गुरुवार, 8 दिसंबर 2016
👉 सतयुग की वापसी (भाग 4)
🌹 लेने के देने क्यों पड़ रहे हैं?
🔴 आश्चर्य इस बात का है कि आखिर यह सब हो क्यों रहा है एवं कैसे हो रहा है? इसे कौन करा रहा है? आखिर वह चतुराई कैसे चुक गई, जो बहुत कुछ पाने का सरंजाम जुटाकर अलादीन का नया चिराग जलाने चली थी। पहुँचना तो उसे प्रकृति विजय के लक्ष्य तक था, पर यह हुआ क्या कि तीनों लोक तीन डगों में नाप लेने की दावेदारी, करारी मोच लगने पर सिहरकर बीच रास्ते में ही पसर गई। उसे भी आगे कुआँ पीछे खाई की स्थिति में आगे पग बढ़ाते नहीं बन रहा है। साँप-छछून्दर की इस स्थिति से कैसे उबरा जाए, जिसमें न निगलते बन रहा है और न उगलते।
🔵 फूटे घड़े में पानी भरने पर वह देर तक ठहरता नहीं है। चलनी में दूध दुहने पर दुधारू गाय पालने वाला भी खिन्न-विपन्न रहता है। ऐसी ही कुछ भूल मनुष्य से भी बन पड़ी है, जिसके कारण अत्यन्त परिश्रमपूर्वक जुटाई गई उपलब्धियों को हस्तगत करने पर भी, लेने के देने पड़ रहे हैं, परन्तु स्मरण रहे कि असमंजस की स्थिति लम्बे समय तक टिकती नहीं है। मनुष्य की बुद्धि इतनी कमजोर नहीं है कि वह उत्पन्न संकटों का कारण न खोज सके और शान्तचित्त होने पर उनके समाधान न खोज सके।
🔴 बड़प्पन को कमाना ही पर्याप्त नहीं होता, उसे सुस्थिर रखने और सदुपयोग द्वारा लाभान्वित होने के लिए और समझदारी, सतर्कता और सूझबूझ चाहिए। भाव-संवेदनाओं से भरे-पूरे व्यक्ति ही उस रीति-नीति को समझते हैं, जिनके आधार पर सम्पदाओं का सदुपयोग करते बन पड़ता है। अपने समय के लोग इन्हीं भाव-संवेदनाओं का महत्त्व भूल बैठे और उन्हें गिराते-गँवाते चले जा रहे हैं। यही है वह कारण, जो उपलब्धियों को भी विपत्तियों में परिणत करके रख देता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 आश्चर्य इस बात का है कि आखिर यह सब हो क्यों रहा है एवं कैसे हो रहा है? इसे कौन करा रहा है? आखिर वह चतुराई कैसे चुक गई, जो बहुत कुछ पाने का सरंजाम जुटाकर अलादीन का नया चिराग जलाने चली थी। पहुँचना तो उसे प्रकृति विजय के लक्ष्य तक था, पर यह हुआ क्या कि तीनों लोक तीन डगों में नाप लेने की दावेदारी, करारी मोच लगने पर सिहरकर बीच रास्ते में ही पसर गई। उसे भी आगे कुआँ पीछे खाई की स्थिति में आगे पग बढ़ाते नहीं बन रहा है। साँप-छछून्दर की इस स्थिति से कैसे उबरा जाए, जिसमें न निगलते बन रहा है और न उगलते।
🔵 फूटे घड़े में पानी भरने पर वह देर तक ठहरता नहीं है। चलनी में दूध दुहने पर दुधारू गाय पालने वाला भी खिन्न-विपन्न रहता है। ऐसी ही कुछ भूल मनुष्य से भी बन पड़ी है, जिसके कारण अत्यन्त परिश्रमपूर्वक जुटाई गई उपलब्धियों को हस्तगत करने पर भी, लेने के देने पड़ रहे हैं, परन्तु स्मरण रहे कि असमंजस की स्थिति लम्बे समय तक टिकती नहीं है। मनुष्य की बुद्धि इतनी कमजोर नहीं है कि वह उत्पन्न संकटों का कारण न खोज सके और शान्तचित्त होने पर उनके समाधान न खोज सके।
