सोमवार, 24 जुलाई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 24 July 2023

यों युग शिल्पियों की संख्या एक लाख के लगभग है, पर उनमें एक ही कमी है, संकल्प में सुनिश्चितता का-दृढ़ता का-अनवरतता का अभाव। अभी उत्साह उभरा तो उछलकर आकाश चूमने लगे और दूसरे दिन ठंडे हुए तो झाग की तरह बैठ गये। इस अस्थिरता में लक्ष्यवेध नहीं हो सकता। उसके लिए अर्जुन जैसी तन्मयता होनी चाहिए जो मछली की आंख भर ही देखें। इसके लिए एकलव्य जैसी निष्ठा होनी चाहिए, जो मिट्टी के पुतले को निष्णात अध्यापक बना ले।

परिजनो! अपनी आज की मनोदशा पर हमें विचार करना ही है। अपनी अब तक की गतिविधियों पर हमें शान्त चित्त से ध्यान देना है। क्या हमारे कदम सही दिशा में चल रहे हैं? यदि नहीं, तो क्या यह उचित न होगा कि हम ठहरें, रुकें, सोचें और यदि रास्ता भूल गये हैं, तो पीछे लौटकर सही रास्ता पर चलें। इस विचार मन्थन की वेला में आज हमें यही करना चाहिए—यही सामयिक चेतावनी और विवेकपूर्ण दूरदर्शिता का तकाजा है।

उपदेश तो बहुत पा चुके हो, किन्तु उसके अनुसार क्या तुम कार्य करते हो? अपने चरित्र का संशोधन करने में अभी भी क्या किसी अन्य की राह देख रहे हो? तुम तो अब श्रेष्ठ कार्य करने की योग्यता प्राप्त करो। विवेक बुद्धि की किसी प्रकार अब उपेक्षा न करो। अपने चरित्र का संशोधन करने में लापरवाही करोगे या प्रयत्न में ढिलाई करोगे तो उन्नति कैसे हो सकती है? अपने शुभ अवसरों को न खोकर जीवन रणक्षेत्र में प्रबल पराक्रम से निरन्तर अग्रसर होकर विजयी प्राप्त करने के लिए सदैव तत्पर रहना सीखो।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 शेखी मत बघारो

अभिमान और तुच्छता, आत्मप्रशंसा और शेखी के रूप में प्रकट होते हैं, जिससे आप का सामाजिक जीवन सबके लिए असह्य और अनाकर्षक बन जाता है। जनता आप की प्रशंसा कर सकती है, किंतु वह उसको के मुख से सुनना नहीं चाहती। यदि आप अपनी प्रशंसा न्याय और सत्य के अनुसार भी करते हों, तो भी जनता विरोधी हो जाती है और आप के दोषों को ही देखने लगती है। अपनी सफलता को ऐतिहासिक स्त्री- पुरुषों के कार्यों से तुलना करके नम्रता सीखो।   

ऊँट तभी तक अपने को ऊँचा समझता है, जब तक पहाड़ के नीचे नहीं आता। अपने से बड़े प्रसिद्ध पुरुषों से मिलते- जुलते रहने का उद्योग करो। इस प्रकार की मित्रता आप को अत्यंत प्रभावपूर्ण नम्रता की शिक्षा देगी। इस बात को स्मरण रखो कि अभिमान से आप बहुत कुछ खो देते हो। अभिमानी की बहुत से मनुष्य न प्रशंसा करते, न सहायता करते और न प्रेम करते हैं। अभिमान आप के व्यक्तिगत विकास को भी रोकता है।

यदि आप अपने को सबसे बड़ा समझने लगोगे तो आप अधिक बड़ा बनने का यत्न करना छोड़ दोगे। यदि आपने कोई कार्य ख्याति तथा विज्ञापन योग्य किया है, तो उसके विषय में स्वयं कुछ मत कहो। आप को पता लगेगा कि उसके विषय में दूसरे भी किसी न किसी प्रकार कुछ अवश्य जानते हैं। आप के गुण अधिक समय तक छिपे नहीं रहेंगे। आप को स्वयं उनकी घोषणा करने  की आवश्यकता नहीं है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- अग. 1945 पृष्ठ 20

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👉 जो दीपक की तरह जलने को तैयार हों (भाग 1)

महाप्रभु ईसा अपने शिष्यों से कहते थे- “तुम मुझे प्रभु कहते हो- मुझे प्यार करते हो, मुझे श्रेष्ठ मानते हो और मेरे लिए सब कुछ समर्पण करना चाहते हो। सो ठीक है। परमार्थ बुद्धि से जो कुछ भी किया जाता है, जिस किसी के लिए भी किया जाता है वह लौटकर उस करने वाले के पास ही पहुँचता है। तुम्हारी यह आकाँक्षा वस्तुतः अपने आपको प्यार करने, श्रेष्ठ मानने और आत्मा के सामने आत्म समर्पण करने के रूप में ही विकसित होगी। दर्पण में सुन्दर छवि देखने की प्रसन्नता- वस्तुतः अपनी ही सुसज्जा की अभिव्यक्ति है।

दूसरों के सामने अपनी श्रेष्ठता प्रकट करना उसी के लिए सम्भव है जो भीतर से श्रेष्ठ है। प्रभु की राह पर बढ़ाया गया हर कदम अपनी आत्मिक प्रगति के लिए किया गया प्रयास ही है। जो कुछ औरों के लिए किया जाता है वस्तुतः वह अपने लिए किया हुआ कर्म ही है। दूसरों के साथ अन्याय करना अपने साथ ही अन्याय करना है। हम अपने अतिरिक्त और कोई को नहीं ठग सकते। दूसरों के प्रति असज्जनता बरतकर अपने आपके साथ ही दुष्ट दुर्व्यवहार किया जाता है।”

“दूसरों को प्रसन्न करना अपने आपको प्रसन्न करने का ही क्रिया-कलाप है। गेंद को उछालना अपनी माँस-पेशियों को बलिष्ठ बनाने के अतिरिक्त और क्या है? गेंद को उछालकर हम उस पर कोई एहसान नहीं करते। इसके बिना उसका कुछ हर्ज नहीं होगा। यदि खेलना बन्द कर दिया जाये तो उन क्रीड़ा उपकरणों की क्या क्षति हो सकती है? अपने को ही बलिष्ठता के आनन्द से वंचित रहना पड़ेगा।”

“ईश्वर रूठा हुआ नहीं है कि उसे मनाने की मनुहार करनी पड़े। रूठा तो अपना स्वभाव और कर्म है। मनाना उसी को चाहिए। अपने आपसे ही प्रार्थना करें कि कुचाल छोड़े। मन को मना लिया- आत्मा को उठा लिया तो समझना चाहिए ईश्वर की प्रार्थना सफल हो गई और उसका अनुग्रह उपलब्ध हो गया।”

.....शेष कल
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1986 फरवरी पृष्ठ 2

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कृत्रिम पैरों से एवरेस्ट पर फतह, अरुणिमा के हौसले को सलाम...

भारत सरकार ने ६६ वें गणतंत्र दिवस पर जिन लोगों के नामों की घोषणा पद्म पुरस्कारों के लिये की उनमें एक नाम अरुणिमा सिन्हा का भी है। उत्तरप्रदेश की अरुणिमा सिन्हा को "पद्मश्री" के लिये चुना गया। "पद्मश्री" भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाला चौथा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है। भारत रत्न, पद्मविभूषण और पद्मभूषण के बाद पद्म श्री ही सबसे बड़ा सम्मान है। किसी भी क्षेत्र में असाधारण और विशिष्ट सेवा के लिए पद्म सम्मान दिए जाते हैं। खेल-कूद के क्षेत्र में असाधारण और विशिष्ट सेवा के लिए अरुणिमा सिन्हा को "पद्म श्री" देने का ऐलान किया गया। अरुणिमा सिन्हा दुनिया के सबसे ऊँचे पर्वत शिखर एवरेस्ट पर विजय प्राप्त करने वाली दुनिया की पहली विकलांग महिला हैं। २१ मई, २०१३ की सुबह १०. ५५ मिनट पर अरुणिमा ने माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराकर २६ साल की उम्र में विश्व की पहली विकलांग पर्वतारोही बनने का गौरव हासिल किया। खेलकूद के क्षेत्र में जिस तरह अरुणिमा की कामयाबी असाधारण है उसी तरह उनकी ज़िंदगी भी असाधारण ही है।


