बुधवार, 11 दिसंबर 2019

👉 अपना अपना भाग्‍य

एक राजा के तीन पुत्रियाँ थीं और तीनों बडी ही समझदार थी। वे तीनो राजमहल मे बडे आराम से रहती थी। एक दिन राजा अपनी तीनों पुत्रियों सहित भोजन कर रहे थे, कि अचानक राजा ने बातों ही बातों मे अपनी तीनों पुत्रियो से कहा- एक बात बताओ, तुम तीनो अपने भाग्‍य से खाते-पीते हो या मेरे भाग्‍य से?"

दो बडी पुत्रियो ने कहा कि- "पिताजी हम आपके भाग्‍य से खाते हैं। यदि आप हमारे पिता महाराज न होते, तो हमें इतनी सुख-सुविधा व विभिन्‍न प्रकार के व्‍यंजन खाने को नसीब नहीं होते। ये सब आपके द्वारा अर्जित किया गया वैभव है, जिसे हम भोग रहे हैं।"

पुत्रियों के मुँह से यह सुन कर राजा को अपने आप पर बडा गर्व और खु:शी हो रही थी लेकिन राजा की सबसे छोटी पुत्री ने इसी प्रश्‍न के उत्‍तर में कहा कि- "पिताजी मैं आपके भाग्‍य से नहीं बल्कि अपने स्‍वयं के भाग्‍य से यह सब वैभव भोग रही हुँ।" छोटी पुत्री के मुँख से ये बात सुन राजा के अहंकार को बडी ठेस लगी। उसे गुस्‍सा भी आया और शोक भी हुआ क्‍योंकि उसे अपनी सबसे छोटी पुत्री से इस प्रकार के जवाब की आशा नहीं थी।

समय बीतता गया, लेकिन राजा अपनी सबसे छोटी पुत्री की वह बात भुला नहीं पाया और समय आने पर राजा ने अपनी दोनो बडी पुत्रियो की विवाह दो राजकुमारो से करवा दिया परन्‍तु सबसे छोटी पुत्री का विवाह क्रोध के कारण एक गरीब लक्‍कडहारे से कर दिया और विदाई देते समय उसे वह बात याद दिलाते हुए कहा कि- "यदि तुम अपने भाग्‍य से राज वैभव का सुख भोग रही थी, तो तुम्‍हें उस गरीब लकड़हारे के घर भी वही राज वैभव का सुख प्राप्‍त होगा, अन्‍यथा तुम्‍हें भी ये मानना पडे़गा कि तुम्‍हे आज तक जो राजवैभव का सुख मिला, वह तुम्‍हारे नहीं बल्कि मेरे भाग्‍य से मिला।"

चूंकि, लक्‍कडहारा बहुत ही गरीब था, इसलिए निश्चित ही राजकुमारी को राजवैभव वाला सुख तो प्राप्‍त नहीं हो रहा था। लक्‍कड़हारा दिन भर लकडी काटता और उन्‍हें बेच कर मुश्किल से ही अपना गुजारा कर पाता था। सो, राजकुमारी के दिन बडे ही कष्‍ट दायी बीत रहे थे लेकिन वह निश्चित थी, क्‍योंकि राजकुमारी यही सोचती कि यदि उसे मिलने वाले राजवैभव का सुख उसे उसके भाग्‍य से मिला था, तो निश्चित ही उसे वह सुख गरीब लक्‍कड़हारे के यहाँ भी मिलेगा।

एक दिन राजा ने अपनी सबसे छोटी पुत्री का हाल जानना चाहा तो उसने अपने कुछ सेवको को उसके घर भेजा और सेवको से कहलवाया कि राजकुमारी को किसी भी प्रकार की सहायता चाहिए तो वह अपने पिता को याद कर सकती है क्‍योंकि यदि उसका भाग्‍य अच्‍छा होता, तो वह भी किसी राजकुमार की पत्नि होती।

लेकिन राजकुमारी ने किसी भी प्रकार की सहायता लेने से मना कर दिया, जिससे महाराज को और भी ईर्ष्‍या हुई अपनी पुत्री से। क्राेध के कारण महाराज ने उस जंगल को ही निलाम करने का फैसला कर लिया जिस पर उस लक्‍कड़हारे का जीवन चल रहा था।

