मंगलवार, 31 अगस्त 2021

👉 देह और आत्मा:-

जनक ने एक धर्म—सभा बुलाई थी। उसमें बड़े—बड़े पंडित आए। उसमें अष्टावक्र के पिता भी गए।

अष्टावक्र आठ जगह से टेढ़ा था, इसलिए तो नाम पड़ा अष्टावक्र। दोपहर हो गई। अष्टावक्र की मां ने कहा कि तेरे पिता लौटे नहीं, भूख लगती होगी, तू जाकर उनको बुला ला।

अष्टावक्र गया। धर्म—सभा चल रही थी, विवाद चल रहा था। अष्टावक्र अंदर गया। उसको आठ जगह से टेढ़ा देख कर सारे पंडितजन हंसने लगे। वह तो कार्टून मालूम हो रहा था। इतनी जगह से तिरछा आदमी देखा नहीं था। एक टांग इधर जा रही है, दूसरी टांग उधर जा रही है, एक हाथ इधर जा रहा है, दूसरा हाथ उधर जा रहा है, एक आंख इधर देख रही है, दूसरी आंख उधर देख रही है। उसको जिसने देखा वही हंसने लगा कि यह तो एक चमत्कार है! सब को हंसते देख कर.. .यहां तक कि जनक को भी हंसी आ गई।

मगर एकदम से धक्का लगा, क्योंकि अष्टावक्र बीच दरबार में खड़ा होकर इतने जोर से खिलखिलाया कि जितने लोग हंस रहे थे सब एक सकते में आ गए और चुप हो गए।

जनक ने पूछा कि मेरे भाई, और सब क्यों हंस रहे थे, वह तो मुझे मालूम है, क्योंकि मैं खुद भी हंसा था, मगर तुम क्यों हंसे?

उसने कहा मैं इसलिए हंसा कि ये चमार बैठ कर यहां क्या कर रहे हैं! क्योंकि इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है। मेरा शरीर आठ जगह से टेढ़ा है, इनको शरीर ही दिखाई पड़ता है। ये सब चमार इकट्ठे कर लिए हैं और इनसे धर्म—सभा हो रही है और ब्रह्मज्ञान की चर्चा हो रही है? इनको अभी आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। है कोई यहां जिसको मेरी आत्मा दिखाई पड़ती हो? क्योंकि आत्मा तो एक भी जगह से टेढ़ी नहीं है।

वहां एक भी नहीं था। कहते हैं, जनक ने उठ कर अष्टावक्र के पैर छुए। और कहा कि आप मुझे उपदेश दें।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५५)

असीम को खोजें

यह खोज, खबर इसलिए भी उपयोगी है कि ‘एकाकी पन’ नामक कोई तत्व अगले दिनों शेष नहीं रहने वाला है। इस विश्व का कण कण एक-दूसरे से अत्यन्त सघनता और जटिलता के साथ जुड़ा हुआ है, उन्हें प्रथक करने से किसी की सत्ता अक्षुण्य नहीं रह सकती। सब एक दूसरे के साथ इतनी मजबूत जंजीरों से बंधे हुए हैं कि प्रथकता की बात सोचना दूसरे अर्थों में मृत्यु को आमन्त्रण देना ही कहा जा सकता है।

शरीर में कोशिकाओं की स्वतन्त्र सत्ता अवश्य है पर वह अपने आप में पूर्ण नहीं है। एक से दूसरे का पोषण होता है और दूसरे-तीसरे को बल मिलता है। हम सभी एक दूसरे पर निर्भर हैं। यहां न कोई स्वतन्त्र है न स्वावलम्बी। साधन सामूहिकता ही विभिन्न प्रकार के क्रियाकलापों, अस्तित्वों और तथ्यों की जननी है मानवी प्रगति का यही रहस्य है। प्रकृति प्रदत्त समूह संरचना का उसने अधिक बुद्धिमत्ता पूर्वक लाभ उठाकर समाज व्यवस्था बनाई और सहयोग के आधार पर परिवार निर्माण से लेकर शासन सत्ता तक के बहुमुखी घटक खड़े किये हैं। एक-दूसरे के लिए वे किस प्रकार उपयोगी सिद्ध होंगे। पारस्परिक सहयोग से किस किस प्रकार एक दूसरे की सुख−सुविधा बढ़ाये इसी रीति-नीति के अभिवर्धन को अग्रगामी बनाने के लिए धर्म, अध्यात्म तत्व-ज्ञान की आधारशिला रखी गई। भौतिक विज्ञान की खोज और प्रगति ने प्रकृति गत परमाणुओं की इसी रीति-नीति का परिचय दिया है। जड़ अथवा चेतन किसी भी पक्ष को देखें, इस विश्व के समस्त आधार परस्पर सम्बद्ध प्रतीत होते हैं और उनकी सार्थकता एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए रहने से ही सिद्ध होती है। एकाकी इकाइयां तो इतनी नगण्य है कि वे अपने अस्तित्व का न तो परिचय दे सकती हैं और न उसे रख सकती हैं।

यह सिद्धान्त ग्रह-नक्षत्रों पर भी लागू होता है। विश्व-ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रह नक्षत्र अपनी सूत्र संचालक आकाश गंगाओं के साथ जुड़े हैं और आकाश गंगाएं महत्त्व हिरण्य गर्भ की उंगलियों में बंधी हुई कठपुतलियां भरे हैं। अगणित और मण्डल भी एक-दूसरे का परिपोषण करते हुए अपना क्रिया-कलाप चला रहे हैं। सूर्य ही अपने ग्रहों को गुरुत्वाकर्षण में बांधे हो और उन्हें ताप प्रकाश देता हो सो बात नहीं है, बदले में ग्रह परिवार भी अपने शासनाध्यक्ष सूर्य का विविध आधारों से पोषण करता है। सौर परिवार के ग्रह अपनी जगह से छिटक कर किसी अन्तरिक्ष में अपना कोई और पथ बनालें तो फिर सूर्य का सन्तुलन भी बिगड़ जायेगा और वह आज की स्थिति में न रहकर किसी चित्र-विचित्र विभीषिका में उलझ हुआ दिखाई देगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ९०
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ५५)