अरूणिमा को कुछ बदमाशों ने चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया था। अरुणिमा ने इन बदमाशों को अपनी चेन छीनने नहीं दिया था जिससे नाराज़ बदमाशों से उन्हें चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया। इस हादसे में बुरी तरह ज़ख़्मी अरुणिमा की जान तो बच गयी थी लेकिन उन्हें ज़िंदा रखने ले लिए डाक्टरों को उनकी बायीं टांग काटनी पड़ी। अपना एक पैर गँवा देने के बावजूद राष्ट्रीय स्टार पर वॉलीबाल खेलने वाली अरुणिमा ने हार नहीं मानी और हमेशा अपना जोश बनाये रखा। 

भारतीय क्रिकेटर युवराज सिंह और देश के सबसे युवा पर्वतारोही अर्जुन वाजपेयी के बारे में पढ़कर अरुणिमा ने उनसे प्रेरणा ली। फिर माउंट एवरेस्ट पर फतह पाने वाली पहली भारतीय महिला बछेंद्री पाल से मदद और प्रशिक्षण लेकर एवरेस्ट पर विजय हासिल की।


अरुणिमा ने एवरेस्ट पर फतह करने से पहले ज़िंदगी में कई उतार चढ़ाव देखे। कई मुसीबतों का सामना किया । कई बार अपमान सहा । बदमाशों और शरारती तत्वों के गंदे और भद्दे आरोप सहे । मौत से भी संघर्ष किया। कई विपरीत परिस्थितियों का सामना किया । लेकिन, कभी हार नहीं मानी । कमज़ोरी को भी अपनी ताकत बनाया। मजबूत इच्छा-शक्ति, मेहनत, संघर्ष और हार न मानने वाले ज़ज़्बे से असाधारण कामयाबी हासिल की। दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चोटी पर पहुँच कर अरुणिमा ने साबित किया कि हौसले बुलंद हो तो ऊंचाई मायने नहीं रखती, इंसान अपने दृढ़ संकल्प, तेज़ बुद्धि और मेहनत से बड़ी से बड़ी कामयाबी हासिल कर सकता है। अरुणिमा सिन्हा अपने संघर्ष और कामयाबी की वजह से दुनिया-भर में कई लोगों के लिए प्रेरणा बन गयी हैं। किसी महिला या युवती की ज़िंदगी की तरह साधारण नहीं अरुणिमा की ज़िंदगी की कई घटनाएं।

बहादुरी की अद्भुत मिसाल पेश करने वाली अरुणिमा का परिवार मूलतः बिहार से है। उनके पिता भारतीय सेना में थे। स्वाभाविक तौर पर उनके तबादले होते रहते थे। इन्हीं तबादलों के सिलसिले में उन्हें उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर आना पड़ा था। लेकिन, सुल्तानपुर में अरुणिमा के परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। अरुणिमा के पिता का निधन हो गया। हँसते-खेलते परिवार में मातम छा गया।
 
 पिता की मृत्यु के समय अरुणिमा की उम्र महज़ साल थी। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और देखभाल की सारी ज़िम्मदेारी माँ पर आ पड़ी। माँ ने मुश्किलों से भरे इस दौर में हिम्मत नहीं हारी और मजबूत फैसले लिए। माँ अपने तीनों बच्चों- अरुणिमा, उसकी बड़ी बहन लक्ष्मी और छोटे भाई को लेकर सुल्तानपुर से अम्बेडकरनगर आ गयीं। अम्बेडकरनगर में माँ को स्वास्थ विभाग में नौकरी मिल गयी, जिसकी वजह से बच्चों का पालन-पोषण ठीक तरह से होने लगा। बहन और भाई के साथ अरुणिमा भी स्कूल जाने लगी। स्कूल में अरुणिमा का मन पढ़ाई में कम और खेल-कूद में ज्यादा लगने लगा था। दिनब दिन खेल-कूद में उसकी दिलचस्पी बढ़ती गयी। वो चैंपियन बनने का सपना देखने लगी।
   जान-पहचान के लोगों ने अरुणिमा के खेल-कूद पर आपत्ति जताई, लेकिन माँ और बड़ी बहन ने अरुणिमा को अपने मन की इच्छा के मुताबिक काम करने दिया। अरुणिमा को फुटबॉल, वॉलीबॉल और हॉकी खेलने में ज्यादा दिलचस्पी थी। जब कभी मौका मिलता वो मैदान चली जाती और खूब खेलती। अरुणिमा का मैदान में खेलना आस-पड़ोस के कुछ लड़कों को खूब अखरता। वो अरुणिमा पर तरह-तरह की टिपाणियां करते। अरुणिमा को छेड़ने की कोशिश करते। लेकिन, अरुणिमा शुरू से ही तेज़ थी और माँ के लालन-पालन की वजह से विद्रोही स्वभाव भी उसमें था। वो लड़कों को अपनी मन-मानी करने नहीं देती ।
     अरुणिमा ने इस दौरान कई प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया और अपनी प्रतिभा से कईयों को प्रभावित किया। उसने खूब वॉलीबॉल-फुटबॉल खेला, कई पुरस्कार भी जीते। राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भी खेलना का मौका मिला।  इसी बीच अरुणिमा की बड़ी बहन की शादी हो गई। शादी के बाद भी बड़ी बहन ने अरुणिमा का काफी ख्याल रखा। बड़ी बहन की मदद और प्रोत्साहन की वजह से ही अरुणिमा ने खेल-कूद के साथ साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। उसके कानून की पढ़ाई की और एलएलबी की परीक्षा भी पास कर ली। घर-परिवार चलाने में माँ की मदद करने के मकसद ने अरुणिमा ने अब नौकरी करने की सोची। नौकरी के लिए उसने कई जगह अर्ज़ियाँ दाखिल कीं।
     इसी दौरान उसे केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल यानी सीआईएसएफ के दफ्तर से बुलावा आया। अफसरों से मिलने वो नॉएडा के लिए रवाना हो गयी। अरुणिमा पद्मावत एक्सप्रेस पर सवार हुई और एक जनरल डिब्बे में खिड़की के किनारे एक सीट पर बैठ गयी। कुछ ही दर बाद कुछ बदमाश लड़के अरुणिमा के पास आये और इनमें से एक ने अरुणिमा के गले में मौजूद चेन पर झपट्टा मारा। अरुणिमा को गुस्सा आ आया और वो लड़के पर झपट पड़ी। दूसरे बदमाश साथी उस लड़के की मदद के लिए आगे आये और अरुणिमा को दबोच लिया। लेकिन, अरुणिमा ने हार नहीं मानी और लड़कों से झूझती रही। लेकिन , उन बदमाश लड़कों ने अरुणिमा को हावी होने नहीं दिया। इतने में ही कुछ बदमाशों ने अरुणिमा को इतनी ज़ोर से लात मारी की कि वो चलती ट्रेन से बाहर गिर गयी। अरुणिमा का एक पाँव ट्रेन की चपेट में आ गया। और वो वहीं बेहोश हो गयी। रात-भर अरुणिमा ट्रेन की पटरियों के पास ही पड़ी रही। सुबह जब कुछ गाँव वालों ने उसे इस हालत में देखा तो वो उसे अस्पताल ले गए। जान बचाने के लिए डाक्टरों को अस्पताल में अरुणिमा की बायीं टांग काटनी पड़ी।
जैसे ही इस घटना की जानकारी मीडियावालों को हुई, ट्रेन की ये घटना अखबारों और न्यूज़ चैनलों की सुर्ख़ियों में आ गयी। मीडिया और महिला संगठनों के दबाव में सरकार को बेहतर इलाज के लिए अरुणिमा को लखनऊ के ट्रॉमा सेंटर में भर्ती कराना पड़ा