🔴 बड़प्पन को कमाना ही पर्याप्त नहीं होता, उसे सुस्थिर रखने और सदुपयोग द्वारा लाभान्वित होने के लिए और समझदारी, सतर्कता और सूझबूझ चाहिए। भाव-संवेदनाओं से भरे-पूरे व्यक्ति ही उस रीति-नीति को समझते हैं, जिनके आधार पर सम्पदाओं का सदुपयोग करते बन पड़ता है। अपने समय के लोग इन्हीं भाव-संवेदनाओं का महत्त्व भूल बैठे और उन्हें गिराते-गँवाते चले जा रहे हैं। यही है वह कारण, जो उपलब्धियों को भी विपत्तियों में परिणत करके रख देता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 प्रेम, पवित्रता, क्षमा और सद्भावना
🔵 हजरत मोहम्मद जब भी नमाज पढ़ने मस्जिद जाते तो उन्हें नित्य ही एक वृद्धा के घर के सामने से निकलना पड़ता था। वह वृद्धा अशिष्ट, कर्कश और क्रोधी स्वभाव की थी। जब भी मोहम्मद साहब उधर से निकलते, वह उन पर कूड़ा-करकट फेंक दिया करती थी। मोहम्मद साहब बगैर कुछ कहे अपने कपड़ों से कूड़ा झाड़कर आगे बढ़ जाते। प्रतिदिन की तरह जब वे एक दिन उधर से गुजरे तो उन पर कूड़ा आकर नहीं गिरा। उन्हें कुछ हैरानी हुई, किंतु वे आगे बढ़ गए।
🔴 अगले दिन फिर ऐसा ही हुआ तो मोहम्मद साहब से रहा नहीं गया। उन्होंने दरवाजे पर दस्तक दी। वृद्धा ने दरवाजा खोला। दो ही दिन में बीमारी के कारण वह अत्यंत दुर्बल हो गई थी। मोहम्मद साहब उसकी बीमारी की बात सुनकर हकीम को बुलाकर लाए और उसकी दवा आदि की व्यवस्था की। उनकी सेवा और देखभाल से वृद्धा शीघ्र ही स्वस्थ हो गई।
🔵 अंतिम दिन जब वह अपने बिस्तर से उठ बैठी तो मोहम्मद साहब ने कहा- अपनी दवाएं लेती रहना और मेरी जरूरत हो तो मुझे बुला लेना। वृद्धा रोने लगी। मोहम्मद साहब ने उससे रोने का कारण पूछा तो वह बोली, मेरे र्दुव्यवहार के लिए मुझे माफ कर दोगे? वे हंसते हुए कहने लगे- भूल जाओ सब कुछ और अपनी तबीयत सुधारो। वृद्धा बोली- मैं क्या सुधारूंगी तबीयत? तुमने तबीयत के साथ-साथ मुझे भी सुधार दिया है। तुमने अपने प्रेम और पवित्रता से मुझे सही मार्ग दिखाया है। मैं आजीवन तुम्हारी अहसानमंद रहूंगी।
🔴 जिसने स्वयं को प्रेम, क्षमा व सद्भावना में डुबोकर पवित्र कर लिया, उसने संत-महात्माओं से भी अधिक प्राप्त कर लिया।
🔴 अगले दिन फिर ऐसा ही हुआ तो मोहम्मद साहब से रहा नहीं गया। उन्होंने दरवाजे पर दस्तक दी। वृद्धा ने दरवाजा खोला। दो ही दिन में बीमारी के कारण वह अत्यंत दुर्बल हो गई थी। मोहम्मद साहब उसकी बीमारी की बात सुनकर हकीम को बुलाकर लाए और उसकी दवा आदि की व्यवस्था की। उनकी सेवा और देखभाल से वृद्धा शीघ्र ही स्वस्थ हो गई।
