एक राजा के तीन पुत्रियाँ थीं और तीनों बडी ही समझदार थी। वे तीनो राजमहल मे बडे आराम से रहती थी। एक दिन राजा अपनी तीनों पुत्रियों सहित भोजन कर रहे थे, कि अचानक राजा ने बातों ही बातों मे अपनी तीनों पुत्रियो से कहा- एक बात बताओ, तुम तीनो अपने भाग्य से खाते-पीते हो या मेरे भाग्य से?"
दो बडी पुत्रियो ने कहा कि- "पिताजी हम आपके भाग्य से खाते हैं। यदि आप हमारे पिता महाराज न होते, तो हमें इतनी सुख-सुविधा व विभिन्न प्रकार के व्यंजन खाने को नसीब नहीं होते। ये सब आपके द्वारा अर्जित किया गया वैभव है, जिसे हम भोग रहे हैं।"
पुत्रियों के मुँह से यह सुन कर राजा को अपने आप पर बडा गर्व और खु:शी हो रही थी लेकिन राजा की सबसे छोटी पुत्री ने इसी प्रश्न के उत्तर में कहा कि- "पिताजी मैं आपके भाग्य से नहीं बल्कि अपने स्वयं के भाग्य से यह सब वैभव भोग रही हुँ।" छोटी पुत्री के मुँख से ये बात सुन राजा के अहंकार को बडी ठेस लगी। उसे गुस्सा भी आया और शोक भी हुआ क्योंकि उसे अपनी सबसे छोटी पुत्री से इस प्रकार के जवाब की आशा नहीं थी।
समय बीतता गया, लेकिन राजा अपनी सबसे छोटी पुत्री की वह बात भुला नहीं पाया और समय आने पर राजा ने अपनी दोनो बडी पुत्रियो की विवाह दो राजकुमारो से करवा दिया परन्तु सबसे छोटी पुत्री का विवाह क्रोध के कारण एक गरीब लक्कडहारे से कर दिया और विदाई देते समय उसे वह बात याद दिलाते हुए कहा कि- "यदि तुम अपने भाग्य से राज वैभव का सुख भोग रही थी, तो तुम्हें उस गरीब लकड़हारे के घर भी वही राज वैभव का सुख प्राप्त होगा, अन्यथा तुम्हें भी ये मानना पडे़गा कि तुम्हे आज तक जो राजवैभव का सुख मिला, वह तुम्हारे नहीं बल्कि मेरे भाग्य से मिला।"
चूंकि, लक्कडहारा बहुत ही गरीब था, इसलिए निश्चित ही राजकुमारी को राजवैभव वाला सुख तो प्राप्त नहीं हो रहा था। लक्कड़हारा दिन भर लकडी काटता और उन्हें बेच कर मुश्किल से ही अपना गुजारा कर पाता था। सो, राजकुमारी के दिन बडे ही कष्ट दायी बीत रहे थे लेकिन वह निश्चित थी, क्योंकि राजकुमारी यही सोचती कि यदि उसे मिलने वाले राजवैभव का सुख उसे उसके भाग्य से मिला था, तो निश्चित ही उसे वह सुख गरीब लक्कड़हारे के यहाँ भी मिलेगा।
एक दिन राजा ने अपनी सबसे छोटी पुत्री का हाल जानना चाहा तो उसने अपने कुछ सेवको को उसके घर भेजा और सेवको से कहलवाया कि राजकुमारी को किसी भी प्रकार की सहायता चाहिए तो वह अपने पिता को याद कर सकती है क्योंकि यदि उसका भाग्य अच्छा होता, तो वह भी किसी राजकुमार की पत्नि होती।
लेकिन राजकुमारी ने किसी भी प्रकार की सहायता लेने से मना कर दिया, जिससे महाराज को और भी ईर्ष्या हुई अपनी पुत्री से। क्राेध के कारण महाराज ने उस जंगल को ही निलाम करने का फैसला कर लिया जिस पर उस लक्कड़हारे का जीवन चल रहा था।
एक दिन लक्कडहारा बहुत ही चिंता मे अपने घर आया और अपना सिर पकड़ कर झोपडी के एक कोने मे बैठ गया। राजकुमारी ने अपने पति को चिंता में देखा तो चिंता का कारण पूछा और लक्कड़हारे ने अपनी चिंता बताते हुए कहा कि- "जिस जंगल में मैं लकडी काटता हुँ, वह कल निलाम हो रहा है और जंगल को खरीदने वाले को एक माह में सारा धन राजकोष में जमा करना होगा, पर जंगल के निलाम हो जाने के बाद मेरे पास कोई काम नही रहेगा, जिससे हम अपना गुजारा कर सके।"
चूंकि, राजकुमारी बहुत समझदार थी, सो उसने एक तरकीब लगाई और लक्कडहारे से कहा कि- "जब जंगल की बोली लगे, तब तुम एक काम करना, तुम हर बोली मे केवल एक रूपया बोली बढ़ा देना।"
दूसरे दिन लक्कड़हारा जंगल गया और नीलामी की बोली शुरू हुई और राजकुमारी के समझाए अनुसार जब भी बोली लगती, तो लक्कड़हारा हर बोली पर एक रूपया बढा कर बोली लगा देता। परिणामस्वरूप अन्त में लक्कड़हारे की बोली पर वह जंगल बिक गया लेकिन अब लक्कड़हारे को और भी ज्यादा चिंता हुई क्योंकि वह जंगल पांच लाख में लक्कड़हारे के नाम पर छूटा था जबकि लक्कड़हारे के पास रात्रि के भोजन की व्यवस्था हो सके, इतना पैसा भी नही था।
आखिर घोर चिंता में घिरा हुआ वह अपने घर पहुँचा और सारी बात अपनी पत्नि से कही। राजकुमारी ने कहा- "चिंता न करें आप, आप जिस जंगल में लकड़ी काटने जाते है वहाँ मैं भी आई थी एक दिन, जब आप भोजन करने के लिए घर नही आये थे और मैं आपके लिए भोजन लेकर आई थी। तब मैंने वहाँ देखा कि जिन लकडियों को आप काट रहे थे, वह तो चन्दन की थी। आप एक काम करें। आप उन लकड़ीयों को दूसरे राज्य के महाराज को बेंच दें। चुंकि एक माह में जंगल का सारा धन चुकाना है सो हम दोनों मेहनत करके उस जंगल की लकडि़या काटेंगे और साथ में नये पौधे भी लगाते जायेंगे और सारी लकड़ीया राजा-महाराजाओ को बेंच दिया करेंगे।"
लक्कड़हारे ने अपनी पत्नि से पूंछा कि "क्या महाराज को नही मालुम होगा कि उनके राज्य के जंगल में चन्दन का पेड़ भी है।"
राजकुमारी ने कहा- "मालुम है, परन्तु वह जंगल किस और है, यह नही मालुम है।"
लक्कड़हारे को अपनी पत्नि की बात समझ में आ गई और दोनो ने कड़ी मेहनत से चन्दन की लकड़ीयों को काटा और दूर-दराज के राजाओं को बेंच कर जंगल की सारी रकम एक माह में चुका दी और नये पौधों की खेप भी रूपवा दी ताकि उनका काम आगे भी चलता रहे।
धीरे-धीरे लक्कड़हारा और राजकुमारी धनवान हो गए। लक्कड़हारा और राजकुमारी ने अपना महल बनवाने की सोच एक-दूसरे से विचार-विमर्श करके काम शुरू करवाया। लक्कड़हारा दिन भर अपने काम को देखता और राजकुमारी अपने महल के कार्य का ध्यान रखती। एक दिन राजकुमारी अपने महल की छत पर खडी होकर मजदूरो का काम देख रही थी कि अचानक उसे अपने महाराज पिता और अपना पूरा राज परिवार मजदूरो के बीच मजदूरी करता हुआ नजर आता है।
राजकुमारी अपने परिवारवालों को देख सेवको को तुरन्त आदेश देती है कि वह उन मजदूरो को छत पर ले आये। सेवक राजकुमारी की बात मान कर वैसा ही करते हैं। महाराज अपने परिवार सहित महल की छत पर आ जाते हैं और अपनी पुत्री को महल में देख आर्श्चय से पूछते हैं कि तुम महल में कैसे?
