मन मिटे तो मिले चित्तवृत्ति योग का सत्य
योग की इस सच्चाई को बताने के लिए गुरुदेव यदा-कदा एक कथा सुनाया करते थे। वह कहते थे कि वाराणसी में रहने वाले महान् सन्त तैलंग स्वामी के पास एक किसी बड़ी रियासत के राजा गए और उन राजा ने तैलंग स्वामी से कहा, महाराज, मेरा मन बहुत बेचैन है, बहुत अशान्त-परेशान है। आप महान् सन्त हैं, मुझे बताएँ कि मैं क्या करूँ, जिससे कि मेरा मन शान्त हो जाय।
तैलंग स्वामी वैसे तो बड़े कोमल स्वभाव के थे, पर कभी-कभी उनका रुख बड़ा अक्खड़ हो जाता। उस दिन भी उन्होंने बड़े अक्खड़पने से कहा, कुछ भी मत करो। पहले अपना मन मेरे पास लाओ। उस राजा को कुछ भी समझ में नहीं आया। उसने कहा, महाराज आप क्या कह रहे हैं? मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। तैलंग स्वामी ने उसकी बातों की अनसुनी करके उससे कहा, ऐसा करो, सुबह चार बजे मेरे पास यहाँ कोई नहीं होता, तब आना और अकेले आना। और ध्यान रखना, अपना मन भी अपने साथ लेते आना, भूलना मत।
वह राजा सारी रात सो नहीं पाया। कई बार उसने सोचा कि वह उनके पास नहीं जाएगा। बार-बार वह अपने आप से कहता- इन स्वामी जी को लोग बेकार इतना बड़ा ज्ञानी मानते हैं, यह तो बहकी-बहकी बातें करते हैं। आखिर क्या मतलब है उनका यह कहने से भूलना नहीं, अपना मन भी अपने साथ लेकर आ जाना।
उस राजा को उस रोज ऊहापोह भारी रही। परन्तु चाहकर भी वह उस भेंट को रद्द न कर सके। तैलंग स्वामी थे ही इतने मोहक एवं चुम्बकीय। राजा को रात भर यही लगता रहा कि कोई अद्भुत चुम्बक उन्हें अपनी ओर खींच रहा है। चार बजने से कुछ पहले ही वह बिस्तर से उठ बैठा और कहने लगा, मैं उनके पास जाऊँगा जरूर। वे थोड़ी सी बहकी हुई बातें करते हैं, तो क्या हुआ, पर उनकी आँखें कहती हैं कि उनके पास कुछ अवश्य है।
ऐसे ही सोच-विचार करते हुए वह तैलंग स्वामी के पास पहुँच गया। पहुँचते ही उन्होंने कहा, आ गए तुम, कहाँ है तुम्हारा मन? राजा बोला, आप भी कैसी बातें करते हैं स्वामी जी! मेरा मन भला और कहाँ होगा, वह तो मुझमें ही है।
तैलंग स्वामी बोले, अच्छा तो पहले तो इस बात का निर्णय हो गया कि तुम्हारा मन तुममे ही है। तो अब दूसरी बात मेरी कही हुई करो, अब आँखें बन्द करके खोजो जरा कि मन कहाँ है? तुम उसे ढूँढ लो कि वह कहाँ है, तो फिर उसी क्षण मुझे बता देना। मैं उसे शान्त कर दूँगा।
उस राजा ने तैलंग स्वामी का कहा मानकर आँखें बन्द कर ली और कोशिश करता गया देखने की और देखने की। जितना ही वह भीतर झाँकता गया, उतना ही उसे होश आता गया कि वहाँ कोई मन नहीं है, बस एक क्रिया मात्र है- सोचने की क्रिया, आशाओं, अभिलाषाओं, कामनाओं, कल्पनाओं की क्रिया। उसे समझ में आ गया कि मन कोई ऐसी चीज नहीं, जिसकी ओर ठीक से इशारा किया जा सके। लेकिन जिस क्षण उसने जाना कि मन कोई वस्तु नहीं, उसी क्षण उसे अपनी खोज का बेतुकापन भी खुलकर प्रकट हो गया। बात साफ हो गयी कि जब मन कुछ है ही नहीं, तो फिर इसके बारे में कुछ किया ही नहीं जा सकता। यदि यह केवल एक क्रिया है, तो बस उस क्रिया को क्रियान्वित न करो। यदि वह गति की भाँति चाल है, तो मत चलो।
यही सोचकर राजा ने अपनी आँखें खोल दी। तैलंग स्वामी मुस्कराने लगे और बोले—आ गयी बात समझ में! अब आगे से जब भी तुम महसूस करो कि तुम अशान्त हो, बस जरा भीतर झाँक लेना। यह झाँकना, यह अवलोकन ही मन की गति को थाम देता है। यदि तुम पूरी उत्कटता से झाँकों, तो तुम्हारी सारी ऊर्जा एक दृष्टि बन जाती है। सामान्य क्रम में वही ऊर्जा गति और सोच-विचार बनी रहती है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
योग की इस सच्चाई को बताने के लिए गुरुदेव यदा-कदा एक कथा सुनाया करते थे। वह कहते थे कि वाराणसी में रहने वाले महान् सन्त तैलंग स्वामी के पास एक किसी बड़ी रियासत के राजा गए और उन राजा ने तैलंग स्वामी से कहा, महाराज, मेरा मन बहुत बेचैन है, बहुत अशान्त-परेशान है। आप महान् सन्त हैं, मुझे बताएँ कि मैं क्या करूँ, जिससे कि मेरा मन शान्त हो जाय।
तैलंग स्वामी वैसे तो बड़े कोमल स्वभाव के थे, पर कभी-कभी उनका रुख बड़ा अक्खड़ हो जाता। उस दिन भी उन्होंने बड़े अक्खड़पने से कहा, कुछ भी मत करो। पहले अपना मन मेरे पास लाओ। उस राजा को कुछ भी समझ में नहीं आया। उसने कहा, महाराज आप क्या कह रहे हैं? मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। तैलंग स्वामी ने उसकी बातों की अनसुनी करके उससे कहा, ऐसा करो, सुबह चार बजे मेरे पास यहाँ कोई नहीं होता, तब आना और अकेले आना। और ध्यान रखना, अपना मन भी अपने साथ लेते आना, भूलना मत।
वह राजा सारी रात सो नहीं पाया। कई बार उसने सोचा कि वह उनके पास नहीं जाएगा। बार-बार वह अपने आप से कहता- इन स्वामी जी को लोग बेकार इतना बड़ा ज्ञानी मानते हैं, यह तो बहकी-बहकी बातें करते हैं। आखिर क्या मतलब है उनका यह कहने से भूलना नहीं, अपना मन भी अपने साथ लेकर आ जाना।
उस राजा को उस रोज ऊहापोह भारी रही। परन्तु चाहकर भी वह उस भेंट को रद्द न कर सके। तैलंग स्वामी थे ही इतने मोहक एवं चुम्बकीय। राजा को रात भर यही लगता रहा कि कोई अद्भुत चुम्बक उन्हें अपनी ओर खींच रहा है। चार बजने से कुछ पहले ही वह बिस्तर से उठ बैठा और कहने लगा, मैं उनके पास जाऊँगा जरूर। वे थोड़ी सी बहकी हुई बातें करते हैं, तो क्या हुआ, पर उनकी आँखें कहती हैं कि उनके पास कुछ अवश्य है।
ऐसे ही सोच-विचार करते हुए वह तैलंग स्वामी के पास पहुँच गया। पहुँचते ही उन्होंने कहा, आ गए तुम, कहाँ है तुम्हारा मन? राजा बोला, आप भी कैसी बातें करते हैं स्वामी जी! मेरा मन भला और कहाँ होगा, वह तो मुझमें ही है।
तैलंग स्वामी बोले, अच्छा तो पहले तो इस बात का निर्णय हो गया कि तुम्हारा मन तुममे ही है। तो अब दूसरी बात मेरी कही हुई करो, अब आँखें बन्द करके खोजो जरा कि मन कहाँ है? तुम उसे ढूँढ लो कि वह कहाँ है, तो फिर उसी क्षण मुझे बता देना। मैं उसे शान्त कर दूँगा।
उस राजा ने तैलंग स्वामी का कहा मानकर आँखें बन्द कर ली और कोशिश करता गया देखने की और देखने की। जितना ही वह भीतर झाँकता गया, उतना ही उसे होश आता गया कि वहाँ कोई मन नहीं है, बस एक क्रिया मात्र है- सोचने की क्रिया, आशाओं, अभिलाषाओं, कामनाओं, कल्पनाओं की क्रिया। उसे समझ में आ गया कि मन कोई ऐसी चीज नहीं, जिसकी ओर ठीक से इशारा किया जा सके। लेकिन जिस क्षण उसने जाना कि मन कोई वस्तु नहीं, उसी क्षण उसे अपनी खोज का बेतुकापन भी खुलकर प्रकट हो गया। बात साफ हो गयी कि जब मन कुछ है ही नहीं, तो फिर इसके बारे में कुछ किया ही नहीं जा सकता। यदि यह केवल एक क्रिया है, तो बस उस क्रिया को क्रियान्वित न करो। यदि वह गति की भाँति चाल है, तो मत चलो।
यही सोचकर राजा ने अपनी आँखें खोल दी। तैलंग स्वामी मुस्कराने लगे और बोले—आ गयी बात समझ में! अब आगे से जब भी तुम महसूस करो कि तुम अशान्त हो, बस जरा भीतर झाँक लेना। यह झाँकना, यह अवलोकन ही मन की गति को थाम देता है। यदि तुम पूरी उत्कटता से झाँकों, तो तुम्हारी सारी ऊर्जा एक दृष्टि बन जाती है। सामान्य क्रम में वही ऊर्जा गति और सोच-विचार बनी रहती है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या