🔵 अंतिम दिन जब वह अपने बिस्तर से उठ बैठी तो मोहम्मद साहब ने कहा- अपनी दवाएं लेती रहना और मेरी जरूरत हो तो मुझे बुला लेना। वृद्धा रोने लगी। मोहम्मद साहब ने उससे रोने का कारण पूछा तो वह बोली, मेरे र्दुव्यवहार के लिए मुझे माफ कर दोगे? वे हंसते हुए कहने लगे- भूल जाओ सब कुछ और अपनी तबीयत सुधारो। वृद्धा बोली- मैं क्या सुधारूंगी तबीयत? तुमने तबीयत के साथ-साथ मुझे भी सुधार दिया है। तुमने अपने प्रेम और पवित्रता से मुझे सही मार्ग दिखाया है। मैं आजीवन तुम्हारी अहसानमंद रहूंगी।
🔴 जिसने स्वयं को प्रेम, क्षमा व सद्भावना में डुबोकर पवित्र कर लिया, उसने संत-महात्माओं से भी अधिक प्राप्त कर लिया।
👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 28)
🌹 क्रोध स्वयं अपने लिए ही घातक
🔵 मस्तिष्कीय ज्वर की भांति ही आवेश एक ऐसी उत्तेजना है जो पैर पटकने, सिर धुनने की तरह कुछ न कुछ अनर्थ करके ही विराम लेता है। आवेशग्रस्त व्यक्ति परिस्थितियों को अपने अनुकूल-अनुरूप ही देखना चाहता है, पर यह व्यवहार में संभव नहीं। हर व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्र प्रकृति और विचारधारायें हैं। इसी प्रकार परिस्थितियां अनेक उलझनों के बीच निकलती हुई अपना ढांचा बनाती हैं, उन पर इतना अधिकार किसी का नहीं कि इच्छा मात्र से अनुकूलन को आमंत्रित कर सके और उसे सदा वशवर्ती बनाये रह सके।
🔴 आतुर व्यक्ति में इतना धैर्य नहीं होता कि वह परिस्थितियों की अनुकूलता के लिए आवश्यक चिंतन या प्रयास कर सके। वह किसी तानाशाह की तरह तुरन्त अपनी इच्छा या आकांक्षा को कार्यान्वित होते देखना चाहते हैं, पर चाहने भर से आकांक्षा की पूर्ति कहां होती है।
🔵 होना यह चाहिए कि व्यक्ति धैर्य रखे और तालमेल बिठाने के उपाय करे। इच्छित परिस्थितियों के बिना काम चलाये अथवा इतना धैर्य रखे कि परिवर्तन में जो समय लगे उसकी प्रतीक्षा बन पड़े। उत्तेजना को यह समझ करके भी शान्त किया जा सकता है कि संसार केवल हमारी ही इच्छा के अनुरूप चलने के लिए नहीं बनाया गया है, उनके साथ और भी कितने ही प्रयोजन जुड़े हुए हैं। उनमें से जितनी सुविधायें जब मिल सकें तब तक के लिए धैर्य रखना चाहिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 मस्तिष्कीय ज्वर की भांति ही आवेश एक ऐसी उत्तेजना है जो पैर पटकने, सिर धुनने की तरह कुछ न कुछ अनर्थ करके ही विराम लेता है। आवेशग्रस्त व्यक्ति परिस्थितियों को अपने अनुकूल-अनुरूप ही देखना चाहता है, पर यह व्यवहार में संभव नहीं। हर व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्र प्रकृति और विचारधारायें हैं। इसी प्रकार परिस्थितियां अनेक उलझनों के बीच निकलती हुई अपना ढांचा बनाती हैं, उन पर इतना अधिकार किसी का नहीं कि इच्छा मात्र से अनुकूलन को आमंत्रित कर सके और उसे सदा वशवर्ती बनाये रह सके।
🔴 आतुर व्यक्ति में इतना धैर्य नहीं होता कि वह परिस्थितियों की अनुकूलता के लिए आवश्यक चिंतन या प्रयास कर सके। वह किसी तानाशाह की तरह तुरन्त अपनी इच्छा या आकांक्षा को कार्यान्वित होते देखना चाहते हैं, पर चाहने भर से आकांक्षा की पूर्ति कहां होती है।