भक्ति वही, जिसमें सारी चाहतें मिट जाएँ

ऋषि आपस्तम्ब विचारमग्न थे और देवर्षि भावमग्न। हिमालय इन दोनों के साथ अपने आंगन में उपस्थित ऋषियों, देवों, सिद्धों व गन्धर्वों के समुदाय को अविचल भाव से निहार रहा था। हालांकि उसका अन्तस् भी भक्ति की भावसरिता से सिक्त हो रहा था। भक्ति है भी तो वह जो भावों को विभोर करे, परिष्कृत करे, ऊर्ध्वमुखी बनाए और अन्त में सदा के लिए भक्त को भगवत् चेतना के साथ एकाकार कर दे। हिमालय के सान्निध्य में हो रहे इस अनूठे भक्ति समागम में यही हो रहा था। देवर्षि नारद ने जो ब्रज की कथा सुनायी थी, उसे श्रवण कर ऋषि आपस्तम्ब की शंकाए धुल गयी थीं। उनकी चेतना भी भक्ति के संस्पर्श से पुलकित थी। अन्य ऋषिगण तो ब्रज की यादों से विह्वल थे। गायत्री महाशक्ति के चैतन्य ऊर्जा के प्रवाह को धरा पर अवतीर्ण करने वाले ब्रह्मर्षि विश्वामित्र को तो जैसे समाधि हो आयी थी। उन्हें चेत तो तब हुआ जब ब्रह्मर्षियों में श्रेष्ठ वशिष्ठ ने उन्हें टोकते हुए कहा- ‘‘ब्रह्मर्षि किस अनुभव में खो गए आप? यदि हम सब सत्पात्र हों तो हमें भी अपने अनुभव का अमृतपान कराएँ।’’ उत्तर में ऋषि विश्वामित्र के नेत्र उन्मीलित हुए और उन्होंने बड़ी श्रद्धा के साथ प्रातः के उदीयमान सूर्य को प्रणाम किया जिसकी स्वर्णिम किरणों ने हिमालय के श्वेत शिखरों को स्वर्णिम बना दिया था।
    
सविता के भर्ग को अपने हृदय में सदा धारण करने वाले ब्रह्मर्षि विश्वामित्र कहने लगे- ‘‘हे ब्रह्मर्षि! आज से युगों पूर्व त्रेतायुग में जब परात्पर ब्रह्म ने श्रीराम रूप धारण किया था, उस समय मैं, उनके और अनुज लक्ष्मण के साथ मिथिला गया था। वहाँ रंगभूमि में मैंने विदेह कन्या सीता को देखा। मुझे आज भी याद है कि वह किस तरह सुकुमार कलिका की भांति संकुचित व सहमी हुई थी पर यह उनका बाह्य आवरण था।
    
उनके अन्तस् में कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन-पालन एवं लय करने वाली महाऊर्जा का विराट् अनन्त चैतन्य सागर हिलोरें ले रहा था। उन्हें देखते ही मैं पहचान गया कि वेदमाता गायत्री ही सीता का रूप धरे जनक की रंगभूमि में विचरण कर रही हैं। मैंने उन महामाया को भाव भरे मन से प्रणाम करते हुए प्रार्थना की- हे उद्भवस्थिति-संहारकारिणी माँ! अपने इस शिशु पर करूणा करो।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १०१

👉 मृत्यु से जीवन का अंत नहीं होता

जैसे हम फटे-पुराने या सड़े-गले कपड़ों को छोड़ देते हैं और नए कपड़े धारण करते हैं, वैसे ही पुराने शरीरों को बदलते और नयों को धारण करते रहते हैं। जैसे कपड़ों के उलट फेर का शरीर पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ता, वैसे ही शरीरों की उलट-पलट का आत्मा पर असर नहीं होता। जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो भी वस्तुत: उसका नाश नहीं होता।

मृत्यु कोई ऐसी वस्तु नहीं, जिसके कारण हमें रोने या डरने की आवश्यकता पड़े। शरीर के लिए रोना वृथा है, क्योंकि वह निर्जीव पदार्थों का बना हुआ है, मरने के बाद भी वह ज्यों का त्यों पड़ा रहता है। कोई चाहे तो मसालों में लपेट कर मुद्द तों तक अपने पास रखे रह सकता है, पर सभी जानते हैं कि देह जड़ है। संबंध तो उस आत्मा से होता है जो शरीर छोड़ देने के बाद भी जीवित रहती है। फिर जो जीवित है, मौजूद है, उसके लिए रोने और शोक करने से क्या प्रयोजन?

दो जीवनों को जोड़ने वाली ग्रंथि को मृत्यु कहते हैं। वह एक वाहन है जिस पर चढ़कर आत्माएँ इधर से उधर, आती-जाती रहती हैं। जिन्हें हम प्यार करते हैं, वे मृत्यु द्वारा हमसे छीने नहीं जा सकते। वे अदृश्य बन जाते हैं, तो भी उनकी आत्मा में कोई अंतर नहीं आता। हम न दूसरों को मरा हुआ मानें, न अपनी मृत्यु से डरें, क्योंकि मरना एक विश्राम मात्र है, उसे अंत नहीं कहा जा सकता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति-मार्च 1948 पृष्ठ 1   

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