रविवार, 1 मई 2016

शिष्य संजीवनी (भाग 40) :- एक उलटबाँसी काटने के बाद बोने की तैयारी

अब तुम वह हो जिसने आत्मा को विकसित अवस्था में देख लिया है और पहचान लिया है। अब तुमने नीरवता के नाद को सुन लिया है। यह वह क्षण है जिसमें तुम उस ज्ञान मन्दिर में जा सकते हो, जो परम प्रज्ञा का मंदिर है और जो कुछ तुम्हारे लिए वहाँ लिखा है, उसे पढ़ो। नीरवता की वाणी सुनने का अर्थ है, यह समझ जाना कि एक मात्र पथ- निर्देश अपने भीतर से ही प्राप्त होता है। प्रज्ञा के मन्दिर में जाने का अर्थ है, उस अवस्था में प्रविष्ट होना, जहाँ ज्ञान प्राप्ति सम्भव होती है। तब तुम्हारे लिए वहाँ बहुत से शब्द लिखे होंगे और वे ज्वलन्त अक्षरों में लिखे होंगे। ताकि तुम उन्हें सरलतापूर्वक पढ़ सको। ध्यान रहे शिष्य के तैयार होने भर की देर है, श्री गुरुदेव तो पहले से ही तैयार हैं।’

अब तक कहे गये पिछले सभी सूत्रों में यह सूत्र कहीं अधिक गहन है। लेकिन साधना का सारा व्यावहारिक ज्ञान इसी में हैं। जो साधना सत्य से परिचित हैं, उन्हें इसका अहसास है कि साधना के सारे पथ, सारे मत अपनी सारी विविधताओं- भिन्नताओं के बावजूद एक ही बात सुझाते हैं- नीरवता। ध्यान की विधियाँ, महामंत्रों के जप, प्राणायाम की प्रक्रियाएँ सिर्फ इसीलिए है कि साधक के अन्तःकरण में नीरवता स्थापित हो सके। यह नीरवता जो कि सभी आध्यात्मिक साधनाओं का सार है- शिष्य को अपनी सच्चाई में अनायास प्राप्त हो जाती है। उसकी समर्पित भावनाएँ- सघन श्रद्धा अपने आप ही उसे नीरवता का वरदान दे डालती है।

आत्म पथ के जिज्ञासुओं के लिए यहाँ यह कहने का मन है कि मन को चंचल बनाने का एक ही कारण है मानव की तर्क बुद्धि। जितनी तर्क क्षमता उतना ही उद्वेग उतनी ही चंचलता। पर साथ ही इसमें हमारी जागरूकता के शुभ संकेत भी छुपे हैं। ये तर्क न हो- तर्कों का अभाव हो तो व्यक्ति का अन्तःकरण जड़ता से भर जायेगा। तर्कों के अभाव का अर्थ है ‘जड़ता’। यह स्थिति मूढ़ों की होती है।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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