गुरुवार, 3 सितंबर 2020

👉 *** जिंदगी की कहानी ***

टॉल्सटॉय की प्रसिद्ध कहानी है कि एक आदमी के घर एक संन्यासी मेहमान हुआ – एक परिव्राजक। रात गपशप होने लगी; उस परिव्राजक ने कहा कि तुम यहाँ क्या छोटी-मोटी खेती में लगे हो। साइबेरिया में मैं यात्रा पर था तो वहाँ जमीन इतनी सस्ती है मुफ्त ही मिलती है। तुम यह जमीन छोड़-छाड़कर, बेच-बाचकर साइबेरिया चले जाओ। वहाँ हजारों एकड़ जमीन मिल जाएगी इतनी जमीन में। वहाँ करो फसलें और बड़ी उपयोगी जमीन है और लोग वहाँ के इतने सीधे-सादे हैं कि करीब-करीब मुफ्त ही जमीन दे देते हैं।
उस आदमी को वासना जगी। उसने दूसरे दिन ही सब बेच-बाचकर साइबेरिया की राह पकड़ी। जब पहुँचा तो उसे बात सच्ची मालूम पड़ी। उसने पूछा कि मैं जमीन खरीदना चाहता हूँ। तो उन्होंने कहा, जमीन खरीदने का तुम जितना पैसा लाए हो, रख दो; और जीवन का हमारे पास यही उपाय है बेचने का कि कल सुबह सूरज के ऊगते तुम निकल पड़ना और साँझ सूरज के डूबते तक जितनी जमीन तुम घेर सको घेर लेना।

बस चलते जाना… जितनी जमीन तुम घेर लो। साँझ सूरज के डूबते-डूबते उसी जगह पर लौट आना जहाँ से चले थे- बस यही शर्त है। जितनी जमीन तुम चल लोगे, उतनी जमीन तुम्हारी हो जाएगी।

रात-भर तो सो न सका वह आदमी। तुम भी होते तो न सो सकते; ऐसे क्षणों में कोई सोता है ? रातभर योजनाएँ बनाता रहा कि कितनी जमीन घेर लूँ। सुबह ही भागा। गाँव इकट्ठा हो गया था। सुबह का सूरज ऊगा, वह भागा। उसने साथ अपनी रोटी भी ले ली थी, पानी का भी इंतजाम कर लिया था। रास्ते में भूख लगे, प्यास लगे तो सोचा था चलते ही चलते खाना भी खा लूँगा, पानी भी पी लूँगा। रुकना नहीं है; चलना क्या है; दौड़ना है। दौड़ना शुरू किया, क्योंकि चलने से तो आधी ही जमीन कर पाऊँगा, दौड़ने से दुगनी हो सकेगी – भागा …भागा।

सोचा था कि ठीक बारह बजे लौट पड़ूँगा; ताकि सूरज डूबते – डूबते पहुँच जाऊँ। बारह बज गए, मीलों चल चुका है, मगर वासना का कोई अंत है? उसने सोचा कि बारह तो बज गए, लौटना चाहिए; लेकिन सामने और उपजाऊ जमीन, और उपजाऊ जमीन…थोड़ी सी और घेर लूँ। जरा तेजी से दौड़ना पड़ेगा लौटते समय – इतनी ही बात है, एक ही दिन की तो बात है, और जरा तेजी से दौड़ लूँगा।

उसने पानी भी न पीया; क्योंकि रुकना पड़ेगा उतनी देर – एक दिन की ही तो बात है, फिर कल पी लेंगे पानी, फिर जीवन भर पीते रहेंगे। उस दिन उसने खाना भी न खाया। रास्ते में उसने खाना भी फेंक दिया, पानी भी फेंक दिया, क्योंकि उनका वजन भी ढोना पड़ा रहा है, इसलिए दौड़ ठीक से नहीं पा रहा है। उसने अपना कोट भी उतार दिया, अपनी टोपी भी उतार दी, जितना निर्भार हो सकता था हो गया।

एक बज गया, लेकिन लौटने का मन नहीं होता, क्योंकि आगे और-और सुंदर भूमि आती चली जाती है। मगर फिर लौटना ही पड़ा; दो बजे तक वो लौटा। अब घबड़ाया। सारी ताकत लगाई; लेकिन ताकत तो चुकने के करीब आ गई थी। सुबह से दौड़ रहा था, हाँफ रहा था, घबरा रहा था कि पहुँच पाऊँगा सूरज डूबते तक कि नहीं। सारी ताकत लगा दी। पागल होकर दौड़ा। सब दाँव पर लगा दिया। और सूरज डूबने लगा…। ज्यादा दूरी भी नहीं रह गई है; लोग दिखाई पड़ने लगे। गाँव के लोग खड़े हैं और आवाज दे रहे हैं कि आ जाओ, आ जाओ! उत्साह दे रहे हैं, भागे आओ! अजीब सीधे-सादे लोग हैं – सोचने लगा मन में; इनको तो सोचना चाहिए कि मैं मर ही जाऊँ, तो इनको धन भी मिल जाए और जमीन भी न जाए। मगर वे बड़ा उत्साह दे रहे हैं कि भागे आओ!

