गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २

प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को  सजीव बनाइये      
                                 
जो भी वस्तुएँ आपके आसपास मौजूद हैं, उनमें से कुछ आपको अच्छी लगती हैं, कुछ बुरी, कुछ की ओर ध्यान भी नहीं जाता। जो अच्छी लगती उनसे  प्यार करते हैं, जो बुरी लगती हैं उनसे घृणा करते हैं, जो उपेक्षित हैं उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। आप चाहते हैं कि प्रिय वस्तुएँ सदा अधिक मात्रा में पास रहें, वे आपको सुख देती हैं, सुखदायक वस्तुओं की समीपता सभी को पसंद है।

आइए अब यह विचार करें कि वस्तुओं के अच्छा लगने का क्या कारण है? यह कहना ठीक नहीं कि गुणवान वस्तुएँ स्वभावत: प्रिय लगती हैं। यह अधूरी व्याख्या है। सच बात यह है कि जिस वस्तु में जितनी मात्रा मे अपनापन- आत्मभाव, स्वार्थभाव है, वह उसी परिमाण में प्रिय लगती है, गुण रहित हो तो भी अच्छी लगती है। आपका अपना छोटा सा बालक है, वह सिर्फ रोना ही जानता है, दिन को रोता है, रात को रोकर बार-बार नींद उचटा लेता है, गोदी में लें तो मल से साफ कपड़ों को खराब कर देता है। उसमें एक भी गुण नहीं दुर्गुण  बहुत हैं तो भी आप उसके लिए कपड़ों की, दूध की, दवा-दारू की खर्चीली व्यवस्था करते हैं, कष्ट उठाते हैं फिर भी उसे प्यार करते हैं। कारण यह है कि उस बालक में आपका आत्मभाव है, अपनापन है। दूसरं के बच्चे यदि आपके ऊपर टट्टी कर दें तो यह बुरा लगेगा। पडोसी का गोरा, सलौना बच्चा, अपने काले-कलूटे बच्चे से अच्छा थोड़े ही लगेगा? यहाँ सौंदर्य या गुण की प्रमुखता नहीं है, अपनेपन का महत्त्व है।

एक मकान के आप मालिक हैं वह बहुत अच्छा लगता है, उसकी अच्छाई की प्रशंसा करते नहीं थकते, टूट-फूट, मरम्मत, सजावट का दृश्य ध्यान रखते हैं, संयोगवश यह मकान बिक कर दूसरे के हाथ चला जाता है, अब आप निश्चित हो गए टूट-फूट से कोई मतलब नहीं, आज फूट जाए चाहे हजार वर्ष  खड़ा रहे ? कल तक जो मकान इतना प्रिय था, आज ही उससे सारा संबंध छूट गया। इतनी शीघ्र इतनी अधिक विरक्ति का कारण क्या है? कारण यह है कि कल तक उसके साथ जो अपनापन चिपटा हुआ था, आज नहीं रहा। कल जिस रुपयों से भरी थैली को अत्यंत उत्साह से छाती से चिपटाए फिरते थे वह आज दूसरे व्यापारी के पास चली गई, यदि वे रुपए अब चोरी चले जाए तो आपको कुछ भी कष्ट न होगा। उन रुपयों के बदले जो माल खरीदा है वह अब प्यारा लगने लगा, कल वह माल भी पड़ोस में पडा था पर तब उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखते थे, आज उसको सुरक्षित रखने के लिए चोटी का पसीना एडी तक बहा रहे हैं। माल वही कल था, वही आज है। अंतर केवल इतना कि आज अपना हो गया, अपनापन ही तो अच्छा लगने का कारण है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ३

👉 भक्तिगाथा (भाग १०६)

गूंगे का गुड़ है भक्ति

महर्षि की कही गयी पंक्तियाँ सभी के अन्तःकरण में स्वरित होती रहीं। सब के मन-प्राण बरबस इन स्वरों से झंकृत होते रहे। अनायास ही सब कुछ ठहर गया। ऐसा लगने लगा जैसे कि चेतन की चैतन्यता के साथ जड़ की जड़ता भी इन स्वरों में घुल गयी है। सदा-सर्वदा अचल रहने वाली हिमशिखरों की कौन कहे- वायु एवं जल भी अपनी गति भूल गए। हिमपशुओं एवं हिमपक्षियों के रव भी मौन हो गए। भावों का अतिरेक होता ही कुछ ऐसा है। भाव थोड़े हों तो कहे जा सकते हैं, इनसे चिन्तन-चेतना में कुछ हलचल सम्भव है परन्तु यदि व्यक्तित्व में भावों का महासमुद्र ही उमड़ पड़े तो सब कुछ अनायास-अचानक स्तम्भित हो जाता है। यहाँ भी हर कोई कुछ कहना या पूछना भूल गया।

न केवल समाधि के अभ्यस्त महर्षि मौन बने रहे, बल्कि देवों, यक्षों एवं गन्धर्वों का मण्डल भी मूक रहा। हाँ! इतना अवश्य था कि सभी भक्ति के अपूर्व स्वाद की अनुभूति कर रहे थे। मौन में सब कुछ घटित हो रहा था। ऋषि कहोड़ की उपस्थिति ही कुछ ऐसी थी कि वे कुछ कहें तो सुनने वालों के प्राण स्तम्भित अचल हो उन्हें ग्रहण करने की कोशिश करते थे। अभी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। महर्षि शान्त बैठे हुए थे और उनके आस-पास के सम्पूर्ण परिसर में सर्वत्र प्रशान्ति व्याप्त थी। देर तक बाहर-भीतर सब ओर मौन व्याप्त रहा।

इसका भेदन सबसे पहले महर्षि कहोड़ ने ही किया। वह बोले- ‘‘अरे! आप सब तो ऐसे हो गए हैं, जैसे कि गूंगे को गुड़ खिला दिया गया हो पर मैं  तो भगवान नारायण के प्रिय एवं परमभक्त देवर्षि नारद से अनुरोध करना चाहता हूँ कि वे अपने अगले सूत्र से हम सभी को कृतार्थ करें।’’ महर्षि के इस कथन पर देवर्षि ने कोई भी प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की। वे बस दम साधे बैठे रहे, कुछ बोले ही नहीं। अतिविनयशील देवर्षि की कोई प्रतिक्रिया न पाकर ऋषि कहोड़ को भी तनिक अचरज हुआ। वे पुनः बोले- ‘‘देवर्षि! आप कहीं खो गए हैं क्या?’’ इस बार देवर्षि की चेतना में चेत हुआ। वे तनिक चौंकते फिर स्थिर होते हुए बोले- ‘‘खो तो अवश्य गया था महर्षि, परन्तु अन्यत्र कहीं नहीं, बस आपमें और आपके स्वरों में। इन्हीं की स्वादानुभूति में डूबा था।’’

‘‘कैसा लगा इनका स्वाद?’’ महर्षि के इस प्रश्न पर देवर्षि ने कहा- ‘‘हे भगवन! आपके प्रश्न का उत्तर ही मेरा अगला सूत्र है’’-
‘मूकास्वादनवत्’॥ ५२॥
गूंगे के स्वाद की तरह।

देवर्षि के इस कथन पर ऋषि कहोड़ ने कहा- ‘‘आपने उचित ही कहा देवर्षि! अनुभूति जितनी व्यापक एवं सघन होती है, उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही असम्भव हो जाती है। फिर भी चलना और चलते ही जाना तो भगवती की भक्ति है। आध्यात्मिक जीवन जड़ता के टूटने और छूटने का नाम है। चैतन्य तो प्रवाह है, यात्रा है। इसमें निरन्तरता और अनन्तता है। पत्थर तो ठहर जाता है, लेकिन फूल कैसे ठहरे! फूल को तो जाना है और होना है। फूल को तो एक करोड़ फूल होना है, एक अरब फूल होना है। फूल को अपनी सुरभि सम्पूर्ण धरती-अम्बर में बिखेरनी है, बांटनी है। पत्थर के पास बांटने के लिए भला है भी क्या?’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २०९

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