रविवार, 25 जुलाई 2021

👉 गैर हाज़िर कन्धे

विश्वास साहब अपने आपको भागयशाली मानते थे। कारण यह था कि उनके दोनो पुत्र आई.आई.टी. करने के बाद लगभग एक करोड़ रुपये का वेतन अमेरिका में प्राप्त कर रहे थे। विश्वास साहब जब सेवा निवृत्त हुए तो उनकी इच्छा हुई कि उनका एक पुत्र भारत लौट आए और उनके साथ ही रहे; परन्तु अमेरिका जाने के बाद कोई पुत्र भारत आने को तैयार नहीं हुआ, उल्टे उन्होंने विश्वास साहब को अमेरिका आकर बसने की सलाह दी। विश्वास साहब अपनी पत्नी भावना के साथ अमेरिका गये; परन्तु उनका मन वहाँ पर बिल्कुल नहीं लगा और वे भारत लौट आए।

दुर्भाग्य से विश्वास साहब की पत्नी को लकवा हो गया और पत्नी पूर्णत: पति की सेवा पर निर्भर हो गई। प्रात: नित्यकर्म से लेकर खिलाने–पिलाने, दवाई देने आदि का सम्पूर्ण कार्य विश्वास साहब के भरोसे पर था। पत्नी की जुबान भी लकवे के कारण चली गई थी। विश्वास साहब पूर्ण निष्ठा और स्नेह से पति धर्म का निर्वहन कर रहे थे।

एक रात्रि विश्वास साहब ने दवाई वगैरह देकर भावना को सुलाया और स्वयं भी पास लगे हुए पलंग पर सोने चले गए। रात्रि के लगभग दो बजे हार्ट अटैक से विश्वास साहब की मौत हो गई। पत्नी प्रात: 6 बजे जब जागी तो इन्तजार करने लगी कि पति आकर नित्य कर्म से निवृत्त होने मे उसकी मदद करेंगे। इन्तजार करते करते पत्नी को किसी अनिष्ट की आशंका हुई। चूँकि पत्नी स्वयं चलने में असमर्थ थी, उसने अपने आपको पलंग से नीचे गिराया और फिर घसीटते हुए अपने पति के पलंग के पास पहुँची।

उसने पति को हिलाया–डुलाया पर कोई हलचल नहीं हुई। पत्नी समझ गई कि विश्वास साहब नहीं रहे। पत्नी की जुबान लकवे के कारण चली गई थी; अत: किसी को आवाज देकर बुलाना भी पत्नी के वश में नहीं था। घर पर और कोई सदस्य भी नहीं था। फोन बाहर ड्राइंग रूम मे लगा हुआ था। पत्नी ने पड़ोसी को सूचना देने के लिए घसीटते हुए फोन की तरफ बढ़ना शुरू किया। लगभग चार घण्टे की मशक्कत के बाद वह फोन तक पहुँची और उसने फोन के तार को खींचकर उसे नीचे गिराया। पड़ोसी के नंबर जैसे तैसे लगाये।

पड़ौसी भला इंसान था, फोन पर कोई बोल नहीं रहा था, पर फोन आया था, अत: वह समझ गया कि मामला गंभीर है। उसने आस– पड़ोस के लोगों को सूचना देकर इकट्ठा किया, दरवाजा तोड़कर सभी लोग घर में घुसे। उन्होने देखा -विश्वास साहब पलंग पर मृत पड़े थे तथा पत्नी भावना टेलीफोन के पास मृत पड़ी थी। पहले विश्वास और फिर भावना की मौत हुई। जनाजा दोनों का साथ–साथ निकला। 

पूरा मोहल्ला कंधा दे रहा था परन्तु दो कंधे मौजूद नहीं थे जिसकी माँ–बाप को उम्मीद थी। शायद वे कंधे करोड़ो रुपये की कमाई के भार से पहले ही दबे हुए थे।

👉 भक्तिगाथा (भाग ४३)