राजकुमारी अपने पिता से कहती है कि- "महाराज… आपने जिस जंगल को निलाम करवाया, वह हमने ही खरीदा था क्योंकि वह जंगल चन्दन के पेड़ों का था।"
और फिर राजकुमारी ने सारी बातें राजा को कह सुनाई। अन्त में राजा ने स्वीकार किया कि उसकी पुत्री सही थी।
दो बडी पुत्रियो ने कहा कि- "पिताजी हम आपके भाग्य से खाते हैं। यदि आप हमारे पिता महाराज न होते, तो हमें इतनी सुख-सुविधा व विभिन्न प्रकार के व्यंजन खाने को नसीब नहीं होते। ये सब आपके द्वारा अर्जित किया गया वैभव है, जिसे हम भोग रहे हैं।"
पुत्रियों के मुँह से यह सुन कर राजा को अपने आप पर बडा गर्व और खु:शी हो रही थी लेकिन राजा की सबसे छोटी पुत्री ने इसी प्रश्न के उत्तर में कहा कि- "पिताजी मैं आपके भाग्य से नहीं बल्कि अपने स्वयं के भाग्य से यह सब वैभव भोग रही हुँ।" छोटी पुत्री के मुँख से ये बात सुन राजा के अहंकार को बडी ठेस लगी। उसे गुस्सा भी आया और शोक भी हुआ क्योंकि उसे अपनी सबसे छोटी पुत्री से इस प्रकार के जवाब की आशा नहीं थी।
समय बीतता गया, लेकिन राजा अपनी सबसे छोटी पुत्री की वह बात भुला नहीं पाया और समय आने पर राजा ने अपनी दोनो बडी पुत्रियो की विवाह दो राजकुमारो से करवा दिया परन्तु सबसे छोटी पुत्री का विवाह क्रोध के कारण एक गरीब लक्कडहारे से कर दिया और विदाई देते समय उसे वह बात याद दिलाते हुए कहा कि- "यदि तुम अपने भाग्य से राज वैभव का सुख भोग रही थी, तो तुम्हें उस गरीब लकड़हारे के घर भी वही राज वैभव का सुख प्राप्त होगा, अन्यथा तुम्हें भी ये मानना पडे़गा कि तुम्हे आज तक जो राजवैभव का सुख मिला, वह तुम्हारे नहीं बल्कि मेरे भाग्य से मिला।"
चूंकि, लक्कडहारा बहुत ही गरीब था, इसलिए निश्चित ही राजकुमारी को राजवैभव वाला सुख तो प्राप्त नहीं हो रहा था। लक्कड़हारा दिन भर लकडी काटता और उन्हें बेच कर मुश्किल से ही अपना गुजारा कर पाता था। सो, राजकुमारी के दिन बडे ही कष्ट दायी बीत रहे थे लेकिन वह निश्चित थी, क्योंकि राजकुमारी यही सोचती कि यदि उसे मिलने वाले राजवैभव का सुख उसे उसके भाग्य से मिला था, तो निश्चित ही उसे वह सुख गरीब लक्कड़हारे के यहाँ भी मिलेगा।
एक दिन राजा ने अपनी सबसे छोटी पुत्री का हाल जानना चाहा तो उसने अपने कुछ सेवको को उसके घर भेजा और सेवको से कहलवाया कि राजकुमारी को किसी भी प्रकार की सहायता चाहिए तो वह अपने पिता को याद कर सकती है क्योंकि यदि उसका भाग्य अच्छा होता, तो वह भी किसी राजकुमार की पत्नि होती।
लेकिन राजकुमारी ने किसी भी प्रकार की सहायता लेने से मना कर दिया, जिससे महाराज को और भी ईर्ष्या हुई अपनी पुत्री से। क्राेध के कारण महाराज ने उस जंगल को ही निलाम करने का फैसला कर लिया जिस पर उस लक्कड़हारे का जीवन चल रहा था।
एक दिन लक्कडहारा बहुत ही चिंता मे अपने घर आया और अपना सिर पकड़ कर झोपडी के एक कोने मे बैठ गया। राजकुमारी ने अपने पति को चिंता में देखा तो चिंता का कारण पूछा और लक्कड़हारे ने अपनी चिंता बताते हुए कहा कि- "जिस जंगल में मैं लकडी काटता हुँ, वह कल निलाम हो रहा है और जंगल को खरीदने वाले को एक माह में सारा धन राजकोष में जमा करना होगा, पर जंगल के निलाम हो जाने के बाद मेरे पास कोई काम नही रहेगा, जिससे हम अपना गुजारा कर सके।"
