पराम्बा के प्रति परमप्रेमरूपा है भक्ति
‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्’- चौबीस अक्षरों वाले इस गायत्री महामंत्र के समवेत उच्चारण से हिमालय का कण-कण गूँज उठा। सप्त ऋषियों सहित सभी महर्षियों एवं देवशक्तियों ने सन्ध्या वन्दन के पश्चात भगवान भुवन भास्कर को अर्घ्य अर्पित किया। अद्भुत छटा हो रही थी हिमशिखरों में उदित हो रहे सूर्य की। पहले अरुण आभा उदित होकर फैली और फिर भगवान सविता देव हिमाद्रि तुंग शृंगों से प्रकट हुए। सभी ने हाथ जोड़कर उनकी अभ्यर्थना करते हुए सिर नवाया। भगवान अंशुमाली ने भी अपनी सहस्र किरणों से सभी पर अपनी कृपादृष्टि की। सूर्यदेव के इस अपूर्व अनुदान से सभी रोमांचित हो उठे। प्रत्येक के अन्तस् में आह्लाद की हिलोर उठी और भक्ति की पुलकन से सात्विक रोमांच हो आया।
सभी की दृष्टि, भक्ति के परमाचार्य देवर्षि की ओर उठी। परम भागवत देवर्षि नारद निर्निमेष भाव से हिमशिखरों को निहारे जा रहे थे। उनके हृदय की प्रगाढ़ भावनाएँ आँखों में अश्रुबूँदों के रूप में चमक रही थीं। इस भावविह्वलता ने उनकी वाणी को जड़ीभूत कर दिया था। ब्रह्मर्षि वामदेव ने उन्हें टोका- ‘‘किस चिंतन ने आज आपको विह्वल कर दिया है-देवर्षि?’’ वामदेव के इस प्रश्न से देवर्षि की अंतर्मुखी चेतना बाह्य जगत् की ओर मुड़ी। शनैः-शनैः वह प्रकृतिस्थ हुए। उनके होठों पर हल्का स्मित झलका एवं मुखमण्डल पर भक्ति की सात्विक आभा छलकने लगी। उन्होंने सभी महर्षियों की ओर मुड़ते हुए कहा- ‘‘आज राजा हिमवान् के आँगन में युगों पुरानी स्मृतियाँ ताजी हो आयीं। बस माँ की याद हो आयी।’’
‘‘हाँ, देवर्षि!’’- महर्षि वशिष्ठ एवं अंगिरा लगभग एक साथ बोले- ‘‘आपकी पिछले जन्मों की माता ने ही तो आपको भक्ति की जन्मघुट्टी पिलायी थी, उन्हीं की प्रकाश किरण का अनुदान पाकर आज आप स्व-प्रकाशित हो रहे हैं।’’ ‘‘सो तो है महर्षिगण! भला उनकी कोख के संस्कारों को कैसे भुलाया जा सकता है। पर आज मेरी स्मृति व चिंतन का केन्द्र वे ममतामयी नहीं, बल्कि अहैतुक कृपामयी पराम्बा भगवती हैं, जो जन-जन की, सृष्टि के कण-कण की, हम सबकी, तिर्यक योनि वाले निम्न प्राणियों से लेकर देवों एवं महर्षियों की माँ हैं। जिनके एक अंश को धारण कर जननी माँ बनती है, जिनके परम प्रेम को अनुभव कर जीव कृतार्थ एवं कृत्कृत्य हो जाता है।’’
‘‘उन्हीं के परम प्रेम की अनुभूति करते हुए मैंने भक्तिदर्शन का दूसरा सूत्र कहा है-
‘सा त्वस्मिन् परम प्रेम रूपा’॥ २॥
उनके प्रति परम प्रेमरूपा है-भक्ति।
हृदय में आदिशक्ति माँ जगदम्बा का स्मरण करते हुए देवर्षि का कण्ठ रूँध आया था। उन्होंने बड़ी श्रद्धा से दोनों हाथ जोड़े और ‘‘माँ! माँ!! परम प्रेममयी माँ!!!’’ कहकर सब ओर माथा नवाते हुए प्रणाम किया और भावविह्वल स्वर में बोले- ‘‘धन्य है देवात्मा हिमालय, जिन्हें जगदम्बा ने अपने पिता होने का गौरव दिया। धन्य है इनके राज्य में रहने वाले लोग जो उनके भाई-बहिन बने।’’ भावों का तीव्र वेग बह रहा था और देवर्षि नारद कह रहे थे- ‘‘माता सती ने जब दक्ष यज्ञ में स्वयं की देह विसर्जित की थी, तब से सभी के मन में जिज्ञासा थी कि वे लीलामयी कब, कहाँ, किस रूप में अवतरित होंगी। और वे प्रेममयी आयीं, पर्वतकन्या पार्वती बनकर।’’
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १७