सोमवार, 20 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 20 Nov 2023

🔷 ईश्वर उपासना का अर्थ है- अपने आपको विकसित करना। चील की तरह ऊपर उठकर अपनी निरीक्षण वृत्ति को चौड़ा करना। जो जितनी ऊँचाई पर उठकर देखता है उसे उतना ही दूरदर्शी, विवेकवान समझा जाता है। जब सारी वस्तुओं की स्थिति का सही पता चल जाता है तो फिर यह कठिनाई नहीं रहती कि किसे चुनें, किसे न चुनें। इस प्रकार का ज्ञान पैदा हुये बिना मनुष्य अपनी जिन्दगी सुख पूर्वक बिता नहीं सकता।

🔶 दुःख का एक कारण है अज्ञान। अज्ञान-अर्थात् किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप को न जानना। वास्तविक का ज्ञान न होने से ही मनुष्य गलती करता है और दंड पाता है। यही दुःख का स्वरूप है अन्यथा परमात्मा न किसी को दुःख देता है न सुख। वह निर्विकार है, उसकी किसी से शत्रुता नहीं जो किसी को कष्ट दे, दंड दे।

🔷 जो बेचैन है, अशान्त है, पीड़ित है, वह सम्पन्नता उपार्जित करने के साधन जुटा ही नहीं सकता। उसे यातनाओं से संघर्ष करने से अवकाश ही नहीं मिलेगा। फिर भला वह सम्पन्नता का स्वप्न किस प्रकार पूर्ण कर सकता है। जो शान्त है, स्थिर है, निर्द्वन्द्व है वही कुछ कर सकने में समर्थ हो सकता है। यदि परिस्थितिवश अथवा संयोगवश किसी को सम्पन्नता प्राप्त भी हो जाये तो अशान्त एवं व्यग्र व्यक्ति के लिये उसका कोई उपयोग नहीं। जिस वस्तु का जीवन में कोई उपयोग नहीं, जो वस्तु किसी के काम नहीं आती, उसका होना भी उसके लिये न होने के समान ही है! अस्तु, सम्पन्नता प्राप्त करने के लिये शान्तिपूर्ण परिस्थितियों की आवश्यकता है और सुख-शान्ति के लिये सम्पन्नता की अपेक्षा है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 साँचा बनें

मित्रो ! तुम्हीं को कुम्हार व तुम्हीं को चाक बनना है। हमने तो अनगढ़ सोना, चाँदी ढेरों लगाकर रखा है, तुम्हीं को साँचा बनकर सही सिक्के ढालना है। साँचा सही होगा तो सिक्के भी ठीक आकार के बनेंगे। आज दुनिया में पार्टियाँ तो बहुत हैं, पर किसी के पास कार्यकर्ता नहीं हैं। ‘लेबर’ सबके पास है, पर समर्पित कार्यकर्ता जो साँचा बनता है व कई को बना देता है अपने जैसा, कहीं भी नहीं है। हमारी यह दिली ख्वाहिश है कि हम अपने पीछे छोड़कर जाएँ। इन सभी को सही अर्थों में ‘डाई’ एक साँचा बनना पड़ेगा  तथा वही सबसे मुश्किल काम है। रॉ मेटेरियल तो ढेरों कहीं भी मिल सकता है। पर ‘डाई’ कहीं- कहीं मिल पाती है। श्रेष्ठ कार्यकर्ता श्रेष्ठ ‘डाई’ बनता है। तुम सबसे अपेक्षा है कि अपने गुरु की तरह एक श्रेष्ठ साँचा बनोगे।

तुमसे दो और अपेक्षाएँ हैं- एक श्रम का सम्मान। यह भौतिक जगत का देवता है। मोती- हीरे श्रम से ही निकलते हैं। दूसरी अपेक्षा यह कि सेवा- बुद्धि के विकास के लिए सहकारिता का अभ्यास। संगठन शक्ति सहकारिता से ही पहले भी बढ़ी है, आगे भी इसी से बढ़ेगी।

हमारे राष्ट्र का दुर्भाग्य यह है कि श्रम की महत्ता हमने समझी नहीं। श्रम का माद्दा इस सबमें असीम है। हमने कभी उसका मूल्यांकन किया ही नहीं। हमारा जीवन निरन्तर श्रम का ही परिणाम है। बीस- बीस घण्टे तन्मयतापूर्वक श्रम हमने किया है। तुम भी कभी श्रम की उपेक्षा मत करना। मालिक बारह घण्टे काम करता है, नौकर आठ घण्टे तथा चोर चार घण्टे काम करता है। तुम सब अपने आपसे पूछो कि हम तीनों में से क्या हैं? जीभ चलाने के साथ कठोर परिश्रम करो, अपनी योग्यताएँ बढ़ाओ व निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ते जाओ।

दूसरी बात सहकारिता की है। इसी को पुण्य परमार्थ, सेवा, उदारता कहते हैं। अपना मन सभी से मिलाओ। मिल- जुलकर रहना, अपना सुख बाँटना, दुःख बँटाना सीखो। यही सही अर्थों में ब्राह्मणत्व की साधना है। साधु तुम अभी बने नहीं हो। मन से ब्राह्मणत्व की साधना करोगे तो पहले ब्राह्मण बनो। साधु अपने आप बन जाओगे। पीले  कपड़े पहनते हो कि नहीं, पर मन को पीला कर लो। सेवाबुद्धि का, दूसरों के प्रति पीड़ा का, भाव- सम्वेदना का विकास करना ही साधुता को जगाना है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 वाङमय- नं 68 पेज 1.15


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