एक दिन लक्‍कडहारा बहुत ही चिंता मे अपने घर आया और अपना सिर पकड़ कर झोपडी के एक कोने मे बैठ गया। राजकुमारी ने अपने पति को चिंता में देखा तो चिंता का कारण पूछा और लक्‍कड़हारे ने अपनी चिंता बताते हुए कहा कि- "जिस जंगल में मैं लकडी काटता हुँ, वह कल निलाम हो रहा है और जंगल को खरीदने वाले को एक माह में सारा धन राजकोष में जमा करना होगा, पर जंगल के निलाम हो जाने के बाद मेरे पास कोई काम नही रहेगा, जिससे हम अपना गुजारा कर सके।"

चूंकि, राजकुमारी बहुत समझदार थी, सो उसने एक तरकीब लगाई और लक्‍कडहारे से कहा कि- "जब जंगल की बोली लगे, तब तुम एक काम करना, तुम हर बोली मे केवल एक रूपया बोली बढ़ा देना।"

दूसरे दिन लक्‍कड़हारा जंगल गया और नीलामी की बोली शुरू हुई और राजकुमारी के समझाए अनुसार जब भी बोली लगती, तो लक्‍कड़हारा हर बोली पर एक रूपया बढा कर बोली लगा देता। परिणामस्‍वरूप अन्‍त में लक्‍कड़हारे की बोली पर वह जंगल बिक गया लेकिन अब लक्‍कड़हारे को और भी ज्‍यादा चिंता हुई क्‍योंकि वह जंगल पांच लाख में लक्‍कड़हारे के नाम पर छूटा था जबकि लक्‍कड़हारे के पास रात्रि के भोजन की व्‍यवस्‍था हो सके, इतना पैसा भी नही था।

आखिर घोर चिंता में घिरा हुआ वह अपने घर पहुँचा और सारी बात अपनी पत्नि से कही। राजकुमारी ने कहा- "चिंता न करें आप, आप जिस जंगल में लकड़ी काटने जाते है वहाँ मैं भी आई थी एक दिन, जब आप भोजन करने के लिए घर नही आये थे और मैं आपके लिए भोजन लेकर आई थी। तब मैंने वहाँ देखा कि जिन लकडियों को आप काट रहे थे, वह तो चन्‍दन की थी। आप एक काम करें। आप उन लकड़ीयों को दूसरे राज्‍य के महाराज को बेंच दें। चुंकि एक माह में जंगल का सारा धन चुकाना है सो हम दोनों मेहनत करके उस जंगल की लकडि़या काटेंगे और साथ में नये पौधे भी लगाते जायेंगे और सारी लकड़ीया राजा-महाराजाओ को बेंच दिया करेंगे।"

लक्‍कड़हारे ने अपनी पत्नि से पूंछा कि "क्‍या महाराज को नही मालुम होगा कि उनके राज्‍य के जंगल में चन्‍दन का पेड़ भी है।"

राजकुमारी ने कहा- "मालुम है, परन्‍तु वह जंगल किस और है, यह नही मालुम है।"

लक्‍कड़हारे को अपनी पत्नि की बात समझ में आ गई और दोनो ने कड़ी मेहनत से चन्‍दन की लकड़ीयों को काटा और दूर-दराज के राजाओं को बेंच कर जंगल की सारी रकम एक माह में चुका दी और नये पौधों की खेप भी रूपवा दी ताकि उनका काम आगे भी चलता रहे।

धीरे-धीरे लक्‍कड़हारा और राजकुमारी धनवान हो गए। लक्‍कड़हारा और राजकुमारी ने अपना महल बनवाने की सोच एक-दूसरे से विचार-विमर्श करके काम शुरू करवाया। लक्‍कड़हारा दिन भर अपने काम को देखता और राजकुमारी अपने महल के कार्य का ध्‍यान रखती। एक दिन राजकुमारी अपने महल की छत पर खडी होकर मजदूरो का काम देख रही थी कि अचानक उसे अपने महाराज पिता और अपना पूरा राज परिवार मजदूरो के बीच मजदूरी करता हुआ नजर आता है।

राजकुमारी अपने परिवारवालों को देख सेवको को तुरन्‍त आदेश देती है कि वह उन मजदूरो को छत पर ले आये। सेवक राजकुमारी की बात मान कर वैसा ही  करते हैं। महाराज अपने परिवार सहित महल की छत पर आ जाते हैं और अपनी पुत्री को महल में देख आर्श्‍चय से पूछते हैं कि तुम महल में कैसे?

