शनिवार, 19 मार्च 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १४

त्याग और सेवा द्वारा सच्चे प्रेम का प्रमाण दीजिए।

त्याग के साथ-साथ सेवा भी होनी चाहिए। जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्यकता है, उसे वही दी जाए। कौन क्या चाहता है, इसके आधार पर यह निर्णय नहीं हो सकता कि उसे वही वस्तु मिलनी चाहिए। सन्निपात का रोगी मिठाई माँगता है, पर मिठाई देना तो उससे दुश्मनी करना है। आपका कोई प्रियजन कुमार्ग पर चलता है और उस दुष्कर्म की पूर्ति में आपको सहायक बनाना चाहता है। यदि आप उसकी सहायता करने लगें, तो यह उसके साथ एक भयंकर अपकार करना होगा। आपको सुयोग्य सिविल सर्जन की तरह यह जाँच करनी होगी कि उसे वास्तव में क्या कष्ट है और उसका उपचार किस प्रकार करना चाहिए। हैजे की बीमारी में बड़ी भारी प्यास लगती है, पर सुयोग्य डॉक्टर बीमार को मनमानी मात्रा में पानी नहीं पीने देता।
 
हो सकता है कि रोगी उस समय डॉक्टर से नाराज हो और उसके साथ अभद्र व्यवहार करे, पर डॉक्टर प्रेमी है, इसलिए वह तात्कालिक प्रतिक्रिया की ओर ख्याल नहीं करता और रोगी के दीर्घकालीन हित को अपने मन में रखता हुआ अपना कार्य प्रारंभ करता है।

घर के जिन लोगों की मनोभूमि में जो त्रुटि देखें, उसे दूर करने में प्रयत्नशील रहें। त्याग वृत्ति से उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयत्न करें पर कैंची से काट-छाँट कर इन पेड़ों को सुरम्य बनाने के .प्रयत्न में भी न चूकें। ', अन्यथा यदि उनकी कुभावना ओं को सिंचन मिलता रहा तो एक दिन बडे विकृत कंटीले झाड बन सकते हैं। प्रेम के दो अंगों को पूरी तरह हृदयंगम कीजिए-त्याग और सेवा, दान और सुधार। खेती को पानी की जरूरत है, पर निराई की भी कम आवश्यकता नहीं है। दोनों काम एक दूसरे से कुछ विपरीत जान पड़ते हैं, सहायता और सुधार का एक साथ मेल मिलता नहीं दीखता, यह कार्य बड़ा कठिन प्रतीत होता है, इसलिए तो प्रेम करना तलवार की धार पर चलना कहा गया है। प्रेमी को तलवार की धार पर चलना पडता है।

नट अपने घर कें आँगन में कला खेलना सीखता है। आप अपने परिवार में प्रेम की साधना आरंभ कीजिए। शिक्षा से अपने प्रियजनों के अंतःकरणों में ज्ञान की ज्योति जलाइए उन्हें सत-असत का विवेक प्राप्त करने में सहायता दीजिए परंतु सावधान, यह कार्य गुरु की तरह आरंभ न किया जाए अहंकार का इसमें एक कण भी न हो। सेवा का दूध अहंकार की खटाई से फट जाएगा। अहंकार पूर्वक उपदेश करेंगे तो तिरस्कार और उपहास ही हाथ लगेगा। इसलिए जिसमें जो सुधार करना हो वह विनय पूर्वक उसे सलाह देते हुए कहिए या करिए। '' धीरे- धीरे, बार-बार और सद्भावना से '' ढाक को चंदन, कौए को हंस बनाया जा सकता है। आप प्रेम की महान साधना में प्रवृत्त हो जाइए। त्याग और सेवा को अपना साधन बनाइए आरंभ अपने घर से कीजिए। आज से ही अपनी पुरानी दुर्भावनाएँ मन के कोने-कोने से ढूँढकर निकालिए और उन्हें झाडू-बुहार कर दूर फेंक दीजिए। प्रेम की उदार भावनाओं से अंतःकरण को परिपूर्ण कर लीजिए और सगे-संबंधियों के साथ त्याग एवं सेवा का व्यवहार करना आरंभ कर दीजिए।
 
