शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १०२)

ध्यान की अनुभूतियों द्वारा ऊर्जा स्नान

ध्यान साधना के इस क्रम में अगला क्रम भी है, जो अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म है। सविता देव के भर्ग का ध्यान। ध्यान का यह विशिष्ट एवं अपेक्षाकृत सूक्ष्म अभ्यास है। सविता का यह भर्ग, प्रकाश पुञ्ज के रूप में सविता की महाशक्ति है। इसे धारण करना विशिष्ट साधकों के ही बस की बात है। माँ गायत्री यहाँ सृष्टि की आदि ऊर्जा के रूप में अनुभव होती है। जो इसे जानता है-वही जानता है। ध्यान के इस रूप में साधक की मनोवृत्तियों का लय एक विशिष्ट उपलब्धि है। इस अवस्था में होने वाली समाधि साधक को अलौकिक शक्तियों का अनुदान देती है।
    
इसके बाद ध्यान का एक नया रूप-नया भाव प्रकट होता है। यह ध्यान विधि अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म है। यहाँ सविता देव के साकार रूप को प्रकट करने वाली महाशक्ति आदि ऊर्जा का साक्षात् होता है। यह अवस्था साधकों की न होकर सिद्धों की है। माँ गायत्री की सृष्टि की आदि ऊर्जा के रूप में ध्यानानुभूति। इसे वही कर सकते हैं, जिनके स्नायु वज्र में ढले हैं। जो अपने तन-मन एवं जीवन को रूपान्तरित कर चुके हैं। परम पूज्य गुरुदेव अपनी भाव चेतना में ध्यान एवं समाधि की इसी विशिष्ट अवस्था में जीते थे। इस ध्यान से उन्हें जो मिला था, उसे बताते हुए वह कहते थे कि मेरे रोम-रोम में शक्ति के महासागर लहराते हैं।
    
ध्यान एवं समाधि का यह स्तर पाना सहज नहीं है। यहाँ जो समाधि लगाते हैं, वे न केवल सृष्टि की महाऊर्जाओं में स्नान करते हैं, बल्कि स्वयं भी ऊर्जा रूप हो जाते हैं। उनकी देह भी रूपान्तरित हो जाती है। यहाँ विचार नहीं बचते, सभी तर्कों का यहाँ लोप होता है। यहाँ न तो रूप है, न आधार, न तर्क है, न विचार। बस  शेष रहता है, तो केवल अनुभव। इसे जो जीते हैं, वही जानते हैं। जो जानते हैं, वे भी पूरा का पूरा नहीं बता पाते। समझने वालों को संकेतों में ही समझना पड़ता है। देखने वालों को केवल इशारे दिखाये जा सकते हैं। और जो इन्हें देखकर सुन्दर इस डगर पर आगे बढ़ते हैं-वे न केवल उपलब्धियाँ पाते हैं, बल्कि उनका स्वयं का जीवन भी एक महाउपलब्धि बन जाता है, जिसमें जिंदगी का असल अर्थ छिपा है।
    
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 श्रद्धा द्वारा पोषित मिट्टी का गुरु

गुरु द्रोणाचार्य से पाण्डव धनुर्विद्या सीखने बन में गये हुए थे। उनका कुत्ता लौटा तो देखा कि किसी ने उसके होठों को बाणों से सी दिया है। इस आश्चर्यजनक कला को देखकर पाण्डव दंग रह गये कि सामने से इस प्रकार तीर चलाये गये कि वह कहीं अन्यत्र न लग कर केवल होठों में ही लगे जिससे कुत्ता मरे तो नहीं पर उसका भौंकना बंद हो जाए। कुत्ते को लेकर पाण्डव द्रोणाचार्य के पास पहुँचे कि यह कला हमें सिखाइये। गुरु ने कहा-यह तो हमें भी नहीं आती। तब यही उचित समझा गया कि जिसने यह तीर चलाये हैं उसी की तलाश की जाय। कुत्ते के मुँह से टपकते हुए खून के चिह्नों पर गुरु को साथ लेकर पाण्डव उस व्यक्ति की तलाश में चले। अन्त में वहाँ जा पहुँचे जहाँ कि भील बालक अकेला ही बाण चलाने का अभ्यास कर रहा था। पूछने पर मालूम हुआ कि कुत्ते को तीर उसी ने मारे थे। अब अधिक पूछताछ शुरू हुई। यह विद्या किससे सीखी ? कौन तुम्हारा गुरु है? उसने कहा-द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं उन्हीं से यह विद्या मैंने सीखी है। द्रोणाचार्य आश्चर्य में पड़ गये। उनने कहा मैं तो तुम्हें जानता तक नहीं फिर बाण विद्या मैंने कैसे सिखाई?

द्रोणाचार्य को साक्षात सामने खड़ा देखकर बालक ने उनके चरणों पर मस्तक रखा और कहा मैंने मन ही मन आपको गुरु माना और आपकी मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसी के सामने अपने आप अभ्यास आरंभ कर दिया।

गुरु भाव सच्चा और दृढ़ होने पर गुरु की मिट्टी की मूर्ति भी इतनी शिक्षा दे सकती है जितनी कि वह गुरु शरीर भी नहीं दे सकता। श्रद्धा का महत्व अत्यधिक है।

📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1961

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