्ण उनके सम्मुख आए और बोले-पितामह! आप सम्पूर्ण जीवन सांसारिक भोग विषयों से, उनके कुत्सित संग से दूर रहे हैं। दुर्योधन और शकुनि जैसे दुराचारी और कुटिल जनों के बीच भी आपने भक्ति की सच्ची साधना की है। विश्वास रखिए, मेरा मान भले ही भंग हो, मेरे भक्त का मान कभी भंग नहीं हो सकता।

अगले दिन प्रातः जब रणभेरियाँ बजीं, युद्घ का प्रारम्भ हुआ तब महाभक्त और परमशूरवीर भीष्म ने महासंग्राम किया। पाण्डव सेना के पाँव उखड़ने लगे। अर्जुन का रथ भी स्थिर न रह सका। भीष्म के सम्मुख अर्जुन की सारी धनुर्विद्या विफल होने लगी। ऐसे में स्वयं श्रीकृष्ण ने हुंकार भरी और अपनी प्रतिज्ञा भंग करते हुए वह हाथ में चक्र लेकर दौड़ पड़े। सेना में हाहाकार मच गया। भक्त भीष्म अपने भक्तवत्सल भगवान को भक्तिपूर्वक निहारने लगे-
वा धीतपट की कहरान।

कर धरि चक्र चरन की धावनि,नहि विसरति वह बान॥
रथ ते उतरि अवनि आतुर ह्वै, कच रज की लपटान।
मानों सिंह सैल तें निकस्यों, महामत्त गज जान॥
हे प्रभु तुम मेरो पन राख्यो, मेटि वेद की वान।

भीष्म के मन मन्दिर में भगवान की मूर्ति सदा के लिए बस गयी। अर्जुन के आग्रह पर भगवान तो अपने रथ पर वापस लौट गए, परन्तु भीष्म का मन पुनः वापस नहीं लौटा। अन्त क्षण में वे प्रभु का यही रूप निहारते रहे। शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म भगवान के इसी रूप का ध्यान करते रहे। जीवन में उन्हें अनगिनत और असहनीय पीड़ाएँ मिलीं पर इन पीड़ाओं से उनकी भक्ति निखरती गयी। भगवान की कृपा वर्षा उन पर और भी सघन होती गयी। अन्तिम क्षणों में भी पितामह भीष्म चक्रधारी के उसी स्वरूप का चिन्तन करते हुए उन्हीं के दिव्य स्वरूप में विलीन हो गए।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १४४

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