माँ- ये एक अक्षर ही है भक्ति का परम मंत्र

परम भगवद्भक्त शुकदेव की वाणी ने सभी की चिंतन-चेतना को भावमय बना दिया। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र तो अपने भावों की गहनता में इतने लीन हुए कि उनकी आँखें छलक आयीं। तपोनिष्ठ, परम वीतराग, महान् कर्मयोगी ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की इस भावमयता को सभी ने निहारा। पुलह, पुलस्त्य, क्रतु, मरीचि आदि सभी महर्षियों को पता था कि मुनिवर विश्वामित्र यों ही इतने भावाकुल कभी नहीं होते। लगता है कि अतीत की कोई स्मृति आकर उनकी भावनाओं को भिगो गयी है। ब्रह्मर्षि सृष्टि के गुह्य रहस्यों के मर्मज्ञ हैं। वह अपने साधना काल में अनेकों विद्याओं के अन्वेषी रहे हैं। स्वभाव से ही तपस्वी हैं। उनके दीर्घ साधनाजीवन में कभी किसी ने उन्हें भावुक होते हुए नहीं देखा था, और आज अचानक उन तपोदीप्त ब्रह्मर्षि की आँखों में अश्रुबिन्दु...।
    
इस अनहोनी से सभी चकित तो थे, पर किसी का साहस नहीं हुआ कि कोई उनकी भावसमाधि भंग करे। काफी क्षणों तक यह स्थिति बनी रही। तभी विश्वामित्र की समाधिलीन चेतना को चेत हुआ और उनके मुख से ‘‘माँ! माँ!! माँ!!!!’’ शब्द उच्चारित हुआ। महर्षि के इस उच्चारण में गहरी भावाकुलता, विकल कर देने वाली विह्लता, परम कातरता थी। उन्होंने ‘‘माँ’’ शब्द को कुछ इस तरह पुकारा कि पर्वतराज हिमालय के उस दिव्य आँगन में बैठे ऋषियों, देवों, सिद्धों, गंधर्वों एवं विद्याधरों के समुदाय को रोमाँच हो आया। सभी के तन, मन व अंतःकरण रोमांचित हो उठे।
    
‘माँ!’ इस एकाक्षरी मंत्र की गूँज सभी के अंतस् की गहराइयों में गूँज उठी। सदा अडिग एवं अविचल कहे जाने वाले हिमालय के श्वेत शिखर भी पिघल उठे। हिमनदों की उत्तुंग लहरों में छलकते जलकणों में ‘माँ!’ की पुकार तरंगित हो उठी। हिम पक्षी भी विकल होकर ‘माँ!’ इस स्वर के साथ कलरव करने लगे। भाव चेतना की व्यापकता में कुछ ऐसी मेघमन्द्र तरंगें उठीं कि बरबस ही एक नयी अनुभूति ने सभी को भिगो दिया। जड़-चेतन सभी को बरबस यह अनुभव हो आया कि आदिशक्ति, मूल प्रकृति, सृष्टि, सृजन की मूल ऊर्जा के सबसे दुलारे शिशु ने आज बहुत दिनों के बाद अपनी प्यारी संतानवत्सल माँ को पुकारा हो।
    
अपने प्रिय पुत्र की पुकार को माँ भला अनसुना कैसे करतीं। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के अंतःकरण में और श्वेत निरभ्र आकाश में एक साथ हंसवाहिनी, वेदमाता की मनोरम छवि प्रकट हो गयी। वेदमाता गायत्री का रूप परम करुणामय था। कुछ ऐसा कि बस सृष्टि की समस्त करुणा सघनता में साकार हो उठी हो। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने बस भीगे मन और नयन के साथ अपने हाथ जोड़ लिये। ‘‘तुम्हारा कल्याण हो पुत्र!’’ आकाश से बरबस ये शब्द झरे और मूल प्रकृति, वेदमाता पुनः प्रकृतिलीन हो गयी। इस बीच इतना अवश्य हुआ कि ब्रह्मर्षि विश्वामित्र प्रकृतिस्थ हो चुके थे।
    
