मंगलवार, 25 अगस्त 2020

👉 अनलहंक, अहं ब्रह्मास्मि!

अलहिल्लज मंसूर एक प्रसिद्ध सूफी हुआ, जिसका अंग-अंग काट दिया मुसलमानों ने, क्योंकि वह ऐसी बातें कह रहा था जो कुरान के खिलाफ पड़ती थीं। धर्म के खिलाफ नहीं। मगर किताबें बड़ी छोटी हैं, उनमें धर्म समाता नहीं। अलहिल्लज मंसूर की एक ही आवाज थी--- अनलहंक, अहं ब्रह्मास्मि! और यह मुसलमानों के लिए बरदाश्त के बाहर था कि कोई अपने को ईश्वर कहे। उन्होंने उसे जिस तरह सताकर मारा है, उस तरह दुनिया में कोई आदमी कभी नहीं मारा गया। उस दिन दो धटनाएं घटी। मंसूर का गुरू जुन्नैद, सिर्फ गुरू ही रहा होगा। गुरू जो कि दर्जनों में खरीदे जा सकते हैं, हर जगह मौजूद हैं, गांव-गांव में मौजूद हैं। कुछ भी कान में फूंक देते हैं और गुरू बन जाते हैं।

जुन्नैद उसको कह रहा था कि देख, भला तेरा अनुभव सच हो कि तू ईश्वर है, मगर कह मत। अलहिल्लज कहता कि यह मेरे बस के बाहर है। क्योंकि जब मैं मस्ती मे छाता हूं और जब मौज की घटनाएँ मुझे घेर लेती है, तब न तुम मुझे याद रहते हो न मुसलमान याद रहते हैं, न दुनिया याद रहती हैं, न जीवन न मौत। तब मैं अनलहक का उदघोष करता हूं ऐसा नहीं है। उदघोष हो जाता है। मेरी सांस-सांस में वह अनुभव व्याप्त है।

अंततः वह पकड़ा गया। जिस दिन वह पकड़ा गया, वह अपनी ही परिक्रमा कर रहा था। लोगों ने पूछा, यह तुम क्या कर रहे हो? ये दिन तो काबा जाने के दिन हैं। और जाकर काबा के पवित्र पत्थर के चक्कर लगाने के दिन हैं। तुम खड़े होकर खुद ही अपने चक्कर दे रहे हो? मंसूर ने कहा, कोई पत्थर अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव नहीं कर सकता, जो मैं अनुभव करता हूं। अपना चक्कर दे लिया, हज हो गईं। बिना कहीं गए, घर बैठे अपने ही आंगन में ईश्वर को बुला लिया। ऐसी सच्ची बातें कहने वाले आदमी को हमेशा मुसीबत में पड़ जाना है। उसे सुली पर लटकाया गया, पत्थर फेंके गए, वह हंसता रहा। जुन्नैद भी भीड़ में खड़ा था। जुन्नैद डर रहा था कि अगर उसने कुछ भी न फेंका तो भीड़ समझेगी कि वह मंसूर के खिलाफ नहीं है। तो वह एक फूल छिपा लाया था। पत्थर तो वह मार नहीं सकता था। वह जानता था कि मंसूर जो भी कह रहा है, उसकी अंतर-अनुभूति है। हम नहीं समझ पा रहे हैं; यह हमारी भूल है। उसने फूल फेंककर मारा।

उस भीड़ मे जहां पत्थर पड़ रहे थे...जब तक पत्थर पड़ते रहे, मंसूर हंसता रहा। और जैसे ही फूल उसे लगा, उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे! किसी ने पूछा कि क्यों पत्थर तुम्हें हंसते हैं, फूल तुम्हें रूलाते हैं? मंसूर ने कहा, पत्थर जिन्होंने मारे थे वे अनजान थे। फूल जिसने मारा है, उसे वहम है कि वह जानता है। उस पर मुझे दया आती है। मेरे पास उसके लिए देने को आंसूओं के सिवाय और कुछ भी नहीं है। और जब उसके पैर काटे गए और हाथ काटे गए, तब उसने आकाश की ओर देखा और जोर से खिलखिलाकर हंसा। लहूलुहान शरीर, लाखों की भीड़। लोगों ने पूछा, तुम क्यों हंस रहे हो? तो उसने कहा, मै ईश्वर को कह रहा हूं कि क्या खेल दिखा रहे हो! जो नहीं मर सकता उसे मारना का इतना आयोजन...। नाहक इतने लोगों का समय खराब कर रहे हो। और इसलिए हंस रहा हूं कि तुम जिसे मार रहे हो, वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं, उसे तुम छू भी नहीं सकते। तुम्हारी तलवारें उसे नहीं काट सकती। और तुम्हारी आगे उसे नहीं जला सकती। एक बार अपने जीवन की धारा से थोड़ा सा परिचय हो जाए, मौत का भय मिट जाता है।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ११)

