बुधवार, 9 मार्च 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 20)

गुरुचेतना में समाने की साहसपूर्ण इच्छा

इस अर्थ में भी वह अप्राप्य है। क्योंकि ज्यों-ज्यों तुम पास पहुँचोगे त्यों-त्यों वह दूर हटता जाएगा। प्रकाश के पास पहुँच कर भी ज्योति दूर रह जाती है। ज्योति से मिलन तो ज्योति बनकर ही होता है। ज्योति में समाकर ज्योति से एकाकार होकर ही ज्योति से मिला जा सकता है।

इस सूत्र के सार को यदि समझे- तो बात इतनी भर है कि साहसपूर्ण इच्छा तो अपने सद्गुरु में समाने की है। गुरुचेतना में विलय ही शिष्य की पहचान है। इसी में शिष्यत्व का खरापन है। सद्गुरु ही प्रकाश स्रोत के रूप में हमारे अन्तःकरण में है। वही परमचेतना के रूप में हमसे परे है। और वही अभी अप्राप्य है। उनकी परम ज्योति को स्वयं को मिटाकर ही छुआ जा सकता है।

उनमें समाकर ही जीवन पूर्ण होता है। बार-बार हजार बार बल्कि लाखों बार यह बात दुहराई जा सकती है कि जो शिष्य है, जिन्हें शिष्यत्व प्राप्त हुआ है- उनकी केवल देह बची रह जाती है, बाकी तो उनमें चेतना सद्गुरु की रहती है। गुरुदेव ही शिष्य की देह को आधार बना कर अपनी लीला करते रहते हैं पर ऐसा होता तभी है, जब उपरोक्त सूत्र का सही-सही अनुपालन हो।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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आध्यात्मिक चिंतन अनिवार्य

जो लोग आध्यात्मिक चिंतन से विमुख होकर केवल लोकोपकारी कार्य में लगे रहते हैं, वे अपनी ही सफलता पर अथवा सद्गुणों पर मोहित हो जाते हैं। वे अपने आपको लोक सेवक के रूप में देखने लगते हैं। ऐसी अवस्था में वे आशा करते हैं कि सब लोग उनके कार्यों की प्रशंसा करें, उनका कहा मानें ।। उनका बढ़ा हुआ अभिमान उन्हें अनेक लेागों का शत्रु बना देता है। इससे उनकी लोक सेवा उन्हें वास्तविक लोक सेवक न बनाकर लोक विनाश का रूप धारण कर लेती है।

आध्यात्मिक चिंतन के बिना मनुष्य में विनीत भाव नहीं आता और न उसमें अपने आपको सुधारने की क्षमता रह जाती है। वह भूलों पर भूल करता चला जाता है और इस प्रकार अपने जीवन को विफल बना देता है।

हारिये न हिम्मत   
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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विचार शक्ति का महत्व समझिये। (अन्तिम भाग)

ऐसे कापुरुषों की भी संसार में कमी नहीं है जो मानव जीवन का मूल्य न समझकर मृत्यु के दिन गिनते रहते हैं। यह भ्रम उन्हें खाये डालता है कि वे बीमार हैं, शक्ति हीन हैं। काल्पनिक दुःख एवं चिन्ताएं हर समय उन पर सवार रहती हैं। वस्तुतः इन्हें शारीरिक रूप से कोई बीमारी नहीं होती परन्तु मानसिक निर्बलता के कारण उनकी शारीरिक तथा मानसिक दोनों ही प्रकार की शक्ति तथा सामर्थ्य पंगु बन जाती हैं। अनेक प्रकार के शारीरिक रोग इन्हें घेरे रहते हैं। जीवन के आनन्द से वंचित कर देते हैं। निर्बल एवं- रोगी शरीर व्यक्ति सुखों से सदैव वंचित ही रहता है।

मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि अनेक शारीरिक रोग मानसिक निर्बलता तथा संवेगों से उत्पन्न होते हैं। शरीर विज्ञान-शास्त्रियों का भी मत है कि केवल मानसिक चित्रों के आधार पर ही अनेक शारीरिक बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. टुके ने अपनी पुस्तक ‘इन्फ्लूएन्स आफ दी माइण्ड अपान दी बॉडी’ में लिखा है- ‘पागलपन, मूढ़ता, अंगों का निकम्मा हो जाना, पित्त पाण्डु रोग, बालों का शीघ्र गिरना, रक्तहीनता, घबराहट, मूत्राशय के रोग, गर्भाशय में पड़े हुए बच्चे का अंग भंग हो जाना, चर्म रोग, फुन्सियाँ-फोड़े तथा एक्जिमा आदि कितने ही स्वास्थ्यनाशक रोग केवल मानसिक क्षोभ तथा भाव से ही पैदा होते हैं।’

यदि आप स्वस्थ रहना चाहते हैं, सुख तथा समृद्धि पाना चाहते हैं, सफलता का वरण करना चाहते हैं तो विचारों को निर्मल, पवित्र तथा उदात्त बनाइये। यदि कोई ऐसा विचार मन में आये कि आप बीमार हैं, दुर्बल हैं, तो तुरन्त उसे दबा दें। यदि मस्तिष्क से कोई ऐसी ध्वनि निकले जो सफलता में बाधक बने-तो फौरन उसे बाहर निकाल दीजिये। विश्वास रखिये आप संसार के महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं तथा ईश्वरीय प्रयोजनों में सहयोग देने के लिये संसार में जन्में हैं। अनेक महत्वपूर्ण कार्य आपको पूरे करने हैं। उठिये, आगे बढ़िये-मंजिल पर तीव्रता से कदम बढ़ाइये, जीवन के किसी मोड़ पर खड़ी सफलता आतुरता से आपकी प्रतीक्षा कर रही है।

समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1972 पृष्ठ 44
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/October.44

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