🔵 होना यह चाहिए कि व्यक्ति धैर्य रखे और तालमेल बिठाने के उपाय करे। इच्छित परिस्थितियों के बिना काम चलाये अथवा इतना धैर्य रखे कि परिवर्तन में जो समय लगे उसकी प्रतीक्षा बन पड़े। उत्तेजना को यह समझ करके भी शान्त किया जा सकता है कि संसार केवल हमारी ही इच्छा के अनुरूप चलने के लिए नहीं बनाया गया है, उनके साथ और भी कितने ही प्रयोजन जुड़े हुए हैं। उनमें से जितनी सुविधायें जब मिल सकें तब तक के लिए धैर्य रखना चाहिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 गृहस्थ-योग (भाग 28)
🌹 गृहस्थ योग के कुछ मन्त्र
🔵 गृहस्थ योग के साधक के मन में यह विचारधारा चलती रहनी चाहिये कि— ‘‘यह परिवार मेरा स्थान क्षेत्र है। इस वाटिका को सब प्रकार सुन्दर, सुरभित और पल्लवित बनाने के लिये सच्चे हृदय से सदा शक्ति भर प्रयत्न करते रहना मेरा कर्मकाण्ड है। भगवान ने जिस वाटिका को सींचने का भार मुझे दिया है, उसे ठीक तरह सींचते रहना मेरी ईश्वर परायणता है। घर का कोई भी सदस्य ऐसा हीन दर्जे का नहीं है जिसे मैं तुच्छ समझूं, उपेक्षा करूं या सेवा से जी चुराऊं, मैं मालिक, नेता, मुखिया या कमाऊं होने का अहंकार नहीं करता यह मेरा आत्म निग्रह है।
🔴 हर एक सदस्य के विकास में अपनी सेवाएं लगाते रहना मेरा परमार्थ है। बदले की जरा सी भी इच्छा न रखकर विशुद्ध कर्तव्य भाव से सेवा में तत्पर रहना मेरा आत्म त्याग है। अपनी सुख-सुविधाओं की परवाह न करते हुए, औरों को सुख सुविधा बढ़ाने का प्रयत्न करना मेरा तप है। घर के हर सदस्य को सद्गुणी, सत् स्वभाव का, सदाचारी एवं धर्म परायण बना कर विश्व की सुख शान्ति में वृद्धि करना मेरा यज्ञ है। सबके हृदयों पर जिसका मौन उपदेश हो, अनुकरण से सुसंस्कार बनें, अपना आचरण ऐसा पवित्र एवं आदर्शमय रखना मेरा व्रत है।
🔵 धर्म उपार्जित अन्न से जीवन निर्वाह करना और कराना यह मेरा संयम है। प्रेम उदारता सहानुभूति की भावना से ओत-प्रोत रहना और रखना, प्रसन्नता, आनन्द और एकता की वृद्धि करना मेरी आराधना है। मैं अपने गृह-मन्दिर में भगवान की चलती फिरती प्रतिमाओं के प्रति अगाध भक्ति भावना रखता हूं। सद्गुण, सत् स्वभाव और सत् आचरण के दिव्य श्रृंगार से इन प्रतिमाओं को सुसज्जित करने का प्रयत्न ही मेरी पूजा है। मेरा साधन सच्चा है, साधना के प्रति मेरी भावना सच्ची है, अपनी आत्मा के सम्मुख मैं सच्चा हूं। सफलता असफलता की जरा भी परवाह न करके सच्चे निष्काम कर्मयोगी की भांति मैं अपने प्रयत्न की सचाई में संतोष अनुभव करता हूं। मैं सत्य हूं, मेरी साधना सत्य है। मैंने सत्य का आश्रय ग्रहण किया है उसे सत्यता पूर्वक निबाहने का प्रयत्न करूंगा।’’
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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🔵 गृहस्थ योग के साधक के मन में यह विचारधारा चलती रहनी चाहिये कि— ‘‘यह परिवार मेरा स्थान क्षेत्र है। इस वाटिका को सब प्रकार सुन्दर, सुरभित और पल्लवित बनाने के लिये सच्चे हृदय से सदा शक्ति भर प्रयत्न करते रहना मेरा कर्मकाण्ड है। भगवान ने जिस वाटिका को सींचने का भार मुझे दिया है, उसे ठीक तरह सींचते रहना मेरी ईश्वर परायणता है। घर का कोई भी सदस्य ऐसा हीन दर्जे का नहीं है जिसे मैं तुच्छ समझूं, उपेक्षा करूं या सेवा से जी चुराऊं, मैं मालिक, नेता, मुखिया या कमाऊं होने का अहंकार नहीं करता यह मेरा आत्म निग्रह है।
🔴 हर एक सदस्य के विकास में अपनी सेवाएं लगाते रहना मेरा परमार्थ है। बदले की जरा सी भी इच्छा न रखकर विशुद्ध कर्तव्य भाव से सेवा में तत्पर रहना मेरा आत्म त्याग है। अपनी सुख-सुविधाओं की परवाह न करते हुए, औरों को सुख सुविधा बढ़ाने का प्रयत्न करना मेरा तप है। घर के हर सदस्य को सद्गुणी, सत् स्वभाव का, सदाचारी एवं धर्म परायण बना कर विश्व की सुख शान्ति में वृद्धि करना मेरा यज्ञ है। सबके हृदयों पर जिसका मौन उपदेश हो, अनुकरण से सुसंस्कार बनें, अपना आचरण ऐसा पवित्र एवं आदर्शमय रखना मेरा व्रत है।
🔵 धर्म उपार्जित अन्न से जीवन निर्वाह करना और कराना यह मेरा संयम है। प्रेम उदारता सहानुभूति की भावना से ओत-प्रोत रहना और रखना, प्रसन्नता, आनन्द और एकता की वृद्धि करना मेरी आराधना है। मैं अपने गृह-मन्दिर में भगवान की चलती फिरती प्रतिमाओं के प्रति अगाध भक्ति भावना रखता हूं। सद्गुण, सत् स्वभाव और सत् आचरण के दिव्य श्रृंगार से इन प्रतिमाओं को सुसज्जित करने का प्रयत्न ही मेरी पूजा है। मेरा साधन सच्चा है, साधना के प्रति मेरी भावना सच्ची है, अपनी आत्मा के सम्मुख मैं सच्चा हूं। सफलता असफलता की जरा भी परवाह न करके सच्चे निष्काम कर्मयोगी की भांति मैं अपने प्रयत्न की सचाई में संतोष अनुभव करता हूं। मैं सत्य हूं, मेरी साधना सत्य है। मैंने सत्य का आश्रय ग्रहण किया है उसे सत्यता पूर्वक निबाहने का प्रयत्न करूंगा।’’
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 41)
🌹 इन कुरीतियों को हटाया जाय
🔵 56. बाल विवाह और अनमेल विवाह— बाल विवाहों की भर्त्सना की जाय और उनकी हानियां जनता को समझाई जाय। स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, आगामी पीढ़ी एवं जीवन विकास के प्रत्येक क्षेत्र पर इनका बुरा असर पड़ता है। लड़की-लड़के जब तक गृहस्थ का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर संभालने लायक न हों तब तक उनके विवाह नहीं होने चाहिए। इस संबंध में जल्दी करना अपने बालकों का भारी अहित करना ही है। अशिक्षित और निम्न स्तर के लोगों में अभी भी बाल विवाह का बहुत प्रचलन है। उन्हें समझाने-बुझाने से या कानूनी भय बता कर इस बुराई से विरत करना चाहिए। अनमेल विवाहों को भी रोका जाना और उनके विरुद्ध वातावरण बनाना आवश्यक है।
🔴 57. भिक्षा व्यवसाय की भर्त्सना— समर्थ व्यक्ति के लिये भिक्षा मांगना उसके आत्म गौरव और स्वाभिमान के सर्वथा विरुद्ध है। आत्म गौरव खोकर मनुष्य पतन की ओर ही चलता है। खेद है कि भारतवर्ष में यह वृत्ति बुरी तरह बढ़ी है और उसके कारण असंख्य लोगों का मानसिक स्तर अधोगामी बना है।
🔵 जो लोग सर्वथा अपंग असमर्थ हैं, जिनके परिजन या सहायक नहीं, उनकी आजीविका का प्रबन्ध सरकार को या समाज के दान-संस्थानों को स्वयं करना चाहिए, जिससे इन अपंग लोगों को बार-बार हाथ पसार कर अपना स्वाभिमान न खोना पड़े और बचे हुए समय में कोई उपयोगी कार्य कर सकें। अच्छा हो ऐसी अपंग संस्थाएं जगह-जगह खुल जांय और उदार लोग उन्हीं के माध्यम से वास्तविक दीन-दुखियों की सहायता करें।
🔴 बहानेबाज समर्थ लोगों को भिक्षा नहीं देनी चाहिए। इससे आलस और प्रमाद बढ़ता है, जनता को अनावश्यक भार सहना पड़ता है और आडम्बरी लोग दुर्गुणों से ग्रस्त होकर तरह-तरह से जनता को ठगते एवं परेशान करते हैं। भजन का उद्देश्य लेकर चलने वालों के लिए भी यही उचित है कि वे अपनी आजीविका स्वयं कमायें और बाकी समय में भजन करें।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 56. बाल विवाह और अनमेल विवाह— बाल विवाहों की भर्त्सना की जाय और उनकी हानियां जनता को समझाई जाय। स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, आगामी पीढ़ी एवं जीवन विकास के प्रत्येक क्षेत्र पर इनका बुरा असर पड़ता है। लड़की-लड़के जब तक गृहस्थ का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर संभालने लायक न हों तब तक उनके विवाह नहीं होने चाहिए। इस संबंध में जल्दी करना अपने बालकों का भारी अहित करना ही है। अशिक्षित और निम्न स्तर के लोगों में अभी भी बाल विवाह का बहुत प्रचलन है। उन्हें समझाने-बुझाने से या कानूनी भय बता कर इस बुराई से विरत करना चाहिए। अनमेल विवाहों को भी रोका जाना और उनके विरुद्ध वातावरण बनाना आवश्यक है।
🔴 57. भिक्षा व्यवसाय की भर्त्सना— समर्थ व्यक्ति के लिये भिक्षा मांगना उसके आत्म गौरव और स्वाभिमान के सर्वथा विरुद्ध है। आत्म गौरव खोकर मनुष्य पतन की ओर ही चलता है। खेद है कि भारतवर्ष में यह वृत्ति बुरी तरह बढ़ी है और उसके कारण असंख्य लोगों का मानसिक स्तर अधोगामी बना है।
🔵 जो लोग सर्वथा अपंग असमर्थ हैं, जिनके परिजन या सहायक नहीं, उनकी आजीविका का प्रबन्ध सरकार को या समाज के दान-संस्थानों को स्वयं करना चाहिए, जिससे इन अपंग लोगों को बार-बार हाथ पसार कर अपना स्वाभिमान न खोना पड़े और बचे हुए समय में कोई उपयोगी कार्य कर सकें। अच्छा हो ऐसी अपंग संस्थाएं जगह-जगह खुल जांय और उदार लोग उन्हीं के माध्यम से वास्तविक दीन-दुखियों की सहायता करें।
🔴 बहानेबाज समर्थ लोगों को भिक्षा नहीं देनी चाहिए। इससे आलस और प्रमाद बढ़ता है, जनता को अनावश्यक भार सहना पड़ता है और आडम्बरी लोग दुर्गुणों से ग्रस्त होकर तरह-तरह से जनता को ठगते एवं परेशान करते हैं। भजन का उद्देश्य लेकर चलने वालों के लिए भी यही उचित है कि वे अपनी आजीविका स्वयं कमायें और बाकी समय में भजन करें।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 11)
