गुरुवार, 22 मार्च 2018

👉 ईश्वर की भक्ति (अन्तिम भाग)

🔶 प्रार्थना का सच्चा उत्तर पाने का सब से प्रथम मार्ग आत्म विश्वास है। आत्म विश्वासी, शरीर और मन से भरपूर प्रयत्न करता है। कर्तव्य परायण द्वारा ही सच्ची प्रार्थना होनी सम्भव है। तैरने वाला ही समुद्र के गहरे जल में डुबकी लगा कर तली में से मोती ढूँढ़ ला सकता है। जो पानी को देखकर जी चुराता है, उसके लिए मोती पाना तो दूर तैरने का आनन्द लेना भी कठिन है। समय को बर्बाद करने वाले, काम से जी चुराने वाले, अज्ञानी और इन्द्रिय परायण लोग भक्त नहीं हो सकते, चाहे वे कितना ही ढोंग क्यों न रचते हों, ऐसे लोग ईश्वर के नाम पर भिक्षा माँग कर पेट भर सकते हैं। प्रार्थना नहीं कर सकते। प्रमाद और प्रेम यह दोनों तो एक दूसरे के विरोधी तत्व हैं जहाँ एक होगा वहाँ दूसरा ठहर नहीं सकता।

🔷 आज देखते हैं कि असंख्य मनुष्य ईश्वर पूजा का कर्म काण्ड करते हैं पर उन्हें रत्ती भर भी लाभ नहीं होता। कारण यह है कि वे प्रथम, आत्मा को जानने का कष्ट नहीं करते और व्यर्थ की तोता रटन्त में अपना समय बर्बाद करते हैं।

🔶 सच्चा भक्त अपनी आत्मा के दिव्य मन्दिर में परमात्मा का निरन्तर दर्शन करता है। ईश्वर उसके बिलकुल निकट है। अपने दिलदार को दिल में छिपाये हुए वह निहाल बना रहता है। प्रभु का पावन चित्र उसके हृदय पर अंकित होता है। वह व्यर्थ की उलझनों में नहीं पड़ता वरन् अनुभव करता है कि—”दिल के आइने में है तस्वीरें यार, जब जरा गर्दन उठाई देख ली।” वह ईश्वरीय प्रेम का दिव्य समुद्र अपने चारों ओर लहराता हुआ देखता है और उसमें आनन्द के गोते लगाता है। ऐसे ईश्वर परायण भक्त की आन्तरिक ज्योति उसके बाहरी आचरण में स्पष्ट दिखाई देने लगी है। अपने को आत्म भाव से देखने वाला, ईश्वरीय अखण्ड ज्योति के प्रत्यक्ष दर्शन करने वाला, मनुष्य महात्मा—बन जाता है। वह तुच्छ स्वार्थों और इन्द्रिय लालसाओं में वशीभूत होकर दुष्कर्म नहीं करता। पवित्रता और प्रेम की अजस्र धारा उसके आचरणों में से निर्झरिणी की तरह झरती है, उसके लिए अमुक विधि से प्रार्थना करने की बाधा नहीं रहती। चाहे जिस तरीके से और चाहे जब वह प्रार्थना करता रह सकता है, उसकी हर एक पुकार प्रभावशाली होती है और निश्चित परिणाम उपस्थित करने की पूर्ण सामर्थ्य रखती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1985 पृष्ठ 26

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/March/v1.2

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...