परम पूज्य गुरुदेव के जीवन में इस सूत्र का जागरण अपने सद्गुरु से प्रथम मिलन में ही हो गया। वह जन्मों-जन्मों की योग साधना से सिद्ध थे। महात्मा कबीर, समर्थ रामदास, श्रीरामकृष्ण परमहंस के रूप में उन्होंने योग के सभी तत्त्वों का सम्यक् बोध प्राप्त किया था। इस बार तो उन्हीं की भाषा में- ‘सिर्फ पिसे को पीसना था, कुटे को कूटना था, बने को बनाना था। यानि कि किए हुए का पुनरावलोकन करना था। सद्गुरु की कृपा की किरण उतरी बस एक पल में हो गया।’ अपनी इस अनुभूति को गुरुदेव यदा-कदा हँसते हुए बता देते थे। वह कहते- ‘तुम लोग एक बार यदि बहुत अच्छी तरह से साइकिल चलाना सीख जाओ, तुम्हें खूब ढंग से साइकिल चलाना आ जाए। फिर तुम्हारी साइकिल यदि किसी तरह बदल जाय या बदल दी जाय, तो नई साइकिल में किसी तरह की कठिनाई नहीं आती है। बस थोड़ी देर बाद नयी साइकिल भी पुरानी वाली की तरह अच्छे से चलने लगती है।’
  
गुरुदेव बताते थे, बस कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ। अपने स्वरूप में स्थिति तो सदा से थी। पिछले जन्मों से थी। इस नए शरीर में भी उसके लिए कोई खास कठिनाई नहीं हुई। लेकिन हम सब साधकगण इसे किस रीति से पाएँ? इसके जवाब में वह एक बात कहा करते थे- सारा परदा मन का है। मन के इस परदे को हटा दो, फिर सब कुछ साफ-साफ नजर आने लगता है। द्रष्टा भाव भी वही है, आत्मस्वरूप में स्थिति भी वही है। बस, मन की झिलमिल के कारण नजर नहीं आ पाती। बात पते की है। समझ में भी आती है। लेकिन यह हो कैसे? मन का परदा हटे, तो कैसे हटे। महर्षि पतंजलि भी यही कहते हैं कि चित्तवृत्तियों का निरोध हो, तो योग सध जाय। योग साधना का सुफल मिल जाय। अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाय। लेकिन सवाल है कि यह सब हो तो कैसे हो?
  
इस कठिन सवाल का बड़ा आसान सा जवाब गुरुदेव देते थे। वह कहते मैंने अपने मन को अपने मार्गदर्शक का गुलाम बना दिया। तुम अपने मन को अपने सद्गुरु का गुलाम बना दो। उन्हें अर्पित और समर्पित कर दो। तुम ऐसा कर सके-इसकी एक ही कसौटी है कि अब तुम अपने लिए नहीं सोचोगे। न अतीत के लिए परेशान होगे, न वर्तमान के लिए विकल होगे और न ही भविष्य की चिन्ता करोगे। तुम्हारे लिए जो कुछ जरूरी होगा, वह सद्गुरु स्वयं करेंगे। तुम्हें तो बस अपने गुरु का यंत्र बनना है। इस संकल्प के कार्यरूप में परिणत होते ही महर्षि पतंजलि के इस सूत्र का अर्थ प्रकट होने लगता है। चित्त की वृत्तियों का निरोध होने, मन का परदा हटने व स्वरूप में अवस्थित होने का सत्य अपने आप ही उजागर हो जाता है।
  
इस सूत्र की साधना अन्तर्चेतना में कुछ इस तरह से स्वरित होती है-
महर्षि पतंजलि का सूत्र
बना अपने सद्गुरु का स्वर
इसका समग्र अर्थ
अन्तर्चेतना में तब होता भास्वर
जब हमारा मन
उसका हर स्पन्दन
करता गुरुदेव को समर्पण
न बचती कोई कल्पना
न कामना, न याचना
होती बस एक ही प्रार्थना
प्रभु, बनें हम आपके यंत्र
समर्पण की वर्णमाला
एकमात्र मंत्र
इसका सुफल
होता जीवन में अविकल
आत्मस्वरूप में अवस्थिति
तब बनती जीवन स्थिति!

समर्पण हुआ है, इसका मतलब यही है कि अब मन सद्गुरु के चिन्तन एवं उनके कार्यों में संलग्न हो गया। किसी भी तरह के स्वार्थ का मोह छूटा, अहंता के सारे बन्धन टूटे। ऐसे में आत्मस्वरूप में अवस्थिति सहज है। इस भाव दशा में मन रूपान्तरित हो जाता है। उसकी दृष्टि एवं दिशा बदल जाती है। समर्पण की इस साधना के द्वारा अपने स्वरूप को जानने, पाने एवं अवस्थित होने में मन अनेकों विघ्न खड़े करता हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ २५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 सभ्य नागरिक का पवित्र कर्त्तव्य