🌹 आकस्मिक सुख-दुःख
🔵 सही बात को न समझने के कारण लोगों के हृदयों में ऐसे ऊटपटाँग विश्वास घर जमा लेते हैं। अनेक व्यक्ति तो भाग्य की वेदी पर कर्तव्य की बलि चढ़ा देते हैं। उनका विश्वास होता है कि इस जीवन में भी हानि-लाभ होगा, वह भाग्य के अनुसार होगा। अब जो कर्म किए जा रहे हैं, उनका फल अगले जन्म में भले मिले, पर यह जीवन तो प्रारब्ध के रस्सों में ही जकड़ा हुआ है। जब उपाय करने, प्रयत्न या उद्योग करने की बात चलती है, तो वे यही कहते हैं कि जो भाग्य में लिखा होगा सो होगा, ब्रह्मा की लकीर को कौन मेट सकता है, जो ईश्वर को करनी होगी वह होकर रहेगी, होनी बड़ी प्रबल है, इन शब्दों का प्रयोग वास्तव में इसलिए है कि जब आकस्मिक दुर्घटना पर अपना वश नहीं चलता और अनहोने प्रसंग सामने आ खड़े होते हैं। तो मनुष्य का मस्तिष्क बड़ा विक्षुब्ध, किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है।
🔴 सामने कोई दोषी तो दिखाई नहीं पड़ता पर आघात लगने के कारण रोष आता ही है। आवेश में बुद्धि ठिकाने नहीं रहती, सम्भव है कि वह दोष किसी निर्दोष पर बरस पड़े और अनर्थ उपस्थित कर दे इसलिए उस क्षोभ को शांत करके किसी प्रकार संतोष धारण किया जाता है, परंतु हम देखते हैं कि आज अनेक व्यक्ति उस आपत्तिकाल के मन समझाव को कर्तव्य के ऊपर कुल्हाड़ी की तरह चलाते हैं। होते-होते यह लोग उद्योग के विरोधी हो जाती हैं और अजगर और पक्षी की उपमा देकर भाग्य के ऊपर निर्भर रहते हैं, यदि यह सज्जन बड़े-बूढ़े हुए तो अपने प्रभाव से निकटवर्ती अल्पज्ञान वाले तरुणों और किशोरों को भी इसी भाग्यवाद की निराशा के दलदल में डाल देते हैं।
🔵 पाठक समझ गये होंगे कि आकस्मिक घटनाओं के वास्तविक कारण की जानकारी न होने से कैसी-कैसी अनर्थकारक ऊटपटांग धारणाएँ उपजती हैं और वे लोगों के मनों में जब गहरी घुस बैठती हैं, तो जीवन प्रवाह को उलटा, विकृत एवं बेहूदा बना देती हैं। मनुष्य जाति ‘कर्म की गहन गति’ को चिरकाल से जानती है और उसके उन कारणों को जानने के लिए चिरकाल से प्रयत्न करती रही है। उसके कई हल भी अब तक तत्त्वदर्शियों ने खोज निकाले हैं। पंचाध्यायीकार ने उपरोक्त श्लोक में ‘गहना कर्मणोगति’ पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि यह दैविक, दैहिक और भौतिक घटनाएँ, तीन प्रकार के आकस्मिक सुख-दुःख, संचित, प्रारब्ध और क्रियमान कर्मों के आधार पर होते हैं। दूध एक नियत समय में एक विशेष प्रक्रिया द्वारा दही या घी बन जाता है। इसी प्रकार त्रिविध कर्म भी तीन प्रकार के फलों को उत्पन्न करतें हैं। वे आकस्मिक घटनाएँ किस प्रकार उत्पन्न करते हैं, इसका पूरा, विस्तृत एवं वैज्ञानिक विवेचन आगे करेगें।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/chir.3