चूंकि, राजकुमारी बहुत समझदार थी, सो उसने एक तरकीब लगाई और लक्कडहारे से कहा कि- "जब जंगल की बोली लगे, तब तुम एक काम करना, तुम हर बोली मे केवल एक रूपया बोली बढ़ा देना।"
दूसरे दिन लक्कड़हारा जंगल गया और नीलामी की बोली शुरू हुई और राजकुमारी के समझाए अनुसार जब भी बोली लगती, तो लक्कड़हारा हर बोली पर एक रूपया बढा कर बोली लगा देता। परिणामस्वरूप अन्त में लक्कड़हारे की बोली पर वह जंगल बिक गया लेकिन अब लक्कड़हारे को और भी ज्यादा चिंता हुई क्योंकि वह जंगल पांच लाख में लक्कड़हारे के नाम पर छूटा था जबकि लक्कड़हारे के पास रात्रि के भोजन की व्यवस्था हो सके, इतना पैसा भी नही था।
आखिर घोर चिंता में घिरा हुआ वह अपने घर पहुँचा और सारी बात अपनी पत्नि से कही। राजकुमारी ने कहा- "चिंता न करें आप, आप जिस जंगल में लकड़ी काटने जाते है वहाँ मैं भी आई थी एक दिन, जब आप भोजन करने के लिए घर नही आये थे और मैं आपके लिए भोजन लेकर आई थी। तब मैंने वहाँ देखा कि जिन लकडियों को आप काट रहे थे, वह तो चन्दन की थी। आप एक काम करें। आप उन लकड़ीयों को दूसरे राज्य के महाराज को बेंच दें। चुंकि एक माह में जंगल का सारा धन चुकाना है सो हम दोनों मेहनत करके उस जंगल की लकडि़या काटेंगे और साथ में नये पौधे भी लगाते जायेंगे और सारी लकड़ीया राजा-महाराजाओ को बेंच दिया करेंगे।"
लक्कड़हारे ने अपनी पत्नि से पूंछा कि "क्या महाराज को नही मालुम होगा कि उनके राज्य के जंगल में चन्दन का पेड़ भी है।"
राजकुमारी ने कहा- "मालुम है, परन्तु वह जंगल किस और है, यह नही मालुम है।"
लक्कड़हारे को अपनी पत्नि की बात समझ में आ गई और दोनो ने कड़ी मेहनत से चन्दन की लकड़ीयों को काटा और दूर-दराज के राजाओं को बेंच कर जंगल की सारी रकम एक माह में चुका दी और नये पौधों की खेप भी रूपवा दी ताकि उनका काम आगे भी चलता रहे।
धीरे-धीरे लक्कड़हारा और राजकुमारी धनवान हो गए। लक्कड़हारा और राजकुमारी ने अपना महल बनवाने की सोच एक-दूसरे से विचार-विमर्श करके काम शुरू करवाया। लक्कड़हारा दिन भर अपने काम को देखता और राजकुमारी अपने महल के कार्य का ध्यान रखती। एक दिन राजकुमारी अपने महल की छत पर खडी होकर मजदूरो का काम देख रही थी कि अचानक उसे अपने महाराज पिता और अपना पूरा राज परिवार मजदूरो के बीच मजदूरी करता हुआ नजर आता है।
राजकुमारी अपने परिवारवालों को देख सेवको को तुरन्त आदेश देती है कि वह उन मजदूरो को छत पर ले आये। सेवक राजकुमारी की बात मान कर वैसा ही करते हैं। महाराज अपने परिवार सहित महल की छत पर आ जाते हैं और अपनी पुत्री को महल में देख आर्श्चय से पूछते हैं कि तुम महल में कैसे?
राजकुमारी अपने पिता से कहती है कि- "महाराज… आपने जिस जंगल को निलाम करवाया, वह हमने ही खरीदा था क्योंकि वह जंगल चन्दन के पेड़ों का था।"
और फिर राजकुमारी ने सारी बातें राजा को कह सुनाई। अन्त में राजा ने स्वीकार किया कि उसकी पुत्री सही थी।