समाज शास्त्र के अनुसार प्रत्येक सभ्य नागरिक का यह पवित्र कर्तव्य है कि बुराइयों से वह स्वयं बचे और दूसरों को बचावे। जो स्वयं तो पाप नहीं करता पर पापियों का प्रतिरोध नहीं करता वह एक प्रकार से पाप को पोषण ही करता है। क्योंकि जब कोई बाधा देने वाला ही न होगा तो पाप और भी तीव्र गति से बढ़ेगा? हम सब एक नाव में बैठे हैं यदि इन बैठने वालों में से कोई नाव के पेंदे में छेद करे या उछलकूद मचाकर नाव को डगमगाये तो बाकी बैठने वालों का कर्तव्य है कि उसे ऐसा करने से रोकें। यदि न रोका जाएगा तो नाव का डूबना और सब लोगों का संकट में पड़ना संभव है। यदि उस उपद्रवी व्यक्ति को अन्य लोग नहीं रोकते हैं तो उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं है कि क्या करें, हमारा क्या कसूर है, हमने नाव में छेद थोड़े ही किया था। छेद करने वाले को न रोकना भी स्वयं छेद करने के समान ही घातक है। मनुष्य समाज परस्पर इतनी घनिष्ठता से जुड़ा हुआ है कि दूसरों को भुगतना पड़ता है। जयचन्द और मीरजाफर की गद्दारी से सारे भारत की जनता को कितने लम्बे समय की गुलामी की यातनाएँ सहनी पड़ीं।

हमारे समाज में यदि चारों ओर अज्ञान, अविवेक, कुसंस्कार, अन्धविश्वास, अनैतिकता, अशिष्टता का वातावरण फैला रहेगा तो उसका प्रभाव हमारे अपने ऊपर न सही तो अपने परिवार के अल्प विकसित लोगों पर अवश्य पड़ेगा। जिस स्कूल के बच्चे गंदी गालियाँ देते हैं उसमें पढ़ने जाने पर हमारा बच्चा भी गालियाँ देना सीखकर आएगा। गंदे गीत, गंदे फिल्म, गंदे प्रदर्शन, गंदी पुस्तकें, गंदे चित्र कितने असंख्य अबोध मस्तिष्कों पर अपना प्रभाव डालते हैं और उन्हें कितना गंदा बना देते हैं, इसे हम प्रत्यक्ष अपनी आँखों से देख सकते हैं। दो वेश्याएँ किसी मुहल्ले में आकर रहती हैं और वे सारे मुहल्ले में शारीरिक या मानसिक व्यभिचार के कीटाणु फैला देती हैं। शारीरिक न सही, मानसिक व्यभिचार तो उस मुहल्ले के अधिकाँश निवासियों के मस्तिष्क में घूमने लगता है। यदि मुहल्ले वाले उन वेश्याओं को हटाने का प्रयत्न न करें तो उनके अपने नौजवान लड़के बर्बाद हो जावेंगे। बुराई की उपेक्षा करना पर्याप्त नहीं है, पाप की ओर से आँखें बंद किये रहना सज्जनता की निशानी नहीं है। इससे तो अनाचार की आग ही फैलेगी और उसकी लपेटों से हम स्वयं भी अछूते न रह सकेंगे।

समाज में पनपने वाली दुष्प्रवृत्तियों को रोकना केवल सरकार का ही काम नहीं है, वरन् उसका पूरा उत्तरदायित्व सभ्य नागरिकों पर है। प्रबुद्ध और मनस्वी लोग जिस बुराई के विरुद्ध आवाज उठाते हैं वह आज नहीं तो कल मिटकर रहती हैं। अँग्रेजों के फौलादी चंगुल में जकड़ी हुई भारत की स्वाधीनता को मुक्त कराने के लिए−गुलामी के बंधन तोड़ने के लिए जब प्रबुद्ध लोगों ने आवाज उठाई तो क्या वह आवाज व्यर्थ चली गई! देर लगी, कष्ट आये पर वह मोर्चा सफल ही हुआ। समाजगत अनैतिकता, अविवेक, अन्धविश्वास और असभ्यता इसलिए जीवित है कि उनका विरोध करने के लिए वैसी जोरदार आवाजें नहीं उठतीं जैसी राजनैतिक गुलामी के विरुद्ध उठी थीं। यदि उसी स्तर का प्रतिरोध उत्पन्न किया जा सके तो हमारी सामाजिक गंदगी निश्चय ही दूर हो सकती है, सभ्य समाज के सभ्य नागरिक कहलाने का गौरव हम निश्चय ही प्राप्त कर सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 Cost of body parts

A person went to a saint. ”I am unlucky. I don’t have anything. It’s better to die than to live such a life.” The saint said, “Do you have any idea of the things you have? If not then I’ll give you. What are you willing to take in return of your one arm, one leg and one eye? I am ready to give 100 gold coins for each of the parts.” The person said, “I can’t give them, how will I live without them?” The saint said, “Fool, you already have property worth crores, then also you are crying for having nothing”. 

There are many such people who don’t recognize their true worth and consider themselves unlucky. They realize when some enlightened one teaches them lesson. 

Pragya Puran Part 1

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