Title
बुधवार, 13 मार्च 2019
👉 आत्मनिरीक्षण व आत्मसुधार
पुजारी नियत समय पूजा करने आता और आरती करते-करते वह भाव विहल हो जाता, पर घर जाते ही वह अपने पत्नी-बच्चों के प्रति कर्कश व्यवहार करने लगता।
एक दिन उसका नन्हा बच्चा भी साथ लगा चला आया। पुजारी स्तुति कर रहा था- हे प्रभु? तुम सबसे प्यार करने वाले, सब पर करूणा लुटाने वाले हो।
अभी वह इतना ही कह पाया था कि बच्चा बोल उठा- पिताजी? जिस भगवान के पास इतने दिन रहने पर भी आप करूणा और प्यार करना न सीख सके, उस भगवान के पास रहने से क्या लाभ? पुजारी को अपनी भूल मालूम पड़ गई, वह उस दिन से आत्मनिरीक्षण व आत्मसुधार में लग गया।
भगवान के गुणों का कीर्तन ही नहीं, उन्हों जीवन में उतारने का प्रयास भी करना चाहिए।
एक दिन उसका नन्हा बच्चा भी साथ लगा चला आया। पुजारी स्तुति कर रहा था- हे प्रभु? तुम सबसे प्यार करने वाले, सब पर करूणा लुटाने वाले हो।
अभी वह इतना ही कह पाया था कि बच्चा बोल उठा- पिताजी? जिस भगवान के पास इतने दिन रहने पर भी आप करूणा और प्यार करना न सीख सके, उस भगवान के पास रहने से क्या लाभ? पुजारी को अपनी भूल मालूम पड़ गई, वह उस दिन से आत्मनिरीक्षण व आत्मसुधार में लग गया।
भगवान के गुणों का कीर्तन ही नहीं, उन्हों जीवन में उतारने का प्रयास भी करना चाहिए।
👉 भगवान् का आमन्त्रण
यह एक प्रमाणित तथ्य हैं कि जिन्होंने भगवान का आमन्त्रण सुना है वह कभी घाटे में नहीं रहे। बुद्ध ने 'धर्मम् बुद्धम् संघम् शरणम् गच्छामि' का नारा लगाया और संव्याप्त अनीति-अनाचार से जूझने हेतु आमन्त्रण दिया तो असंख्यों व्यक्ति युग की पुकार पर सब कुछ छोड़कर उनके साथ हो लिए। उन्होंने तत्कालीन व्यवस्था को बदलने के लिए उन भिक्षुओं के माध्यम से जो बौद्धिक क्रान्ति सम्पन्न की, उसी का परिणाम था कि कुरीतियुक्त समाज का नव निर्माण सम्भव हो सका।
इसी तरह का चमत्कार गाँधी युग में भी उत्पन्न हुआ। अंग्रेजों की सामर्थ्य और शक्ति पहाड़ जितनी ऊँची थी। उन दिनों यह कहावत आम प्रचलित थी कि अंग्रेजों के राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता था। बुद्धि, कौशल में भी उनका कोई सानी नहीं था। फिर निहत्थे मुट्ठी भर सत्याग्रही उनका क्या बिगाड़ सकते थे। हजार वर्ष से गुलाम रही जनता में भी ऐसा साहस नहीं था कि इतने शक्तिशाली साम्राज्य से लोहा ले सके और त्याग-बलिदान कर सके। ऐसी निराशापूर्ण परिस्थितियों में भी फिर एक अप्रत्याशित उभार उमड़ा और स्वतन्त्रता संग्राम छिड़ा, यही नहीं अन्तत वह विजयी होकर रहा।
