🌹 संवेदना का सरोवर सूखने न दें
🔴 प्रस्तुत समस्याएँ अगणित हैं। उलझनों, संकटों, विग्रहों का कोई अन्त नहीं। यह सब कहाँ से उत्पन्न होते हैं और क्यों कर निपट सकते हैं? इसकी विवेचना करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मात्र अपने आपे तक, गिने-चुने अपनों तक सीमित रहने वाला किन्हीं अन्यों की चिन्ता नहीं कर सकता और न उदार न्यायनिष्ठा का ही परिचय दे सकता है। ऐसी दशा में अनाचार के अतिरिक्त और कुछ बन ही न पड़ेगा और उसका प्रतिफल अनेकानेक विग्रहों के रूप में ही आकर रहेगा। यही दुष्प्रवृत्ति जब बहुसंख्यक लोगों द्वारा अपनाई जाती है, तो उसका परिणाम वातावरण को विक्षुब्ध किए बिना नहीं रहता।
🔵 संवेदना, आत्मीयता के रूप में विकसित होती है। तब मनुष्य दूसरों के दु:ख को अपना दु:ख, अन्यों के सुख को अपना सुख मानने लगता है। सहानुभूति के रहते ऐसा व्यवहार करना सम्भव नहीं होता है, जिनसे किसी के अधिकारों का अपहरण होता हो अथवा किसी को शोषण का शिकार बनना पड़ता हो। जब प्रचलन इसी प्रकार का रहेगा तो न दुर्व्यवहार ही बन पड़ेगा और न किन्हीं को अकारण त्रास सहना पड़ेगा।
🔴 आमतौर से अपना, अपनों का हितसाधन ही अभीष्ट रहता है। यदि यह आत्मभाव सुविस्तृत होता चला जाए, जनसमुदाय को अपने अंचल में लपेट ले, अन्य प्राणियों को भी अपने कुटुम्बी जैसा माने, अपने जैसा समझे; फिर वैसा ही सोचते रहते बन पड़ेगा, जिससे सुख-शान्ति का पथ प्रशस्त होता हो। मात्र आतुरता और निष्ठुरता ही ऐसी दुष्प्रवृत्ति है जो अनाचार के लिए उकसाती है और उसके फलस्वरूप अगणित संकटों का परिकर विनिर्मित करती है। यदि भाव-संवेदना जीवन्त और सक्रिय बनी रहे तो सृजन और सहयोग के आधार पर उत्थान और कल्याण का सुयोग सर्वत्र ही बन पड़ेगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 प्रस्तुत समस्याएँ अगणित हैं। उलझनों, संकटों, विग्रहों का कोई अन्त नहीं। यह सब कहाँ से उत्पन्न होते हैं और क्यों कर निपट सकते हैं? इसकी विवेचना करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मात्र अपने आपे तक, गिने-चुने अपनों तक सीमित रहने वाला किन्हीं अन्यों की चिन्ता नहीं कर सकता और न उदार न्यायनिष्ठा का ही परिचय दे सकता है। ऐसी दशा में अनाचार के अतिरिक्त और कुछ बन ही न पड़ेगा और उसका प्रतिफल अनेकानेक विग्रहों के रूप में ही आकर रहेगा। यही दुष्प्रवृत्ति जब बहुसंख्यक लोगों द्वारा अपनाई जाती है, तो उसका परिणाम वातावरण को विक्षुब्ध किए बिना नहीं रहता।
🔵 संवेदना, आत्मीयता के रूप में विकसित होती है। तब मनुष्य दूसरों के दु:ख को अपना दु:ख, अन्यों के सुख को अपना सुख मानने लगता है। सहानुभूति के रहते ऐसा व्यवहार करना सम्भव नहीं होता है, जिनसे किसी के अधिकारों का अपहरण होता हो अथवा किसी को शोषण का शिकार बनना पड़ता हो। जब प्रचलन इसी प्रकार का रहेगा तो न दुर्व्यवहार ही बन पड़ेगा और न किन्हीं को अकारण त्रास सहना पड़ेगा।
🔴 आमतौर से अपना, अपनों का हितसाधन ही अभीष्ट रहता है। यदि यह आत्मभाव सुविस्तृत होता चला जाए, जनसमुदाय को अपने अंचल में लपेट ले, अन्य प्राणियों को भी अपने कुटुम्बी जैसा माने, अपने जैसा समझे; फिर वैसा ही सोचते रहते बन पड़ेगा, जिससे सुख-शान्ति का पथ प्रशस्त होता हो। मात्र आतुरता और निष्ठुरता ही ऐसी दुष्प्रवृत्ति है जो अनाचार के लिए उकसाती है और उसके फलस्वरूप अगणित संकटों का परिकर विनिर्मित करती है। यदि भाव-संवेदना जीवन्त और सक्रिय बनी रहे तो सृजन और सहयोग के आधार पर उत्थान और कल्याण का सुयोग सर्वत्र ही बन पड़ेगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य