बुधवार, 18 दिसंबर 2019

👉 श्रद्धा, सिद्धान्तों के प्रति हो (भाग १)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

अपने बच्चों से, साथियों से, मिशन के कार्यकर्ताओं से मिलने का मेरा बड़ा मन था। पर संयोग नहीं मिल पा रहा था। पहले मन यह था कि यहाँ बुलाऊँ और बुला करके एक-एक से बात करूँ और अपने मन को खोलकर आप सबके सामने रखूँ और आपकी नब्ज़ भी देखूँ पर अब यह सम्भव नहीं रहा। कितने कार्यकर्ता हैं? यहाँ शान्तिकुञ्ज के स्थायी कार्यकर्ता एवं सामयिक स्वयंसेवक आए हुए हैं। एक समुदाय जो शुरू में आया था वह समुदाय, न केवल यहाँ का, वरन् गायत्री तपोभूमि का, वह भी हमारा समुदाय है। सब लोगों को बुलाने के लिए मैं विचार करता रहा कि क्या ऐसा सम्भव है कि एक-एक करके आदमियों को बुलाऊँ और अपने जीवन के अनुभव आऊँ और अपनी इच्छा और आकांक्षा बताऊँ। लेकिन एक-एक करके बुलाने में तो मालूम पड़ा कि यह संख्या तो इतनी बड़ी है कि इनको बुलाने में महीनों लगाऊँ तो भी पूरा नहीं हो सकेगा। इसलिए आप यह मानकर चलिए कि आप से व्यक्तिगत बात की जा रही है और एकांत में, अकेले में बुलाकर के, कन्धे पर हाथ रखकर के और आप से ही कहा जा रहा है किसी और से नहीं।

आप इन बातों को अपने जीवन में प्रयोग करेंगे तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आपकी ऐसी उन्नति होती चली जाएगी जैसी कि एक छोटे-से देहात में जन्म लेने के बाद हम उन्नति करते चले आए और उन्नति के ऊँचे शिखर पर जा पहुँचे। आपके लिए भी यह रास्ता खुला हुआ है। आपके लिए भी सड़क खुली हुई है। लेकिन अगर आप ऐसा नहीं कर पाएँगे तो आप यह विश्वास रखिए कि आप घटिया आदमी रहे होंगे किसी भी समय में और घटिया ही रहकर जाएँगे। भले से ही आप शान्तिकुञ्ज में रहें। आपकी कोई कहने लायक महत्त्वपूर्ण प्रगति न हो सकेगी और आप वह आदमी न बन सकेंगे जैसे कि बनाने की मेरी इच्छा है।

अब क्या करना चाहिए? आपको वह काम करना चाहिए जो कि हमने किया है। क्या किया है आपने? क्रिया-कलाप गिनाऊँ आपको? नहीं क्रिया-कलाप नहीं गिनाऊँगा। क्रियाकलाप गिनाऊँगा तो मुझे वहाँ से चलना पड़ेगा जहाँ से काँग्रेस का वालंटियर हुआ और फिर यहाँ आकर के होते-होते वहाँ आ गया, जहाँ अब हूँ। वह बड़ी लम्बी कहानी है। उन सब कहानियों का अनुभव और निष्कर्ष निकालना आपके लिए मुश्किल हो जाएगा। उस पर तो ध्यान नहीं देता, लेकिन मैं सैद्धान्तिक रूप से बताता हूँ। हमने आस्था जगाई, श्रद्धा जगाई, निष्ठा जगाई। निष्ठा, श्रद्धा और आस्था किसके प्रति जगाई? व्यक्ति के ऊपर? व्यक्ति तो माध्यम होते है। हमारे प्रति, गुरुजी के प्रति श्रद्धा है। बेटा, यह तो ठीक है, लेकिन वास्तव में सिद्धान्तों के प्रति श्रद्धा होती है।

आदमियों के प्रति श्रद्धा, मूर्तियों के प्रति श्रद्धा, देवताओं के प्रति श्रद्धा टिकाऊ नहीं होती। इसका कोई ज्यादा महत्त्व नहीं। महत्त्वपूर्ण वह जो सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा होती है। हमारी सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा रही। आजीवन वहाँ से जहाँ से चले, जहाँ से विचार उत्पन्न किया है, वहाँ से लेकर निरन्तर अपनी श्रद्धा की लाठी को टेकते-टेकते यहाँ तक चले आए और यहाँ तक आ पहुँचे। अगर यह श्रद्धा की लाठी हमने पकड़ी न होती तो तब सम्भव है कि हमारा चलना, इतना लम्बा सफर पूरा न होता। यदि सिद्धान्तों के प्रति हम आस्थावान न हुए होते तो सम्भव है कि कितनी बार भटक गए होते और कहाँ से कहाँ चले गए होते और हवा का झोंका उड़ाकर हमको कहाँ ले गया होता? लोभों के झोंके, मोहों के झोंके, नामवरी के झोंके, यश के झोंके, दबाव के झोंके ऐसे हैं कि आदमी को लम्बी राह पर चलने के लिए मजबूर कर देते है और कहीं से कहीं घसीट ले जाते हैं। हमको भी घसीट ले गए होते। ये आदमियों को घसीट ले जाते हैं। बहुत-से व्यक्ति थे जो सिद्धान्तवाद की राह पर चले और कहाँ से कहाँ जा पहुँचे?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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