          अस्पताल में इलाज के दौरान समय काटने के लिए अरुणिमा ने अखबारें पढ़ना शुरू किया । एक दिन जब वह अखबार पढ़ रही थी।उसकी नज़र एक खबर पर गयी। खबर थी कि नोएडा के रहने वाले 17 वर्षीय अर्जुन वाजपेयी ने देश के सबसे युवा पर्वतारोही बनने का कीर्तिमान हासिल किया है। इस खबर ने अरुणिमा के मन में एक नए विचार को जन्म दिया। खबर ने उसके मन में एक नया जोश भी भरा था। अरुणिमा के मन में विचार आया कि जब 17 साल का युवक माउंट एवरेस्ट पर विजय पा सकता है तो वह क्यों नहीं?
    उसे एक पल के लिए लगा कि उसकी विकलांगता अड़चन बन सकती हैं। लेकिन उसने ठान लिया कि वो किसी भी सूरतोहाल माउंट एवरेस्ट पर चढ़कर की रहेगी। उसने अखबारों में क्रिकेटर युवराज सिंह के कैंसर से संघर्ष के बाद फिर मैदान में फिर से उतरने की खबर भी पढ़ी। उसका इरादा अब बुलंद हो गया।
      लेकिन, कृतिम टांग लगने के बावजूद कुछ दिनों तक अरुणिमा की मुश्किलें जारी रहीं। विकलांगता का प्रमाण पत्र होने बावजूद लोग अरुणिमा पर शक करते। एक बार तो रेलवे सुरक्षा बल के एक जवान ने अरुणिमा की कृतिम टांग खुलवाकर देखा कि वो विकलांग है या नहीं। ऐसे ही कई जगह अरुणिमा को अपमान सहने पड़े।
वैसे तो ट्रेन वाली घटना के बाद रेल मंत्री ममता बनर्जी ने नौकरी देने की घोषणा की थी, लेकिन रेल अधिकारियों ने इस घोषणा पर कोई कार्यवाही नहीं की और हर बार अरुणिमा को अपने दफ्तरों से निराश ही लौटाया । अरुणिमा कई कोशिशों के बावजूद रेल मंत्री से भी नहीं मिल पाई , लेकिन अरुणिमा ने हौसले बुलंद रखे और जो अस्पताल मैं फैसला लिया था उसे पूरा करने के लिए काम चालू कर दिया।
    अरुणिमा ने किसी तरह बछेंद्री पाल से संपर्क किया। बछेंद्री पाल माउंट एवरेस्ट पर फतह पाने वाली पहली भारतीय महिला थीं। बछेंद्री पाल से मिलने अरुणिमा जमशेदपुर गयीं। बछेंद्री पाल ने अरुणिमा को निराश नहीं किया। अरुणिमा को हर मुमकिन मदद दी और हमेशा प्रोत्साहित किया।
    अरुणिमा ने उत्तराखंड स्थित नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनरिंग (एनआइएम) से पर्वतारोहण का २८ दिन का प्रशिक्षण लिया।उसके बाद इंडियन माउंटेनियरिंग फाउंडेशन यानी आइएमएफ ने उसे हिमालय पर चढ़ने की इजाजत दे दी। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद ३१ मार्च, २०१२ को अरुणिमा का मिशन एवरेस्ट शुरु हुआ। अरुणिमा के एवरेस्ट अभियान को टाटा स्टील एडवेंचर फाउंडेशन ने प्रायोजित किया । फाउंडेशन ने अभियान के आयोजन और मार्गदर्शन के लिए २०१२ में एशियन ट्रेकिंग कंपनी से संपर्क किया था।
    एशियन ट्रेकिंग कंपनी ने २०१२ के वसंत में अरुणिमा को नेपाल की आइलैंड चोटी पर प्रशिक्षण दिया। ५२ दिनों के पर्वतारोहण के बाद २१ मई, २०१३ की सुबह १०. ५५ मिनट पर अरुणिमा ने माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराया और २६ साल की उम्र में विश्व की पहली विकलांग पर्वतारोही बनीं।
      कृत्रिम पैर के सहारे माउंट एवरेस्ट पर पहुँचने वाली अरुणिमा सिन्हा यहीं नहीं रुकना चाहती हैं। वो और भी बड़ी कामयाबियां हासिल करने का इरादा रखती हैं। उनकी इच्छा ये भी है कि वे शारीरिक रूप से विकलांग लोगों को कुछ इस तरह की मदद करें कि वे भी आसाधारण कामयाबियां हासिल करें और समाज में सम्मान से जियें।

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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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