(४) प्रतिदिन प्रज्ञायोग की साधना नियमित रूप से की जाय। उठते समय आत्मबोध, सोते समय तत्त्वबोध। नित्य कर्म से निवृत्त होकर जप, ध्यान। एकान्त सुविधा का चिन्तन- मनन में उपयोग। यही है त्रिविधि सोपानों वाला प्रज्ञायोग। यह संक्षिप्त होते हुए भी अति प्रभावशाली एवं समग्र है। अपने अस्त- व्यस्त बिखराव वाले साधना क्रम को समेटकर इसी केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित करना चाहिये। महान के साथ अपने क्षुद्र को जोड़ने के लिए योगाभ्यास का विधान है। प्रज्ञा परिजनों के लिए सर्वसुलभ एवं सर्वोत्तम योगाभ्यास ‘प्रज्ञा योग’ की साधना है। उसे भावनापूर्वक अपनाया और निष्ठा पूर्वक निभाया जाय।
(५) दृष्टिकोण को निषेधात्मक न रहने देकर विधेयात्मक बनाया जाय। अभावों की सूची फाड़ फेंकनी चाहिये और जो उपलब्धियाँ हस्तगत है, उन्हें असंख्य प्राणियों की अपेक्षा उच्चस्तरीय मानकर सन्तुष्ट भी रहना चाहिये और प्रसन्न भी। इसी मनःस्थिति में अधिक उन्नतिशील बनना और प्रस्तुत कठिनाइयों से निकलने वाला निर्धारण भी बन पड़ता है। असन्तुष्ट, खिन्न, उद्विग्न रहना तो प्रकारान्तर से एक उन्माद है, जिसके कारण समाधान और उत्थान के सारे द्वार ही बन्द हो जाते है।
कर्तृत्व पालन को सब कुछ मानें। असीम महत्त्वाकांक्षाओं के रंगीले महल न रचें। ईमानदारी से किये गये पराक्रम से ही परिपूर्ण सफलता मानें और उतने भर से सन्तुष्ट रहना सीखें। कुरूपता नहीं, सौन्दर्य निहारें। आशंकाग्रस्त, भयभीत, निराश न रहें। उज्ज्वल भविष्य के सपने देखें। याचक नहीं दानी बने। आत्मावलम्बन सीखें। अहंकार तो हटायें पर स्वाभिमान जीवित रखें। अपना समय, श्रम, मन और धन से दूसरों को ऊँचा उठायें। सहायता करे पर बदले की अपेक्षा न रखें। बड़प्पन की तृष्णाओं को छोड़े और उनके स्थान पर महानता अर्जित करने की महत्वाकांक्षा सँजोये। स्मरण रखें, हँसते- हँसाते रहना और हल्की- फुल्की जिन्दगी जीना ही सबसे बड़ी कलाकारिता है।
.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(५) दृष्टिकोण को निषेधात्मक न रहने देकर विधेयात्मक बनाया जाय। अभावों की सूची फाड़ फेंकनी चाहिये और जो उपलब्धियाँ हस्तगत है, उन्हें असंख्य प्राणियों की अपेक्षा उच्चस्तरीय मानकर सन्तुष्ट भी रहना चाहिये और प्रसन्न भी। इसी मनःस्थिति में अधिक उन्नतिशील बनना और प्रस्तुत कठिनाइयों से निकलने वाला निर्धारण भी बन पड़ता है। असन्तुष्ट, खिन्न, उद्विग्न रहना तो प्रकारान्तर से एक उन्माद है, जिसके कारण समाधान और उत्थान के सारे द्वार ही बन्द हो जाते है।
कर्तृत्व पालन को सब कुछ मानें। असीम महत्त्वाकांक्षाओं के रंगीले महल न रचें। ईमानदारी से किये गये पराक्रम से ही परिपूर्ण सफलता मानें और उतने भर से सन्तुष्ट रहना सीखें। कुरूपता नहीं, सौन्दर्य निहारें। आशंकाग्रस्त, भयभीत, निराश न रहें। उज्ज्वल भविष्य के सपने देखें। याचक नहीं दानी बने। आत्मावलम्बन सीखें। अहंकार तो हटायें पर स्वाभिमान जीवित रखें। अपना समय, श्रम, मन और धन से दूसरों को ऊँचा उठायें। सहायता करे पर बदले की अपेक्षा न रखें। बड़प्पन की तृष्णाओं को छोड़े और उनके स्थान पर महानता अर्जित करने की महत्वाकांक्षा सँजोये। स्मरण रखें, हँसते- हँसाते रहना और हल्की- फुल्की जिन्दगी जीना ही सबसे बड़ी कलाकारिता है।
.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य