शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १७

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए

लोग यदि आपके बारे में अच्छे विचार नहीं रखते, आपको बुद्धिमान नहीं मानते, निरुत्साहित करने वाले वचन कहते हैं, तो ' कहने दीजिए। अपने स्वतंत्र विचार रखने का हर एक को अधिकार है, परंह यह आवश्यक नहीं कि आप हर किसी  ऐरे-गैरे, नत्थू-खैरे ', के अविवेक वचनों को वेद वाक्य की तरह स्वीकार करके अपने भविष्य को अंधकारपूर्ण बना लें। कहने वाले कितने ही बुद्धिमान या बडे आदमी सही, पर यह आवश्यक नहीं कि वे जो कुछ कहते हैं बिलकुल सत्य ही कहते हैं। जब आप स्वयं अपने बारे में निर्णय करते हुए गलती करते हैं, सद्गुण प्रधान होते भी अपने को दुर्गुण प्रधान मान बैठते हैं, जब आप अपने निज के बारे में  इतनी. गलती कर सकते हैं तो यह बिलकुल आसान है कि दूसरे लोग जिन्हें आपको ठीक तरह से समझने का मौका नही मिला, गलती करते हों। जैसे आपने एक अच्छे प्रीतिभोज को दो उजड्डों की हरकतों और हलुआ में मिर्च पड जाने के कारण खराब ठहरा दिया था,वैसे ही यह भी संभव है कि दो-चार छोटी-मोटी बाहरी, आकस्मिक घटनाओं को देखकर उन लोगों ने कोई भ्रम धारणा बना ली हो और उसी झूठें विश्वास के कारण समय- समय पर आपकी योग्यता में अविश्वास प्रकट करते हों।
 
पूरी सावधानी के साथ, ठीक प्रकार छान-बीन करके किसी निर्णय पर पहुँचने की फुरसत लोगों को नहीं है, वे जल्दी में जो कुछ थोडा बहुत देख पाते हैं, उसी से अपनी धारण बनाते हैं। कहते हैं कि एक बार अंधों के सामने हाथी खड़ा किया गया। उन्होंने हाथी के एक दो अंगों को छुआ और अपनी अपूर्ण जानकारी के आधार पर बताया कि हाथी कैसा है? हाथी के एक अंग को ही वे लोग पूरा समझकर उसका वैसा रूप बताते थे। भले ही वे अंधे अपने विश्वास के अनुसार सच्चे हों, पर यह आवश्यक नहीं कि उनका कथन यथार्थ ही हो। एक पैर को पकड़ कर जिसने. यह कहा कि हाथी खंभे जैसा है, वह अंधा अपनी समझ से ठीक कहता है पर आप उसकी बात मानने के लिए बाध्य नहीं हैं। प्रत्यक्ष आँखों से यदि हाथी को असली रूप में देख रहे हैं तो आपका कर्त्तव्य है कि अंधों की बात को मानने से इंकार कर दें। कोई आदमी एक विशाल भवन के पिछवाड़े होकर आया-जाया करता है, पर वह उस भवन के पृष्ठ भाग की ही व्याख्या करेगा, उसने आगे का भीतर का भाग नहीं देखा है कभी उधर गया ही नहीं है तो कैसे बता सकता है कि यह भीतर, कैसा सुंदर बना हुआ है। पिछवाडे की टूटी दीवार तक ही उस दर्शक का ज्ञान सीमित है, वह तो उन्हीं बातों को कह सकता है।

प्रसिद्ध चित्रकार पाट्रोडी कोरडोना इतना मंदबुद्धि था कि उसे  गधे का सिर ' कह कर चिढाया जाता था। प्रसिद्ध गणितज्ञ सर आइजक न्यूटन अपने दर्जे में सबसे फिसड्डी लडका था। ऐकम क्लार्क के घर वाले उसे '' महामूढ़ '' कह कर पुकारते_ थे। नादयकार शैरीडन की माता से उसके अध्यापक ने कहा- ऐसे जड़ बुद्धि लड़के से मैं बाज आया, इसे घर ले जाइए। '' सर वाल्टर स्काट के अध्यापक ने अपना मत घोषित किया था कि ' यह लड़का जन्म भर बुद्ध रहेगा। ' लार्ड क्लाइव जिसने भारत में अँग्रेजी राज्य स्थापित किया, ऐसा मूढ़ बुद्धि था कि घर वाले उससे तंग आ गए थे और पीछा. छुडाने के लिए सात समुन्दर पार हिन्दुस्तान को भिजवा दिया था।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २६

