रविवार, 4 जून 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 4 June 2023

अवांछनीय विचारों को मस्तिष्क में स्थान देने और उन्हें वहाँ जड़ जमाने का अवसर देने का अर्थ है भविष्य में हम उसी स्तर का जीवन जीने की तैयारी कर रहे हैं। भले ही यह सब अनायास ही हो रहा हो, पर उसका परिणाम तो होगा ही। उचित यही है कि हम उपयुक्त और रचनात्मक विचारों को ही मस्तिष्क में प्रवेश करने दें। यदि उपयोगी और विधायक विचारों का आवाहन करने और अपनाने का स्वभाव बना लिया जाये तो निःसंदेह प्रगति पथ पर बढ़ चलने की संभावनाएँ आश्चर्यजनक गति से विकसित हो सकती हैं।

समय गतिशील है। हाथ से निकला हुआ आज बीता हुआ कल हो जाता है। मनुष्य का जीवन काल ईश्वर ने निर्धारित करके उसे बताया नहीं है। जाने किस दिन बुलावा आ जाय। इसलिए समझदार व्यक्तियों ने यह सुझाव दिया है कि आज का काम कल पर नहीं रखना चाहिए, वरन् प्रयास यह करना चाहिए कि कल किया जाने वाला काम भी आज ही पूरा कर लिया जाये। हो सकता है कि कल जियें या न जियें।

शंकालु व्यक्ति अपने को चारों ओर से विपत्तियों के चक्रव्यूह में फँसा अनुभव करते हैं और हर व्यक्ति पर संदेह करते हैं। ऐसे लोग न तो किसी का प्यार पाते हैं, न सहयोग। उनकी अपनी आशंकाएँ ही इतनी बड़ी विभीषिका बन जाती है जो वास्तविक विपत्ति से भी अधिक अहितकर परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देती है। आशंकाओं से ग्रसित व्यक्ति उस साहस, उत्साह और शुभ चिंतन से वंचित ही रह जाते हैं, जो प्रगति के लिए नितान्त आवश्यक है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (भाग 3)

अब दोष-दृष्टा को ले लीजिये। उसकी स्थिति बिल्कुल विपरीत होती है। जहाँ अन्य लोग उक्त महात्मा में गुण ही देख सके वहाँ उसे केवल दोष ही दिखाई दिये। उसका हृदय महात्मा के प्रशंसकों के बीच, उनकी कुछ खामियों के रखने के लिये बेचैन हो जाता। जब अवकाश अथवा अवसर न मिलता तो प्रशंसा में सम्मिलित होकर उनके बीच बोलने का अवसर निकाल कर कहना प्रारम्भ कर देता- ‘‘हाँ, महात्मा जी का व्याख्यान था तो अच्छा- लेकिन उतना प्रभावोत्पादक नहीं था, जितना कि लोग प्रभावित हुए अथवा प्रशंसा कर रहे हैं। कोई मौलिकता तो थी नहीं। यही सब बातें अमुक नेता ने अपनी प्रचार-स्पीच में शामिल करके देशकाल के अनुसार उसमें धार्मिकता का पुट दे दिया था। अजी साहब क्या नेता, क्या महन्त सबके-सब अपने रास्ते जनता पर नेतृत्व करने के सिवाय और कोई उद्देश्य नहीं रखते। यह सब पूजा, प्रतिष्ठा व पेट का धन्धा है।”

यदि लोग सच्चाई से विमुख होकर उससे सहमत न हुए तब तो वह वाद-विवाद के लिये मैदान पकड़ लेता है और अन्त में अपना दोषदर्शी चित्र दिखा कर लोगों की हीन दृष्टि का आखेट बन कर प्रसन्नता खो कर और विषण्ण होकर लौट आता है। जहाँ गुण ग्राहकों ने उस दिन महीनों काम आने वाली प्रसन्नता प्राप्त की, वहाँ दोष-दृष्टा ने जो कुछ टूटी-फूटी प्रसन्नता उस समय पास में थी वह भी गवाँ दी।

दोष-दर्शन की प्रक्रिया जोर पकड़ ही चुकी थी, उसकी सखी-सहेली झल्लाहट, खीझ, कुढ़न, कुण्ठा, अरुचि आदि सब साथ ही लगी हुई थीं। निदान घर आकर भोजन अच्छा न लगा पत्नी निहायत बेसऊर दिखाई देने लगी। बच्चे यदि सोते मिले तो नालायक हैं। शाम से ही सो जाते हैं। और यदि जगते मिले तो लापरवाह और तन्दुरुस्ती का ध्यान न रखने वाले बन गये। तात्पर्य यह कि उस दिन जहाँ अन्य सब लोग अधिक-से-अधिक प्रसन्नता के अधिकारी बने वहाँ दोषदर्शी के लिये हर बात खेदजनक और दुःखदायी बन गई।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मई 1968, पृष्ठ 23


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