कुछ क्षणों के उपरांत आप एक चमत्कार हुआ देखने लगेंगे। आपका यही छोटा सा परिवार जो आज शायद कलह-क्लेशों का घर बना हुआ है आपको सुख-शांति का स्वर्ग दीखने लगेगा। आपकी प्रेम भावनाएँ आस-पास के लोगों से टकरा कर आपके पास लौट आवेंगी और वे आनंद के भीने- भीने सुगंधित फुहार से छिड़क कर प्रेम के रंग में सरोबोर कर देंगी। प्रेम की पाठशाला का आनंद अनुभव करके ही जाना जा सकता है। विलंब मत कीजिए आज ही आप इसमें भरती हो जाइए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २१

👉 भक्तिगाथा (भाग ११६)

श्रेष्ठ ही नहीं, सुलभ भी है भक्ति

देवर्षि अपना वाक्य पूरा कर पाते इसके पहले ही ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने विश्वासपूर्वक कहा- ‘‘आप चिन्तित न हों देवर्षि। महात्मा सत्यधृति भगवान के परम भक्त हैं। आपका भक्तिसूत्र सुनते ही उनका चिन्तन व चेतना दोनों ही बाह्य जगत में लौट आएँगे।’’

ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की बात सभी को भायी। स्वयं देवर्षि को भी इसमें सत्य व सार्थकता की अनुभूति हुई। उन्होंने वीणा की मधुर झंकृति के साथ भगवान नारायण का पावन स्मरण करते हुए अगले भक्तिसूत्र का उच्चारण किया-

‘अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ’॥ ५८॥
अन्य सब की अपेक्षा भक्ति सुलभ है।

देवर्षि नारद के इस वाक्य के साथ ही महात्मा सत्यधृति ने नेत्र उन्मीलित करते हुए कहा- ‘‘ठीक यही बोला था भक्त विमलतीर्थ ने मुझसे। कितने वर्ष बीत गए, पर उनकी बात मेरे चित्तपटल पर यथावत अंकित है। कितनी ही आकुल प्रार्थनाओं के बाद वे मुझसे मिले थे। मिलते ही उन्होंने सबसे पहले कहा था- राजन्! भगवान मनुष्य के किसी पुरुषार्थ का सुफल नहीं हैैं। वे तो बस अपनी ही अहैतुकी कृपा का सुपरिणाम हैं। मनुष्य का पुरुषार्थ कितना ही प्रबल क्यों न हो, वह सर्वसमर्थ सर्वेश्वर को तनिक सा भी आकर्षित नहीं कर सकता। उन्हें तो आकर्षित करती है, भावनाओं से भरे हृदय की करुणासक्त एवं आर्त्त पुकार।’’

थोड़ा रुक कर वे बोले- ‘‘भावाकुल हृदय की पुकार भगवान को विह्वल कर देती है। यह पुकारना सरल है जटिल भी। सरल उनके लिए है जो सरल व निष्कपट हैं, जिनका हृदय शुद्ध एवं भगवत्प्रेम से भरा है और जटिल उनके लिए है जो प्रेम व भावनाओं से रिक्त हैं। जो पुरुषार्थप्रिय हैं, उनके लिए अनेक तरह के पुरुषार्थ हैं, अनेकों तरह की साधनाएँ हैं। हठयोग, राजयोग की विधियाँ, ज्ञान-विचार के वेदान्त आदि साधन हैं। लेकिन जो इन कठिन साधनों को करने में समर्थ नहीं हैं, जिन्हें स्मरण व समर्पण प्रिय है, उनके लिए भक्ति है। सच तो यह है कि भक्ति सबके लिए है और यह सभी साधनों से सुलभ है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २३१

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