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👉 भक्तिगाथा (भाग ११९)

भक्ति को किसी प्रमाण की आवश्यकता नही

हांलाकि देवर्षि अभी तक चुप थे, परन्तु उनकी इस चुप्पी को ऋषि विश्वामित्र ने तोड़ने का प्रयास करते हुए कहा- ‘‘देवर्षि! हम सभी को आपके नए भक्तिमन्त्र की प्रतीक्षा है।’’ ‘‘यह हमारा अहोभाग्य है ब्रह्मर्षि!’’ देवर्षि ने प्रसन्नतापूर्वक कहा और इसी के साथ वीणा की मधुर झंकृति के साथ उन्होंने अपने नए भक्तिसूत्र का सत्योच्चार किया-
‘प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात्’॥ ५९॥

क्योंकि भक्ति स्वयं प्रमाण स्वरूप है, इसके लिए अन्य किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।

देवर्षि का यह सूत्र सभी को बहुत भाया। परन्तु कोई कुछ बोला नहीं, सभी मौन बने रहे। इस बार महात्मा सत्यधृति भी शान्त रहे, सम्भवतः वह इस नए भक्तिमन्त्र का मनन करने लगे। उनको यूं मौन बैठे देख ब्रह्मर्षि विश्वामित्र से रहा न गया। उन्होंने अनुरोध व आग्रहपूर्ण स्वर में कहा- ‘‘हे महात्मन्! आप देवर्षि के इस सूत्र पर कुछ कहें।’’ विश्वामित्र के इस आग्रह पर महात्मा सत्यधृति ने विनम्रतापूर्ण स्वर में कहा- ‘‘हम पिछले कुछ सूत्रों पर अपनी सम्मति व अनुभव व्यक्त करते रहे हैं। इस बार कुछ कहने से कुछ सुनने की चाहत अधिक है।’’ इस बार वार्ता के सूत्र को ऋषि श्रेष्ठ वशिष्ठ ने पकड़ा और कहा- ‘‘हम सभी आपकी इस चाहत का सम्मान करते हैं। परन्तु आपसे कुछ और सुनने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहे। सम्भवतः मेरे इस कथन से अन्य सब भी, और भ्राता नारद भी सहमत हैं।’’ ‘‘निश्चय ही।’’ ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के इस कथन का सभी ने एक स्वर से अनुमोदन किया। देवर्षि नारद ने लगभग हँसते हुए कहा- ‘‘मेरी तो विशेष रूप से यह इच्छा है।’’

अब तो इतने प्रबल आग्रह व अनुरोध को स्वीकार करने के अलावा अन्य कोई उपाय न था। महात्मा सत्यधृति ने सम्पूर्ण विनयशीलता के साथ इसे स्वीकार तो किया, परन्तु साथ ही यह निवेदन भी किया कि इस सूत्र के  बाद मुझे भक्ति-श्रवण का सुअवसर प्रदान किया जाय। महात्मा सत्यधृति के इस कथन पर सब हँस पड़े और हास्य के स्वर में बोले- ‘‘महात्मन्! आपका आदेश सिर माथे पर किन्तु आज तो आप हमें श्रवण का सुअवसर प्रदान करें।’’ यह सुनकर सत्यधृति बोले- ‘‘आप सब तत्त्ववेत्ता, ज्ञानी, तपस्वी, योगी हैं। भक्ति की भावना आप सबके व्यक्तित्व में रची-बसी है। आप सभी का सान्निध्य मुझे एक साथ सुलभ हो सका, यही मेरा अहोभाग्य। सम्भवतः यह भी भक्ति के संस्पर्श का प्रभाव है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २३५

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