🔵 सही बात को न समझने के कारण लोगों के हृदयों में ऐसे ऊटपटाँग विश्वास घर जमा लेते हैं। अनेक व्यक्ति तो भाग्य की वेदी पर कर्तव्य की बलि चढ़ा देते हैं। उनका विश्वास होता है कि इस जीवन में भी हानि-लाभ होगा, वह भाग्य के अनुसार होगा। अब जो कर्म किए जा रहे हैं, उनका फल अगले जन्म में भले मिले, पर यह जीवन तो प्रारब्ध के रस्सों में ही जकड़ा हुआ है। जब उपाय करने, प्रयत्न या उद्योग करने की बात चलती है, तो वे यही कहते हैं कि जो भाग्य में लिखा होगा सो होगा, ब्रह्मा की लकीर को कौन मेट सकता है, जो ईश्वर को करनी होगी वह होकर रहेगी, होनी बड़ी प्रबल है, इन शब्दों का प्रयोग वास्तव में इसलिए है कि जब आकस्मिक दुर्घटना पर अपना वश नहीं चलता और अनहोने प्रसंग सामने आ खड़े होते हैं। तो मनुष्य का मस्तिष्क बड़ा विक्षुब्ध, किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है।
🔴 सामने कोई दोषी तो दिखाई नहीं पड़ता पर आघात लगने के कारण रोष आता ही है। आवेश में बुद्धि ठिकाने नहीं रहती, सम्भव है कि वह दोष किसी निर्दोष पर बरस पड़े और अनर्थ उपस्थित कर दे इसलिए उस क्षोभ को शांत करके किसी प्रकार संतोष धारण किया जाता है, परंतु हम देखते हैं कि आज अनेक व्यक्ति उस आपत्तिकाल के मन समझाव को कर्तव्य के ऊपर कुल्हाड़ी की तरह चलाते हैं। होते-होते यह लोग उद्योग के विरोधी हो जाती हैं और अजगर और पक्षी की उपमा देकर भाग्य के ऊपर निर्भर रहते हैं, यदि यह सज्जन बड़े-बूढ़े हुए तो अपने प्रभाव से निकटवर्ती अल्पज्ञान वाले तरुणों और किशोरों को भी इसी भाग्यवाद की निराशा के दलदल में डाल देते हैं।
🔵 पाठक समझ गये होंगे कि आकस्मिक घटनाओं के वास्तविक कारण की जानकारी न होने से कैसी-कैसी अनर्थकारक ऊटपटांग धारणाएँ उपजती हैं और वे लोगों के मनों में जब गहरी घुस बैठती हैं, तो जीवन प्रवाह को उलटा, विकृत एवं बेहूदा बना देती हैं। मनुष्य जाति ‘कर्म की गहन गति’ को चिरकाल से जानती है और उसके उन कारणों को जानने के लिए चिरकाल से प्रयत्न करती रही है। उसके कई हल भी अब तक तत्त्वदर्शियों ने खोज निकाले हैं। पंचाध्यायीकार ने उपरोक्त श्लोक में ‘गहना कर्मणोगति’ पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि यह दैविक, दैहिक और भौतिक घटनाएँ, तीन प्रकार के आकस्मिक सुख-दुःख, संचित, प्रारब्ध और क्रियमान कर्मों के आधार पर होते हैं। दूध एक नियत समय में एक विशेष प्रक्रिया द्वारा दही या घी बन जाता है। इसी प्रकार त्रिविध कर्म भी तीन प्रकार के फलों को उत्पन्न करतें हैं। वे आकस्मिक घटनाएँ किस प्रकार उत्पन्न करते हैं, इसका पूरा, विस्तृत एवं वैज्ञानिक विवेचन आगे करेगें।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/chir.3
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