उस संग्राम में सर्वसाधारण ने जिस पराक्रम का परिचय दिया वह देखते ही बनता था। असमर्थो की समर्थता, साधनहीनों को साधनों की उपलब्धता तथा असहायों को सहायता के लिए न जाने कहाँ से अनुकूलताएँ उपस्थित हुई और असम्भव लगने वाला लक्ष्य पूरा होकर रहा।
📖 प्रज्ञा पुराण भाग १
इसी तरह का चमत्कार गाँधी युग में भी उत्पन्न हुआ। अंग्रेजों की सामर्थ्य और शक्ति पहाड़ जितनी ऊँची थी। उन दिनों यह कहावत आम प्रचलित थी कि अंग्रेजों के राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता था। बुद्धि, कौशल में भी उनका कोई सानी नहीं था। फिर निहत्थे मुट्ठी भर सत्याग्रही उनका क्या बिगाड़ सकते थे। हजार वर्ष से गुलाम रही जनता में भी ऐसा साहस नहीं था कि इतने शक्तिशाली साम्राज्य से लोहा ले सके और त्याग-बलिदान कर सके। ऐसी निराशापूर्ण परिस्थितियों में भी फिर एक अप्रत्याशित उभार उमड़ा और स्वतन्त्रता संग्राम छिड़ा, यही नहीं अन्तत वह विजयी होकर रहा।
उस संग्राम में सर्वसाधारण ने जिस पराक्रम का परिचय दिया वह देखते ही बनता था। असमर्थो की समर्थता, साधनहीनों को साधनों की उपलब्धता तथा असहायों को सहायता के लिए न जाने कहाँ से अनुकूलताएँ उपस्थित हुई और असम्भव लगने वाला लक्ष्य पूरा होकर रहा।
📖 प्रज्ञा पुराण भाग १
👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 40 से 45
सत्यात्रतां गतास्ते चु तत्वज्ञानेन बोधिता: ।
कार्या: संक्षिप्तसारेण यदमृतमिति स्मृतम्॥४०॥
तुलना कल्पवृक्षेण मणिना पारदेन च ।
यस्य जाता सदा तत्त्वज्ञानं तत्ते वदाम्यहम्॥४१॥
तत्त्वचिन्तुनत: प्रज्ञा जागर्त्यात्मविनिर्मितौ ।
प्राज्ञ: प्रसज्जते चात्मविनिर्माणे च सम्भवे॥४२॥
तस्यातिसरला विश्वनिर्माणस्यास्ति भूमिका ।
कठिना दृश्यमानापि ज्ञानं कर्म भवेत्तत:॥४३॥
प्रयोजनानि सिद्धयन्ति कर्मणा नात्र संशय: ।
सद्ज्ञान देव्यास्तस्यास्तु महाप्रज्ञेति या स्मृता॥ ४४॥
आराधनोपासना संसाधनाया उपक्रम: ।
व्यापकस्तु प्रकर्तव्यो विश्वव्यापी यथा भवेत्॥४५॥
टीका- ऐसे लोगों को सत्पात्र माना जाय और उन्हें उस तत्व ज्ञान को सार संक्षेप में हृदयंगम कराया जाय जिसे अमृत कहा गया है? जिसकी तुलना सदा पारसमणि और कल्पवृक्ष से होती रही है? वही तत्वज्ञान तुम्हें बताता हूँ। तत्व-चिन्तन से 'प्रज्ञा' जगती है। प्रज्ञावान आत्मनिर्माण में जुटता है। जिसके लिए आत्मनिर्माण कर पाना सम्भव हो सका है उसके लिए विश्व निर्माण की भूमिका निभा सकना अति सरल है भले ही वह बाहर से कठिन दीखती हो। ज्ञान ही कर्म बनता है। कर्म से प्रयोजन पूरे होते हैं इसमें सन्देह नहीं। उस सद्ज्ञान की देवी 'महाप्रज्ञा' है! जिनकी इन दिनों उपासना-साधना और आराधना का व्यापक उपक्रम बनना चाहिए ॥४०-४५॥