उसने आखिरी दम लगा दी – भागा – भागा…। सूरज डूबने लगा; इधर सूरज डूब रहा है, उधर वो भाग रहा है…। सूरज डूबते – डूबते बस जाकर गिर पड़ा। कुछ पाँच – सात गज की दूरी रह गई है, घिसटने लगा।

अभी सूरज की आखिरी कोर क्षितिज पर रह गई. घिसटने लगा। और जब उसका हाथ उस जमीन के टुकड़े पर पहुँचा, जहाँ से भागा था, उस खूँटी पर, सूरज डूब गया। वहाँ सूरज डूबा, यहाँ यह आदमी भी मर गया। इतनी मेहनत कर ली! शायद हृदय कर दौरा पड़ गया। और सारे गाँव के सीधे – सादे लोग जिनको वह समझाता था, हँसने लगे और एक – दूसरे से बात करने लगे!

ये पागल आदमी आते ही जाते हैं! इस तरह के पागल लोग आते ही रहते हैं! यह कोई नई घटना न थी; अक्सर लोग आ जाते थे खबरें सुनकर, और इसी तरह मरते थे। यह कोई अपवाद नहीं था; यही नियम था। अब तक ऐसा एक भी आदमी नहीं आया था, जो घेरकर जमीन का मालिक बन पाया हो।

यह कहानी तुम्हारी कहानी है, तुम्हारी जिंदगी की कहानी है, सबकी जिंदगी की कहानी है। यही तो तुम कर रहे हो – दौड़ रहे हो कि कितनी जमीन घेर लें! बारह भी बज जाते हैं, दोपहर भी आ जाती है, लौटने का भी समय होने लगता है – मगर थोड़ा और दौड़ लें! न भूख की फिक्र है, न प्यास की फिक्र है।

जीने का समय कहाँ है; पहले जमीन घेर लें, पहले जितोड़ी भर लें, पहले बैंक में रुपया इकट्ठा हो जाए, फिर जी लेंगे, फिर बाद में जी लेंगे, एक ही दिन का तो मामला है। और कभी कोई नहीं जी पाता। गरीब मर जाते हैं भूखे; अमीर मर जाते हैं भूखे, कभी कोई नहीं जी पाता। जीने के लिए थोड़ी विश्रांति चाहिए। जीने के लिए थोड़ी समझ चाहिए। जीवन मुफ्त नहीं मिलता।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १७)

जीवन कमल खिला सकती हैं—पंच वृत्तियाँ

ऐसा अनूठा रूप परिवर्तित करने वाली वृत्तियाँ हैं कौन सी, इस तत्व को छठे सूत्र में महर्षि पतंजलि इस तत्त्व को और भी अधिक सुस्पष्ट करते हैं। इस सूत्र में वह कहते हैं-
प्रमाणविपर्यय विकल्पनिद्रास्मृतयः॥ १/६॥
  
यानि कि ये वृत्तियां हैं- प्रमाण (सम्यक् ज्ञान), विपर्यय (मिथ्याज्ञान), विकल्प (कल्पना), निद्रा और स्मृति। ये पाँचों वृत्तियाँ मन की पाँच सम्भावनाएँ हैं, मन के पाँच रहस्य हैं। इन्हें जान-समझ लेने पर समूचे मन को जान-समझ लिया जाता है।  इन पाँच वृत्तियों को मन की पाँच शक्तियाँ भी कहा जा सकता है, जिनके सही सदुपयोग से जीवन सहस्रदल कमल की भांति पुष्पित एवं सुरभित हो उठता है।
  
इस बारे में परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि जीवन को समझना है, तो मन को समझना होगा और मन को समझने के लिए मन की पाँचों वृत्तियों को जान लेना बहुत जरूरी है। तो शुरूआत पहली वृत्ति से करते हैं। यह पहली वृत्ति है ‘प्रमाण’ यानि कि सम्यक् ज्ञान। ‘प्रमाण’ संस्कृत भाषा का बहुत गहरा शब्द है। इसकी गहराई इस कदर है कि किसी भी अन्य भाषा में इसका एकदम सही अनुवाद सम्भव नहीं। यह जो सम्यक् ज्ञान कहा गया, वह ‘प्रमाण’ का सही अर्थ नहीं, बल्कि अर्थ की हल्की सी छाया भर है। दरअसल प्रमाण मूल शब्द ‘प्रमा’ से आया है। इसका भावार्थ है- सत्य-अनुभव। इस प्रमा का करण यानि की प्रमाण। सार संक्षेप में प्रमाण को यथार्थ अनुभव सा सत्य अनुभव करने की शक्ति कहा जा सकता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ३५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 अध्यात्म-लक्ष और उसका आवश्यक कर्तृत्व (भाग १)

