रविवार, 7 अक्टूबर 2018

👉 सच्चा श्राद्ध

🔷 श्राद्ध पक्ष चल रहा था। सन्त एक नाथ ने भी प्रचलित लोकरीति के अनुसार अपने पितरों का श्राद्ध करने का निश्चय किया और कुछ ब्राह्मणों को नियत समय पर अपने यहाँ भोजन के लिये आमंत्रित किया।

🔶 सुबह से ही घर में श्राद्ध की रसोई बनने लगी। संत एकनाथ तथा उनकी धर्मपत्नी गिरिजा दोनों पवित्रता, स्वच्छता और सात्विकता का ध्यान रखते हुए षट्रस व्यंजन बना रहे थे। घी, दूध और मिष्ठानों की सुगन्ध घर से बाहर सड़क तक व्याप रही थी। उसी समय सड़क से कुछ महार परिवार गुजरे। शायद उन्हें कई दिनों से ठीक तरह खाना नहीं मिला था। पकवानों की सौंधी सुगन्ध उनकी नाक में से घुस कर क्षुधा को और भी भड़काने वाली सिद्ध हुई। लेकिन अपने नसीब में न जानकर वयस्क महारों ने तो भूख को दबाया, परन्तु बच्चों से रहा न जा सका। एक बच्चा बोल ही उठा-माँ कैसी मीठी महक आ रही है। अहा! कितने बढ़िया-बढ़िया पकवान बन रहे होंगे। काश ये हमें मिल सकें।”

🔷 “चुप रह मूर्ख! कोई सुन लेगा तो गालियाँ खानी पड़ेंगी कि निगूढ़ों ने हमारे पकवानों को नजर लगा दी।” बाप ने कहा। माँ एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए बोली-बेटा! हम लोगों की किस्मत में तो इन चीजों की गंध भी नहीं है। व्यर्थ में मन के लड्डू बाँधने से क्या लाभ।”

🔶 माता, पिता और बच्चों में चल रही ये चर्चायें संत एकनाथ जी के कानों में पहुँची। उनका हृदय द्रवित हो उठा। संत की साध्वी पत्नी गिरिजा भी इन बातों को सुनकर महार परिवार को घर में न्यौत लायी और उचित आदर सत्कार सहित उन्हें आसन पर बिठा कर तैयार हो रही रसोई परोसने लगी। महार स्त्री, पुरुष और बच्चे कई दिनों के भूखे थे, इधर पकवानों ने उनकी भूख और भी बढ़ा दी, सो सब तैयार रसोई उनके ही उदर में चली गयी। लेकिन खा-पीकर तृप्त हुए महार-परिजनों ने जिस हृदय से संत एकनाथ तथा गिरिजा को दुआयें दी उससे दम्पत्ति का अन्तस् प्रफुल्लित हो उठा। गिरिजा ने भोजन के बाद यथोचित दक्षिणा देकर उन्हें विदा किया।

🔷 नियत समय पर न्यौते गये ब्राह्मण आये। बनायी गयी रसोई तो महारों के काम आ चुकी थी सो अब दुबारा भोजन तैयार करना पड़ रहा था। खाने में विलम्ब होते देखकर ब्राह्मणों से न रहा गया, वे कुड़कुड़ाने लगे।

🔶 संत ने कहा-”नाराज न होइये ब्राह्मण देव। रसोई तो समय से काफी पहले तैयार हो चुकी थी। परन्तु देखा भगवान सड़क पर भूखे ही जा रहे हैं। इसलिये उन्हें भोजन कराने में सारी रसोई चुक गयी।” विस्मित ब्राह्मण संत एकनाथ से पूरी घटना सुनकर आगबबूला हो उठे-”तो जिनके छूने से भी कुम्भीपाक लगता है उन्हें तुम भगवान कर रहे हो।” “वे भगवान ही तो हैं पूज्यवर! कण-कण में उनका वास है, प्राणिमात्र में वे रहते हैं। यदि वे ही भूखे जा रहे हों तो उन्हें तृप्त कर भगवान की सेवा का अवसर हाथ से जाने देने में क्या बुद्धिमानी है?”