व्याख्या- सत्पात्रों को गायत्री महाविद्या का अमृत, पारस, कल्पवृक्ष रूपी तत्व ज्ञान दिया जाना इस कारण भगवान ने अनिवार्य समझा ताकि वे अपने प्रसुप्ति को जगा-प्रकाशवान हों-ऐसे अनेक के हृदय को प्रकाश से भर सकें। अमृत अर्थात् ब्रह्मज्ञान-वेदमाता के माध्यम से, पारस अर्थात् भावना-प्रेम-विश्वमाता के माध्यम से एवं कल्पवृक्ष अर्थात् तपोबल-देवत्व की प्राप्ति-देवमाता के माध्यम से। ये तीनों ही धाराएँ एक ही महाप्रज्ञा के तीन दिव्य प्रवाह हैं। अज्ञान, अभाव एवं अशक्ति का निवारण प्रत्यक्ष कामधेनु गायत्री के अवलम्बन से ही सम्भव है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 20
कार्या: संक्षिप्तसारेण यदमृतमिति स्मृतम्॥४०॥
तुलना कल्पवृक्षेण मणिना पारदेन च ।
यस्य जाता सदा तत्त्वज्ञानं तत्ते वदाम्यहम्॥४१॥
तत्त्वचिन्तुनत: प्रज्ञा जागर्त्यात्मविनिर्मितौ ।
प्राज्ञ: प्रसज्जते चात्मविनिर्माणे च सम्भवे॥४२॥
तस्यातिसरला विश्वनिर्माणस्यास्ति भूमिका ।
कठिना दृश्यमानापि ज्ञानं कर्म भवेत्तत:॥४३॥
प्रयोजनानि सिद्धयन्ति कर्मणा नात्र संशय: ।
सद्ज्ञान देव्यास्तस्यास्तु महाप्रज्ञेति या स्मृता॥ ४४॥
आराधनोपासना संसाधनाया उपक्रम: ।
व्यापकस्तु प्रकर्तव्यो विश्वव्यापी यथा भवेत्॥४५॥
टीका- ऐसे लोगों को सत्पात्र माना जाय और उन्हें उस तत्व ज्ञान को सार संक्षेप में हृदयंगम कराया जाय जिसे अमृत कहा गया है? जिसकी तुलना सदा पारसमणि और कल्पवृक्ष से होती रही है? वही तत्वज्ञान तुम्हें बताता हूँ। तत्व-चिन्तन से 'प्रज्ञा' जगती है। प्रज्ञावान आत्मनिर्माण में जुटता है। जिसके लिए आत्मनिर्माण कर पाना सम्भव हो सका है उसके लिए विश्व निर्माण की भूमिका निभा सकना अति सरल है भले ही वह बाहर से कठिन दीखती हो। ज्ञान ही कर्म बनता है। कर्म से प्रयोजन पूरे होते हैं इसमें सन्देह नहीं। उस सद्ज्ञान की देवी 'महाप्रज्ञा' है! जिनकी इन दिनों उपासना-साधना और आराधना का व्यापक उपक्रम बनना चाहिए ॥४०-४५॥
व्याख्या- सत्पात्रों को गायत्री महाविद्या का अमृत, पारस, कल्पवृक्ष रूपी तत्व ज्ञान दिया जाना इस कारण भगवान ने अनिवार्य समझा ताकि वे अपने प्रसुप्ति को जगा-प्रकाशवान हों-ऐसे अनेक के हृदय को प्रकाश से भर सकें। अमृत अर्थात् ब्रह्मज्ञान-वेदमाता के माध्यम से, पारस अर्थात् भावना-प्रेम-विश्वमाता के माध्यम से एवं कल्पवृक्ष अर्थात् तपोबल-देवत्व की प्राप्ति-देवमाता के माध्यम से। ये तीनों ही धाराएँ एक ही महाप्रज्ञा के तीन दिव्य प्रवाह हैं। अज्ञान, अभाव एवं अशक्ति का निवारण प्रत्यक्ष कामधेनु गायत्री के अवलम्बन से ही सम्भव है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 20
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