आत्म-कल्याण का लक्ष प्राप्त करने के लिए आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास की प्रक्रिया को अपनाना आवश्यक है। जप, तप, ध्यान-भजन की सारी आध्यात्मिक विधि व्यवस्था इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए है। पर यह उद्देश्य जिन साधनों से प्राप्त होता है वह शरीर, मन और समाज हैं। इनके सुव्यवस्थित रहे बिना आत्म-कल्याण का लक्ष प्राप्त होना तो दूर जीवित रहने के दिन कटने भी कठिन हो जाते हैं। साधना का प्रथम सोपान, बाह्य-जीवन को सुव्यवस्थित बनाते हुए आत्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना है। इस प्रथम कक्षा को उत्तीर्ण किये बिना जो लोग छलाँग मारकर ऊपर चोटी पर चढ़ना चाहते हैं, सीधे प्रत्याहार, समाधि, चक्र-वेधन, कुण्डलिनी जागरण की बात सोचते हैं उन्हें असफलता ही मिलती है। आत्मिक पूर्णता का लक्ष मलीन और दूषित साधनों से कैसे प्राप्त किया जा सकेगा?

लक्ष की ओर गति

स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज के सहारे ही आत्मा अपने लक्ष की ओर गतिवान होती है। इसलिए प्रगति की इस पहली मंजिल को हमें सावधानी से पूरा करना चाहिए। इसके बाद अगली मंजिलें बहुत ही सरल हो जाती हैं। प्रथम कक्षा कमजोर रहे तो आगे का काम कैसे चलेगा? जिसके पैर ही कमजोर हैं उससे दौड़ कैसे लगाई जा सकेगी? जिसने प्राथमिक पाठशाला के स्वर, व्यंजन, गिनती, पहाड़े ही ठीक तरह याद नहीं किए हैं, उसके लिए एम.ए. की उत्तीर्णता का स्वप्न, काल्पनिक ही रह जाएगा।

योग-साधना में पहले यम-नियमों की साधना करनी पड़ती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह—यम और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान—नियम इन दसों बातों पर बारीकी से ध्यान दिया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि इनका उद्देश्य शारीरिक, मानसिक और सामाजिक सुव्यवस्था ही है। ब्रह्मचर्य, शौच और तप का कार्यक्रम शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से रखा गया है। इन्द्रियों का संयम ब्रह्मचर्य के अन्तर्गत आता है। शरीर, वस्त्र, घर एवं उपकरणों की स्वच्छता का तात्पर्य शौच है। तप का अर्थ है शारीरिक और मानसिक श्रम—आसन, प्राणायाम, व्यायाम, तितिक्षा, कष्ट-सहिष्णुता आदि। इन्हीं या ऐसे ही सद्गुणों से स्वास्थ्य की रक्षा होती है। सत्य, सन्तोष, स्वाध्याय और ईश्वर उपासना यह चार आधार मानसिक स्वच्छता के लिए हैं। छल-कपट, दंभ-पाखंड आदि कुविचारों का शमन सत्य-निष्ठा से होता है। सन्तोषी को तृष्णाऐं और वासनाऐं क्यों सतावेंगी? स्वाध्याय और मनन-चिन्तन करते रहने से मन की मलीनता हटेगी ही। ईश्वर का उपासक सर्वत्र उस अंतर्यामी को उपस्थित देखेगा तो क्यों पाप में प्रवृत्त होगा और क्यों भय, चिन्ता, शोक, निराशा आदि में डूबेगा? इसी प्रकार सामाजिक सुव्यवस्था के लिए अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह हैं। दूसरों में अपनी ही आत्मा देखकर उनसे प्रेम, सहयोग एवं उदारता का व्यवहार करना अहिंसा है। अपनी न्यायेपार्जित कमाई पर ही गुजारा करना अस्तेय है और निर्वाह की अनिवार्य आवश्यकताओं से बची हुई प्रतिभा, विद्या, क्षमता, समय एवं सम्पत्ति को समाज के हित में वापिस लौटा देना, दान कर देना अपरिग्रह है। इन्हीं तथ्यों पर कोई समाज फलता-फूलता और संगठित रहता है। यम और नियम योग-साधना के प्राथमिक कार्यक्रम हैं। योग से ही आत्मा की प्राप्ति संभव है। इसलिए लक्ष पूर्ति की सच्ची अभिलाषा जिन्हें है उन्हें सच्चा मार्ग भी अपनाना पड़ता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 34

👉 Heard the Bhagwat four times

Parikshit Maharaj heard Bhagwat Puran from Shukdeo and attained salvation. A rich man on hearing this, developed great respect for the Bhagwat, and got eager to listen to it from a Brahmin to get liberated.

He searched and found a profound priest of Bhagwat. He told him his intention of hearing the Bhagwat. The priest told him that this is Kaliyug, all the pious activities in this age is reduced four times, thus he had to listen to it for four times. The reason behind the priest’s proposition was to get enough money out of the deal. He gave the fees to the priest and heard four Bhagwat lectures but it was of no use. The man then met a higher level of saint. He asked him, how Parikshit could get and he didn’t after listening to the Bhagwat.

The saint told him, that Parikshit Maharaj had known the death to be imminent and was completely detached from the world while hearing and Shukdeo Muni was narrating without the feeling of any kind of greed.

Whoever has got the knowledge in the form of an advice, free of any kind of self vested interests, that has produced desired results.

📖 Pragya Puran Stories

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