गुरुवार, 8 सितंबर 2022

👉 भक्तिगाथा (भाग १५५)

*भगवान पर सम्पूर्ण विश्वास है भक्ति*

*वृषपर्वा के मौन में और अन्य सभी के मनन में काफी समय बीत गया। हिमालय के हिमशिखर सजग किन्तु सर्वथा शान्त खड़े थे। सर्वत्र, सर्वदा प्रवाहित रहने वाली वायु में भी इस समय कोई हलचल नहीं थी। हिमपक्षी न जाने क्यों अचानक शान्त हो गए थे।* हिमपशुओं में भी किसी का रव नहीं सुनायी दे रहा था। हिमालय के इस परम पावन व दिव्य क्षेत्र में इस समय न कोई कोलाहल था और न कोई स्पन्दन। निस्पन्दता व नीरवता ही चहुँ ओर बिखरी हुई थी। *कोई किसी से कुछ भी नहीं कह रहा था। हालांकि सबके मनों में भीलकन्या जीवन्ती का व्यक्तित्व अपना प्रकाश बिखेर रहा था।* स्वयं महाराज वृषपर्वा की स्वचेतना भी उसी के आलोक से आलोकित थी।

*इन क्षणों के मौन व मनन का सम्मिलन बड़ा ही जीवन्त लग रहा था। पता नहीं ये पल कब तक यूं ही बने रहते, लेकिन तभी ब्रह्मर्षि पामदेव ने बड़े ही सौम्य व शिष्ट स्वर में अपनी जिज्ञासा प्रकट की- ‘‘महाराज वृषपर्वा! आपके अपने व्यक्तित्व का रूपान्तरण और जीवन्ती के जीवन ने मुझे बहुत ही सुखद अहसास के साथ प्रेरित किया है।* इस बारे में कुछ और अधिक सुनने व जानने के लिए उत्सुक हूँ।’’ महर्षि वामदेव के इस कथन का सभी ने समर्थन किया और समवेत सहमति जतायी। *सचमुच ही जीवन्ती का जीवन व उसकी भक्ति दुर्लभ है। ब्रह्मर्षि पुलह के इस कथन ने महाराज वृषपर्वा को एक अनूठी अनुभूति दी।*

*अपने को इस अनुभूति में लपेटे हुए विनम्र स्वर में उन्होंने कहा- ‘‘आप सभी का आदेश मुझे पूरी तरह से मान्य है किन्तु इसी के साथ मेरा अपना एक अनुरोध भी है।’’ ‘‘अवश्य कहें राजन्!’’ यह स्वर देवर्षि का था।* सम्भवतः वह वृषपर्वा के अन्तर्मन से सुपरिचित हो चले थे। सचमुच ही देवर्षि के कथन ने प्रतापी सम्राट रहे वृषपर्वा को उत्साहित किया। इसी उत्साह में वह बोले- ‘‘मुझे आपके अगले सूत्र के श्रवण की तीव्र प्रतीक्षा है।’’ *‘‘यह प्रतीक्षा तो हम सबको भी है’’-ऋषि पुलह ने वृषपर्वा के साथ अपनी सहमति जतायी। इस सहमति को स्वतः ही सभी का अनुमोदन मिल गया। साथ ही सभी की दृष्टि देवर्षि के मुखमण्डल पर जमी।* इस दृश्य को देखकर देवर्षि नारद मुस्कराए, फिर उन्होंने बड़े ही सुमधुर स्वर में नारायण के पावन नाम का तीन बार उच्चारण किया और तब उन्होंने अपने भक्ति सूत्र का उच्चारण करते हुए कहा-

*( ध्यान:- बुद्धि से हृदय की ओर चलने का ध्यान | Meditation of Heart | Shraddhey Dr. Pranav Pandya, https://youtu.be/pR_U_FiVtdY )*

‘सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः’॥ ७९॥
*सब समय, सर्वभाव से निश्चिन्त होकर (केवल) भगवान का ही भजन करना चाहिए।*

.... *क्रमशः जारी*
✍🏻 *डॉ. प्रणव पण्ड्या*
📖 *भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ३०५*

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👉 अपने को आवेशों से बचाइए

🔵 जीवन को समुन्नत देखने की इच्छा करने वालों के लिए यह आवश्यक है कि अपने स्वभाव को गंभीर बनाएँ। उथलेपन लड़कपन, छिछोरापन की जिन्हें आदत पड़ जाती है, वे गहराई के साथ किसी विषय पर विचार नहीं कर सकते। किसी समय मन को गुदगुदाने के लिए बालक्रीड़ा की जा सकती है, पर वैसा स्वभाव न बना लेना चाहिए। आवेशों से बचे रहने की आदत बनानी चाहिए जैसे समुद्र तट पर रहने वाले पर्वत, नित्य टकराते रहने वाले समुद्र की लहरों की परवाह नहीं करते। इसी प्रकार हमको भी उद्वेगों की उपेक्षा करनी चाहिए। खिलाड़ी खेलते हैं, कई बार हारते-हारते जीत जाते हैं, कई बार जीतते-जीतते हार जाते हैं, परंतु कोई खिलाड़ी उसका अत्यधिक असर मन पर नहीं पड़ने देता।

🔴 हारने वालों के होठों पर झेंप भरी मुस्कराहट होती है और जीतने वाले के होठों पर जो मुस्कराहट रहती है, उसमें सफलता की प्रसन्नता मिली होती है। इस थोड़े से स्वाभाविक भेद के अतिरिक्त और कोई विशेष अंतर जीते हुए तथा हारे हुए खिलाड़ी में नहीं दिखाई पड़ता। विश्व के रंगमंच पर हम सब खिलाड़ी हैं। खेलने में रस है, वह रस दोनों दलों को समान रूप से मिलता है। हार-जीत तो उस रस की तुलना में नगण्य चीज है। दु:ख-सुख, हानि-लाभ, जय-पराजय के कारण उत्पन्न होने वाले आवेशों से बचना ही योग की सफलता है। 

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
-अखण्ड ज्योति-मई 1947 पृष्ठ 5 


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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...