उन्हें इस तरह प्रकृतिस्थ देखकर देवर्षि नारद ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की-‘‘हे ब्रह्मर्षि! लगता है कि अतीत की किसी स्मृति ने बरबस आपकी भावनाओं को भिगो दिया था।’’ उत्तर में अपने अधरों पर हल्का सा स्मित लाते हुए विश्वामित्र ने कहा- ‘‘आपका कथन सत्य है, देवर्षि! सदा स्मृतियाँ ही भावों को भिगोती हैं, चेतना को आलोड़ित करती हैं।’’ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के इस कथन पर मुनि शुकदेव ने कहा-‘‘यदि आप उचित समझें तो हमें, हम सबको भी अपनी उस पवित्र स्मृति का सहभागी बनायें।’’ शुकदेव के इस कथन का सभी ने स्वगत अनुमोदन किया। हालाँकि ब्रह्मर्षि वशिष्ठ मुखर होकर बोले-‘‘ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की प्रत्येक स्मृति पवित्र है और उनकी किसी भी स्मृति का स्मरण पवित्रता का अहसास देता है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ८२

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४३)

सिद्ध न होने पर भी

सृष्टि क्रम की सुव्यवस्था, विकासक्रम और जीवन चेतना की विचित्र अद्भुत विविधता फिर भी उनमें सुनियोजित साम्य—ईश्वरीय अस्तित्व का प्रबल प्रमाण है। इसके विरुद्ध यह कहा जाता है कि सृष्टि का कोई भी घटक, जीव-प्राणी पदार्थ से भिन्न कुछ नहीं है। कहा जाता है कि समस्त विश्व कुछ घटनाओं के जोड़ के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

उसके उत्तर में ख्याति प्राप्त विज्ञान वेत्ता टेण्डल ने अपने ग्रन्थ ‘‘फ्रेगमेण्टस् ऑफ साइन्स’’ में लिखा है हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन और कुछ ऐसे ही जड़ ज्ञान शून्य पदार्थों के परमाणुओं से जीवन चेतना का उदय हुआ यह असंगत है। क्योंकि जीवन चेतना का स्पन्दन हर जगह इतना-सुव्यवस्थित और सुनियोजित है कि उसे संयोग मात्र नहीं कहा जा सकता। चौपड़ के पांसे खड़खड़ाने से होमर के काव्य की प्रतिभा एवं गेंद की फड़फड़ाहट से गणित के डिफरेंशियल सिद्धान्त का उद्भव कैसे हो सकता है?

‘‘पुगमेण्ट्स ऑफ साइन्स’’ के लेखक ने लिखा है कि यान्त्रिक प्रक्रिया के माध्यम से देखना, सोचना, स्वप्न, सम्वेदना और आदर्शवादी भावनाओं के उभार की कोई तुक नहीं बैठती। शरीर यात्रा की आवश्यकता पूरी करने के अतिरिक्त मनुष्य जो कुछ सोचता, चाहता और करता है तथा संसार में जो कुछ भी ज्ञात-विज्ञात है वह इतना अद्भुत है कि जड़ परमाणुओं के संयोग से उनके निर्माण की कोई संगति नहीं बिठाई जा सकती।

रहस्यमय यह संसार और इसके जड़ पदार्थों का विश्लेषण ही अभी प्रयोगशालाओं में सम्भव नहीं हुआ है तो चेतना, ईश्वरीय सत्ता का विश्लेषण प्रमाणीकरण लैबोरेटरी के यन्त्रों से किस प्रकार हो सकेगा? फिर भी यह कहने का अथवा इस आग्रह पर अड़े रहने का कोई कारण नहीं है कि विज्ञान से सिद्ध न होने के कारण ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। परमाणु का जब तक पता नहीं चला था, इसका अर्थ यह नहीं है कि उससे पहले परमाणु था ही नहीं। परमाणु उससे पहले भी था और आज तर्कों द्वारा उसे असत्य सिद्ध कर दिया जाय तो भी उसका अस्तित्व मिट नहीं जाता। स्वीकार करने या न करने, ज्ञात होने अथवा अज्ञात रहने से किसी का होना न होना कोई मतलब नहीं रखता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ६८
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

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