बुधवार, 5 जनवरी 2022

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

मेरी दृढ धारणा है कि तुममें अन्धविश्वास नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है, धीरे - धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे। 'साहसी' शब्द और उससे अधिक 'साहसी' कर्मों की हमें आवश्यकता है। उठो! उठो! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकते हो? हम बार - बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग
 उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है? इससे महान कर्म क्या है?

अकेले रहो, अकेले रहो। जो अकेला रहता है, उसका किसीसे विरोध नहीं होता, वह किसीकी शान्ति भंग नहीं करता, न दूसरा कोई उसकी शान्ति भंग करता है।

जो पवित्र तथा साहसी है, वही जगत् में सब कुछ कर सकता है। माया-मोह से प्रभु सदा तुम्हारी रक्षा करें। मैं तुम्हारे साथ काम करने के लिए सदैव प्रस्तुत हूँ एवं हम लोग यदि स्वयं अपने मित्र रहें तो प्रभु भी हमारे लिए सैकडों मित्र भेजेंगे, आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः।

अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो - चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते - तमाम संसा हिल उठता। क्या करूँ धीरे - धीरे अग्रसर होना पड रहा है। तूफ़ान मचा दो तूफ़ान!

👉 भक्तिगाथा (भाग १००)

योग-क्षेम का त्यागी कहलाता है भक्त

अजामिल की कथा, भगवान के पवित्र नारायण नाम का प्रभाव एवं सत्संग की महिमा सुनकर, सुनने वालों की अन्तर्भूमि में भक्ति सरिता प्रवाहित हो उठी। वे सोचने लगे कि भक्ति भावनाओं को भिगोने के साथ उन्हें धुलकर धवल करती है। जो किसी भी भांति प्रत्यक्ष या परोक्ष, भक्तिमय भावनाओं अथवा भक्तिपूर्ण वातावरण के सम्पर्क में रहता है, उसे किसी भी कारण कल्मष की कालिमा छू भी नहीं सकती। कुटिल कुसंस्कार उसको सहज ही छोड़ देते हैं। सोचने वालों की ये चिन्तन तरंगें हिमालय के दिव्य वातावरण की सम्पूर्णता में व्याप्त हो गयीं। इनके पवित्र स्पन्दनों ने वहाँ की पावनता को भी पावन कर दिया। सभी ने महर्षि पुलह की ओर कृतज्ञ नजरों से देखा, जिन्होंने भक्ति, भक्त और भगवान के पवित्र नाम की महिमा बखान करने वाली यह सुमनोरम कथा सुनायी थी।

स्वयं महर्षि पुलह भी कम आह्लादित नहीं थे। उन्हें स्वयं में गहरी पुलकन एवं रोम-रोम में रोमांच की अनुभूति हो रही थी। अजामिल के अनुभव की बात सोचकर उन्हें लग रहा था कि कोई भी किसी भी स्थिति में क्यों न हो, उसका पुनरोदय सम्भव है। आखिरकार किसी जीवात्मा का पतन उसके चित्त की कालिमा और कलुष के कारण ही होता है, यदि यह कलुष व कालिमा किसी भी तरह धुल सके तो जीवात्मा अपने ईश्वरीय स्वरूप को पुनः पा सकती है और यह सब भक्तिमय भावना के द्वारा सम्भव है। भक्ति की पावनता से ही सब कुछ पावन होता है। भक्ति में वह परमपावनी सामर्थ्य है जिससे साधक, साधना एवं उसकी सिद्धि, तीनों ही पवित्र होते हैं। यही तो आध्यात्मिक जीवन साधना का शीर्ष व शिखर है। जो इसके अतिरिक्त किसी अन्य सिद्धि, उपलब्धि, सम्पदा व विभूति को साधना मान लेते हैं, वे भ्रम के भटकावों में ही भटकते रहते हैं।

महर्षि पुलह के इस अन्तर्चिन्तन के साथ सब तरफ मौन पसरा रहा। अन्य सभी के मन भी कहीं गहरे में डूबे रहे। यह स्थिति कितनी देर तक रही किसी को पता न चला।

हिमालय के हिमप्रपातों की कल-कल ध्वनि, हिमपक्षियों का कलरव एवं हिमप्रदेश में रहने वाले पशुओं की चित्र-विचित्र आवाजें भी इस निःस्पन्दता को स्पन्दित न कर सकीं। इसे तो महर्षि विश्वामित्र के स्वरों ने बेधा। उन्होंने देवर्षि को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘‘हे भगवान विष्णु के परमप्रिय भक्त! हम सभी को आपके नवीन सूत्र की प्रतीक्षा है।’’ अब तक देवर्षि नारद भी पता नहीं किन भावों में खोए हुए थे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के स्वरों ने उन्हें चेताया। विश्वामित्र का सम्बोधन सुनकर वह बड़े हल्के से मुस्कराए, फिर उनके मुख से बड़े मधुर स्वरों में प्रभु का परम पावन नाम नारायण! नारायण!! उच्चारित हुआ। इस अनोखे भक्तिपूर्ण उच्चारण से अन्य सभी की चिन्तन चेतना भी बाह्य जगत् में लौट आयी।
इसी के साथ देवर्षि नारद ने अपने नवीन सूत्र का मधुरवाणी में उच्चारण किया-

‘यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति,
निस्त्रैगुण्यो भवति, योगक्षेमं त्यजति’॥ ४७॥
जो निर्जन स्थान में वास करता है, जो लौकिक बन्धनों को तोड़ डालता है और जो योग तथा क्षेम का परित्याग कर देता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८६

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

All World Gayatri Pariwar Official  Social Media Platform > 👉 शांतिकुंज हरिद्वार के प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए Youtube Channel `S...