राजकुमारी अपने पिता से कहती है कि- "महाराज… आपने जिस जंगल को निलाम करवाया, वह हमने ही खरीदा था क्‍योंकि वह जंगल चन्‍दन के पेड़ों का था।"

और फिर राजकुमारी ने सारी बातें राजा को कह सुनाई। अन्‍त में राजा ने स्‍वीकार किया कि उसकी पुत्री सही थी।

👉 शक्ति पूजा का रहस्य

शक्ति पूजा के लिए जरूरी है- शक्ति संचय। इसके बिना न तो शक्ति पूजा बन पड़ती है और न ही जीवन में इसके सुफल मिल पाते हैं। जहाँ शक्ति का संचय होता है, वहीं सुख-सत्कार व शान्ति के पुष्प बरसते हैं। इसके विपरीत जहाँ शक्ति का अभाव होता है, वहाँ दुःख, तिरस्कार व कलह के काँटे ही बिखरे रहते हैं। जो शक्ति का संचय करते हैं, उन्हें ही समर्थ, बलवान्, बुद्धिमान् व सौभाग्यशाली कहा जाता है। शक्ति संचय की उपेक्षा करने वाले तो असहाय, अशक्त, निर्बल, दुर्बल व दरिद्र कहकर पग-पग पर अपने दुर्भाग्य की यातना सहते हैं।
  
जो शक्ति पूजा के इच्छुक हैं, उन्हें शक्ति संचय के लिए भी कमर कसनी पड़ेगी। उनको अभी और इसी क्षण से माँ महाशक्ति की पूजा के लिए पंचोपचार की तैयारी करनी होगी। इन पंचोपचारों के क्रम में पहली है- शारीरिक शक्ति, २. मानसिक शक्ति, ३. भावनात्मक शक्ति, ४. आर्थिक शक्ति एवं ५. आध्यात्मिक शक्ति। इन पाँच शक्तियों का अभाव ही मानव को पीड़ा की प्रताड़ना सहने के लिए विवश करता है। इन्हीं पाँच शक्तियों की बर्बादी मनुष्य को पतन के गहरे अँधेरों में धकेलती है। जबकि इन पाँचों शक्तियों के संचय से व्यक्ति की प्रसन्नता शतगुणित होती है और सत्कर्मों में इनके सद्व्यय से वह निरन्तर उत्थान के सोपान चढ़ता है।
  
नवरात्रि के नौ दिन शक्ति पूजा के इसी रहस्य को समझने के दिन हैं। इन नौ दिनों में हमें अपनी संचित शक्ति से माँ भगवती की पूजा करनी है। इन नौ दिनों में यूं तो अनगिन रहस्य समाये हैं किन्तु प्रधानतया इन रहस्यों की संख्या नौ ही है, जो गायत्री के महामंत्र के नौ शब्दों १. तत्, २. सवितुः, ३. वरेण्यं, ४. भर्गो, ५. देवस्य, ६. धीमहि, ७. धियो, ८.योनः ९. प्रचोदयात् में समाहित हैं। इन्हीं नौ शब्दों की महिमा से भूः भुवः स्वः के रूप में स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण इन तीन शरीरों की सभी शक्तियों का जागरण होता है और इसी के फलस्वरूप ॐकार के परम पद की प्राप्ति होती है। पर ऐसा होता उन्हीं के जीवन में है, जो अपने जीवन के क्षण-क्षण में शक्ति के कण-कण का संचय करते हैं और साथ ही सत्कर्मों के रूप में इसका सद्व्यय करके विश्व-व्यापिनी माँ जगदम्बा गायत्री की अर्चना-आराधना करते हैं।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४१

👉 MISCONCEPTIONS ABOUT ELIGIBILITY FOR GAYATRI SADHANA (Part 3)

Q.3. Do Brahmans have a special privilege to do Gayatri Sadhana?

Ans. The professed proprietary right of Brahmans (by birth) on Gayatri worship is ridiculous. Credit for embodiment and elaboration of mysticism of Mahamantra Gayatri goes to rishi Vishwamitra, who belonged to Kshatriya caste by birth. Thus, even if the caste is considered essential for Gayatri worship, the Kshatriyas should have priority over other castes.
  
