समाज निर्माणः-
(१) हममें से हर व्यक्ति अपने को समाज का एक अविच्छिन्न अंग मानें। अपने को उसके साथ अविभाज्य घटक मानें। सामूहिक उत्थान और पतन पर विश्वास करें। एक नाव में बैठे लोग जिस तरह एक साथ डूबते या पार होते हैं, वैसी ही मान्यता अपनी रहे। स्वार्थ और परमार्थ को परस्पर गुँथ दें। परमार्थ को स्वार्थ समझें और स्वार्थ सिद्धि की बात कभी ध्यान में आये तो वह संकीर्ण नहीं उदात्त एवं व्यापक हो। मिल जुलकर काम करने और मिल बाँटकर खाने की आदत डाली जाय।
(२)मनुष्यों के बीच सज्जनता, सद्भावना एवं उदार सहयोग की परम्परा चले। दान विपत्ति एवं पिछड़ेपन से ग्रस्त लोगों को पैरों पर खड़े होने तक के लिए दिया जाय। इसके अतिरिक्कत उसका सतत प्रवाह सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए ही नियोजित हो। साधारणतया मुफ्त में खाना और खिलाना अनैतिक समझा जाय। इसमें पारिवारिक या सामाजिक प्रीति भोजों का जहाँ औचित्य हो, वहाँ अपवाद रूप से छूट रहे। भिक्षा व्यवसाय पनपने न दिया जाय। दहेज, मृतक भोज, सदावर्त धर्मशाला आदि ऐसे दान जो मात्र प्रसन्न करने भर के लिये दिये जाते हैं और उस उदारता के लाभ समर्थ लोग उठाते हैं, अनुपयुक्त माने और रोके जायें। साथ ही हर क्षेत्र का पिछड़ापन दूर करने के लिए उदार श्रमदान और धनदान को अधिकाधिक प्रोत्साहित किया जाय।
(३) किसी मान्यता या प्रचलन को शाश्वत या सत्य न माना जाय, उन्हें परिस्थितियों के कारण बना समझा जाय। उनमें जितना औचित्य, न्याय और विवेक जुड़ा हो उतना ग्राह्य और जो अनुपयुक्त होते हुए भी परम्परा के नाम पर गले बंधा हो, उसे उतार फेंका जाय। समय- समय पर इस क्षेत्र का पर्यवेक्षण होते रहना चाहिये और जो असामयिक, अनुपयोगी हो उसे बदल देना चाहिये। इस दृष्टि से लिंग भेद, जाति भेद के नाम पर चलने वाली विषमता सर्वथा अग्राह्य समझी जाय।
.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(१) हममें से हर व्यक्ति अपने को समाज का एक अविच्छिन्न अंग मानें। अपने को उसके साथ अविभाज्य घटक मानें। सामूहिक उत्थान और पतन पर विश्वास करें। एक नाव में बैठे लोग जिस तरह एक साथ डूबते या पार होते हैं, वैसी ही मान्यता अपनी रहे। स्वार्थ और परमार्थ को परस्पर गुँथ दें। परमार्थ को स्वार्थ समझें और स्वार्थ सिद्धि की बात कभी ध्यान में आये तो वह संकीर्ण नहीं उदात्त एवं व्यापक हो। मिल जुलकर काम करने और मिल बाँटकर खाने की आदत डाली जाय।
(२)मनुष्यों के बीच सज्जनता, सद्भावना एवं उदार सहयोग की परम्परा चले। दान विपत्ति एवं पिछड़ेपन से ग्रस्त लोगों को पैरों पर खड़े होने तक के लिए दिया जाय। इसके अतिरिक्कत उसका सतत प्रवाह सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए ही नियोजित हो। साधारणतया मुफ्त में खाना और खिलाना अनैतिक समझा जाय। इसमें पारिवारिक या सामाजिक प्रीति भोजों का जहाँ औचित्य हो, वहाँ अपवाद रूप से छूट रहे। भिक्षा व्यवसाय पनपने न दिया जाय। दहेज, मृतक भोज, सदावर्त धर्मशाला आदि ऐसे दान जो मात्र प्रसन्न करने भर के लिये दिये जाते हैं और उस उदारता के लाभ समर्थ लोग उठाते हैं, अनुपयुक्त माने और रोके जायें। साथ ही हर क्षेत्र का पिछड़ापन दूर करने के लिए उदार श्रमदान और धनदान को अधिकाधिक प्रोत्साहित किया जाय।
(३) किसी मान्यता या प्रचलन को शाश्वत या सत्य न माना जाय, उन्हें परिस्थितियों के कारण बना समझा जाय। उनमें जितना औचित्य, न्याय और विवेक जुड़ा हो उतना ग्राह्य और जो अनुपयुक्त होते हुए भी परम्परा के नाम पर गले बंधा हो, उसे उतार फेंका जाय। समय- समय पर इस क्षेत्र का पर्यवेक्षण होते रहना चाहिये और जो असामयिक, अनुपयोगी हो उसे बदल देना चाहिये। इस दृष्टि से लिंग भेद, जाति भेद के नाम पर चलने वाली विषमता सर्वथा अग्राह्य समझी जाय।
.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य