मंगलवार, 5 अक्टूबर 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ७१)

महातृप्ति के समान है भक्ति का अनुभव

महातपस्वी विद्रुम के अयोध्या आगमन का रहस्य कोई यदि सही ढंग से जानता था तो वह थे स्वयं महातापस विद्रुम, जबकि वे तो अन्तर्लीन-आत्ममग्न दिख रहे थे। ऐसा लग रहा था, जैसे कि वे स्वयं में खोए हों। इस सम्पूर्ण समारम्भ-सम्भार में कोई आकर्षण न था, फिर भी वहाँ पर आए थे, क्यों? यह एक प्रश्नचिह्न था। महाराज अम्बरीश के स्वागत-शिष्टाचार में भी वह सर्वथा स्थितप्रज्ञ दिखे। हाँ! ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से अवश्य वह पूरी आत्मीयता से मिले। इस अवसर पर उनके होठों पर मुस्कराहट और आँखों में एक विशेष चमक दिखी। हालांकि, यह कुछ ही क्षणों के लिए था, फिर वे स्वयं में अन्तर्लीन-भावलीन होने लगे। महर्षि विद्रुम के साथ दो नवयुवक भी थे, जिनके मुख पर साधना का तेज था, तप की प्रभा थी। उनकी आँखों में एक पवित्र दैवी भाव की लहरें उमड़ रही थीं। सम्भवतः वे महर्षि विद्रुम के शिष्य-सेवक थे। उनके मुखमण्डल पर उमड़ते भावों की प्रभा कुछ यही कह रही थी।

शील एवं सुभूति, महर्षि विद्रुम ने उन दोनों का यही परिचय ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को दिया था। विद्रुम के संकेत से इन दोनों ने वशिष्ठ को प्रणाम किया। प्रणाम करते समय इन दोनों का शील-विनय एवं भावमयता सराहनीय थी। प्रणाम के अनन्तर जब इन्होंने शीश ऊपर उठाया, तो इनके नेत्र भीगे हुए थे। पूछने पर उन्होंने केवल इतना कहा कि ‘‘महाभागवत महाराज अम्बरीश के कुलगुरु से हम दोनों भी भक्ति का सूत्र-सत्य सीखने के लिए आए हैं।’’ इनकी ऐसी भावनाएँ निहार कर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ बस केवल इतना ही कह सके- ‘‘अवश्य वत्स! क्यों नहीं, तुम सुयोग्य हो, सत्पात्र हो, तुम्हारी इस विनयशीलता के कारण ही तुम्हें महर्षि विद्रुम का संग प्राप्त हुआ है। यह संग-सान्निध्य देवों के लिए भी दुर्लभ है वत्स! इसके प्रभाव से तुम सब कुछ जान सकोगे, सीख सकोगे।’’

वशिष्ठ से अपने मनोरथ पूर्ण होने का आशीष लेकर वे पुनः अपने गुरु महर्षि विद्रुम के पास आ गए। अभी भी वह सबसे अलग सर्वथा वीतराग भाव से बैठे हुए थे। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने उन्हें देखते हुए पुनः महाराज अम्बरीश को कुछ संकेत किया। इस संकेत को समझकर महाराज अम्बरीश ऋषि विद्रुम के पास पहुँचकर बोले- ‘‘हे देव! एकादशी के परायण का मुहूर्त हो आया है। आइए हम सब भगवान् नारायण की अर्चना करते हुए व्रत का पारायण करें।’’ नारायण का नाम सुनते ही महर्षि विद्रुम के हृदय में भावों का ज्वार उमड़ आया। उनके उठने में बालकों जैसी चपलता एवं त्वरा दिखी। भावों से भीगे मन से उठते हुए वह बस केवल इतना ही कह सके, ‘‘अवश्य पुत्र। इसीलिए तो हम यहाँ आए हैं, ताकि तुम्हारे जैसे परम भक्त के साथ भगवान नारायण की अर्चना कर सकें, भगवद्भक्ति के सूत्रों का सत्य जान सकें।’’

महर्षि विद्रुम के ये वाक्य, उनके द्वारा किया गया पुत्र सम्बोधन सुनकर अयोध्या नरेश अम्बरीश को ऐसा लगा, जैसे कि उन्हें आज जीवन भर की सम्पूर्ण एकादशियों का सुफल, आज एक पल में मिल गया हो। वह पुलकित, गद्गद एवं भाव विह्वल हो गए। उन्होंने भीगे मन एवं गीले नयनों के साथ ऋषि विद्रुम के पाँव पकड़ लिये। महर्षि ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया और बोले- ‘‘पुत्र! तुम सब भाँति योग्य हो। अभी तक मैं तुमसे न मिल सका, इसके पीछे भी सम्भवतः भगवान् नारायण का कोई विधान है।’’ महर्षि का यह सुकोमल व्यवहार अम्बरीश को अपने जन्म भर के पुण्यों का सुफल लगा। वह अपने अन्तर्भावों में कुछ इतना डूब गए कि कुछ कह न सके। बस महर्षि विद्रुम और उनके शिष्यों को साथ लेकर उस ओर चल पड़े, जिधर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ खड़े थे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १३१

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