The concept of Brahmanism has an entirely different connotation. A Brahman is one who conforms to the wisdom of Brahma (Brahmaparayan) and has an exemplary character. Only such persons of refined character can derive maximum advantage from Gayatri worship. It has been said that Gayatri is Kamdhenu of Brahmans. In several Sanskrit couplets, Dwijs alone have been described as entitled to worship Gayatri.

Traditionally, the words Dwij and Brahman have been considered as synonymous. In this way each Dwij or Brahman was supposed to have the exclusive privilege of worship of Gayatri. Does it mean that individuals belonging to other castes were scripturally prohibited from worshipping Gayatri?

The confusion has arisen because of misunderstanding of the meanings of words like Brahman, Dwij and caste, which are being misconstrued as hereditary distinctions conferred by God on various classes of society. Nothing can be more absurd than considering the Creator as  discriminative and partial, making people take birth in a family of high or low caste.

When scriptures declare that Gayatri is kamdhenu of Brahmans i.e. Gayatri fulfils all desires of a Brahman, they mean that any human being who diligently aspires to be a Brahman by following righteousness in thoughts, words and  deeds gets an access to the benefits of Gayatri. That is to say, Brahmanism is a pre-requisite for Gayatri worship.

As regards the world Dwij it literally means ‘born again’. The initiation to Gayatri is the spiritual birth of a person, who has otherwise taken birth as any other animal. This initiation or Diksha is like ‘Baptism’ amongst the Christians and is akin  to admission in the primary class of the school of spirituality. The concept of caste has been grossly distorted, misunderstood and misappropriated by vested interests. In Vedic times, division of civic responsibilities into four classes of people who were given education and training pertaining to their respective assignments was considered expedient. Each of this class was referred to as a varna. In course of time, when successive generations began to follow the same profession varnas got ossified into ‘castes’. With the  change in social environment, certain castes assumed greater prominence in the society and in order to retain their supremacy propagated the concept of caste by birth as a God-given status.    

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 30

👉 तेरा विश्वास शक्ति बने, याचना नहीं

हे प्रभो! मेरी केवल एक ही कामना है कि मैं संकटों से डर कर भागूं नहीं, उनका सामना करूं। इसलिए मेरी यह प्रार्थना नहीं है कि संकट के समय तुम मेरी रक्षा करो बल्कि मैं तो इतना ही चाहता हूँ कि तुम उनसे जूझने का बल दो। मैं यह भी नहीं चाहता कि जब दुःख सन्ताप से मेरा चित्त व्यथित हो जाय तब तुम मुझे सान्त्वना दो। मैं अपनी अञ्जलि के भाव सुमन तुम्हारे चरणों में अर्पित करते हुए इतना ही माँगता हूँ कि तुम मुझे अपने दुःखों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति दो।

जब किसी कष्टप्रद और संकट की घड़ी में मुझे कहीं से कोई सहायता न मिले तो मैं हिम्मत न हारूं। किसी और स्रोत से सहायता की याचना न करूँ, न उन घड़ियों में मेरा मनोबल क्षीण होने पाये। हे प्रभो! मुझे ऐसी दृढ़ता और शक्ति देना जिससे कि मैं कठिन से कठिन घड़ियों में भी−संकटों और समस्याओं के सामने भी दृढ़ रह सकूँ और तुम्हें हर घड़ी अपने साथ देखते हुए उन्हें हँसी खेल समझ कर अपने चित्त को हल्का रखूँ। मैं बस यही चाहता हूँ।

चाहे जैसी ही प्रतिकूलताएँ हों, व्यवहार में मुझे कितनी ही हानि क्यों न उठानी पड़े इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं है। लेकिन प्रभु मुझे इतना कमजोर मत होने देना कि मैं आसन्न संकटों को देखकर हिम्मत हार बैठूँ और यह रोने बैठ जाऊँ कि अब क्या करूँ मेरा सर्वस्व छिन गया।

प्रभु तुम्हारा और केवल तुम्हारा विश्वास ग्रहण कर लोगों ने अकिंचन अवस्था में रहते हुए भी इतिहास की श्रेष्ठ उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। मैं इतना ही चाहता हूँ कि तुम्हारा विश्वास मेरे लिए शक्ति बने याचना नहीं, सम्बल बने−क्षीणता नहीं। बस इतनी ही कृपा करना।

रवींद्रनाथ टैगोर
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1978 पृष्ठ 1

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1978/March/v1/

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