🔷 इन वचनों ने पंडितों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया और वे बोले-”अरे! एकनाथ तुम्हारी बुद्धि तो भ्रष्ट नहीं हो गयी है। एक तो हमारे लिये बनाया भोजन अन्त्यज जनों को खिला दिया और दूसरे उन्हें भगवान सिद्ध का उनसे अपवित्र हुए घर में चौके-चूल्हे पर बना भोजन खिलाकर हमें भी भ्रष्ट करने पर तुले हो।”

🔶 संत एकनाथ उसी विनम्रता से अपनी बात कहते रहे परन्तु रूढ़िग्रस्त और दुराग्रही मन मस्तिष्क वाले ब्राह्मणों पर क्या प्रभाव होना था, उठ कर चल दिये। संत एकनाथ ने उन्हें रोका नहीं। माथे पर तिलक लगाये रेशमी वस्त्रधारी उन बहुरूपियों को उन्होंने विनयपूर्वक रवाना किया व सच्चे ब्राह्मण, हृदय से आशीर्वाद देकर गए। उस महार परिवार द्वारा छोड़ा भोजन दोनों पति-पत्नी ने भगवान का प्रसाद मानकर ग्रहण किया। यही सच्चा श्राद्ध था।

📖 अखण्ड ज्योति जून 1987

👉 आज का सद्चिंतन 7 October 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 7 October 2018


👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 22)

👉 सच्चे अध्यात्मवाद में निहित विलक्षण शक्ति  
 
🔷 यहाँ इतनी पँक्तियाँ इसलिए लिखनी पड़ी हैं कि शरीर बल, सम्पत्ति बल, बुद्धिबल, पद और सहायकों का बल बहुत समय से श्रेय-चर्चा के अधिकारी रहे हैं, पर भुलाया यह भी नहीं जाना चाहिए कि आध्यात्मिक साधना के सहारे उपजने वाला आत्मबल भी उपेक्षणीय नहीं है। वह न तो अप्रामाणिक है और न छद्म। गड़बड़ी मात्र वहीं पड़ती है जहाँ उसके साथ जुड़े सिद्धान्तों को भुला दिया जाता है और कुछ मंत्र-यंत्रों से ही गगनचुम्बी अपेक्षा की जाने लगती है और उसके सफल न होने पर निराशा एवं नास्तिकता उभरती है।
  
🔶 व्यक्तिगत लाभ तक अपने को सीमाबद्ध कर लेने वाला व्यक्ति अपनी संकीर्णता में इतना अधिक लिप्त हो जाता है कि उसकी दूसरी दुष्प्रवृत्तियाँ इसी आधार पर पनपती हैं। अध्यात्म क्षेत्र मेें भी जो लोग इसी रीति-नीति को अपनाते हैं, उनकी गरिमा भी एक प्रकार से समाप्त प्राय: हो जाती है। अपने लिए स्वर्ग मुक्ति, ऋद्धि-सिद्धि चमत्कार प्रदर्शन, लोगों से पुजापा बटोरना, अपने को देवताओं का एजेण्ट बताकर उनके द्वारा ओछे लोगों की ऐसी मनोकामनाएँ पूरी कराने का आश्वासन देना जो उनकी पात्रता से बाहर है, ऐसी बातें जिनके मनोरथों में सम्मिलित हो जाएँ, समझना चाहिए कि उनका पूजा-पाठ भजन-कर्मकाण्ड ओछे स्तर का है। उससे अध्यात्म पक्ष की गरिमा बढ़ेगी नहीं वरन् घटेगी ही।

🔷 ईश्वर के निकटवर्ती संबंधी बनना, उनको दर्शन देने के लिए बाधित करना, उनकी कचहरी के दरबारी बनकर सामीप्य-सान्निध्य जैसी मुक्ति का मजा लूटना, औरों से अपने को वरिष्ठ होने की मान्यता बनाना-ऐसा ओछापन है जो किसी भी वास्तविक भगवद् भक्त का अनुगामी बनने वाले को तनिक भी शोभा नहीं देता। यह सब लगभग ऐसा ही है जैसा कि सेठ, साहूकार, राजनेता, पंचतारा होटलों में मौज मजा करने वालों की मन:स्थिति होती है। अमीर लोग भी सेवक, चाकर, चारण और चमचों को इनाम-इकराम बाँटते रहते हैं। ईश्वर की हैसियत उन्हीं लोगों के समतुल्य बना देने का मनोरथ न तो किसी के अध्यात्मवादी होने का प्रमाण है और न ऐसे व्यक्ति को साधक-उपासक ही कहा जा सकता है।

  .... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 24

👉 4 Tips

🔷 1. Be impeccable with your word: Speak with integrity. Say only what you mean. Avoid using the word to speak against yourself or to gossip about others. Use the power of your word in the direction of truth and love.

🔶 2. Don't take anything personally: Nothing others do is because o you. What others say and do is a projection of their own reality, their own dream. When you are immune to the opinions and actions of others, you won't be the victim of needless suffering.

🔷 3. Don't make assumptions: Find the courage to ask questions and to express what you really want. Communicate with others as clearly as you can to avoid misunderstandings, sadness and drama. With just this one agreement, you can completely transform your life.

🔶 4. Always do your best: Your best is going to change from moment to moment; it will be different when you are healthy as opposed to sick. Under any circumstance, simply do your best and you will avoid self-judgment, self-abuse and regret.

📖 Miguel Ruiz

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