बुधवार, 28 दिसंबर 2016
👉 सतयुग की वापसी (भाग 23) 29 Dec
🌹 समग्र समाधान— मनुष्य में देवत्व के अवतरण से
🔴 काँच को हथौड़े से तोड़ा जाए तो वह छर-छर होकर बिखर तो सकता है, पर सही जगह से इच्छित स्तर के टुकड़ों में विभाजित न हो सकेगा। चट्टानों में छेद करना हो, तो सिर्फ हीरे की नोंक वाला बरमा ही काम आता है। पहाड़ में सुरंगें निकालने के लिए डायनामाइट की जरूरत पड़ती है। कुदालों से खोदते-तोड़ते रहने पर तो सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी।
🔵 वर्तमान में संव्याप्त असंख्यों अवांछनीयताओं से जूझने में प्रचलित उपाय पर्याप्त नहीं हैं। दरिद्रता को सभी संकटों की एकमात्र जड़ बताने से तो बात नहीं बनती। समाधान तो तब हो, जब सर्वसाधारण को मनचाही सम्पदाओं से सराबोर कर देने का कोई सीधा मार्ग बन सके। यह तो सम्भव नहीं दीखता। इसी प्रकार यह भी दुष्कर प्रतीत होता है कि उच्च शिक्षित चतुर कहलाने वाला व्यक्ति अपनी विशिष्टताओं का दुरुपयोग न करेगा और उपार्जित योग्यता का लाभ सर्वसाधारण तक पहुँचा सकेगा। प्रपंचों से भरी कठिनाइयाँ खड़ी न करेगा। सम्पदा के द्वारा मिलने वाली सुविधाओं से कोई इनकार नहीं कर सकता, पर यह विश्वास कर सकना कठिन है कि जो पाया गया, उसका सदुपयोग ही बन पड़ेगा। उसके कारण दुर्व्यसनों का, आतंकवादी अनाचार का जमघट तो नहीं लग जाएगा।
🔴 वर्तमान कठिनाइयों के निराकरण हेतु आमतौर से सम्पदा, सत्ता और प्रतिभा के सहारे ही निराकरण की आशा की जाती है। इन्हीं तीनों का मुँह जोहा जाता है। इतने पर भी इनके द्वारा जो पिछले दिनों बन पड़ा है, उसका लेखा-जोखा लेने पर निराशा ही हाथ लगती है। प्रतीत होता है कि जब भी, जहाँ भी वे अतिरिक्त मात्रा में संचित होती हैं, वहीं एक प्रकार का उन्माद उत्पन्न कर देती हैं। उस अधपगलाई मनोदशा के लोग सुविधा संवर्धन के नाम पर उद्धत् आचरण करने पर उतारू हो जाते हैं और मनमानी करने लगते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 काँच को हथौड़े से तोड़ा जाए तो वह छर-छर होकर बिखर तो सकता है, पर सही जगह से इच्छित स्तर के टुकड़ों में विभाजित न हो सकेगा। चट्टानों में छेद करना हो, तो सिर्फ हीरे की नोंक वाला बरमा ही काम आता है। पहाड़ में सुरंगें निकालने के लिए डायनामाइट की जरूरत पड़ती है। कुदालों से खोदते-तोड़ते रहने पर तो सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी।
🔵 वर्तमान में संव्याप्त असंख्यों अवांछनीयताओं से जूझने में प्रचलित उपाय पर्याप्त नहीं हैं। दरिद्रता को सभी संकटों की एकमात्र जड़ बताने से तो बात नहीं बनती। समाधान तो तब हो, जब सर्वसाधारण को मनचाही सम्पदाओं से सराबोर कर देने का कोई सीधा मार्ग बन सके। यह तो सम्भव नहीं दीखता। इसी प्रकार यह भी दुष्कर प्रतीत होता है कि उच्च शिक्षित चतुर कहलाने वाला व्यक्ति अपनी विशिष्टताओं का दुरुपयोग न करेगा और उपार्जित योग्यता का लाभ सर्वसाधारण तक पहुँचा सकेगा। प्रपंचों से भरी कठिनाइयाँ खड़ी न करेगा। सम्पदा के द्वारा मिलने वाली सुविधाओं से कोई इनकार नहीं कर सकता, पर यह विश्वास कर सकना कठिन है कि जो पाया गया, उसका सदुपयोग ही बन पड़ेगा। उसके कारण दुर्व्यसनों का, आतंकवादी अनाचार का जमघट तो नहीं लग जाएगा।
🔴 वर्तमान कठिनाइयों के निराकरण हेतु आमतौर से सम्पदा, सत्ता और प्रतिभा के सहारे ही निराकरण की आशा की जाती है। इन्हीं तीनों का मुँह जोहा जाता है। इतने पर भी इनके द्वारा जो पिछले दिनों बन पड़ा है, उसका लेखा-जोखा लेने पर निराशा ही हाथ लगती है। प्रतीत होता है कि जब भी, जहाँ भी वे अतिरिक्त मात्रा में संचित होती हैं, वहीं एक प्रकार का उन्माद उत्पन्न कर देती हैं। उस अधपगलाई मनोदशा के लोग सुविधा संवर्धन के नाम पर उद्धत् आचरण करने पर उतारू हो जाते हैं और मनमानी करने लगते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 महाकाल की चेतावनी अनसुनी न करें!
🔵 इस समय आपको भगवान् का काम करना चाहिए। दुनिया में कोई व्यक्ति भगवान् का केवल नाम लेकर ऊंचा नहीं उठा है। उसे भगवान् का काम भी करना पड़ा है। आपको भी कुछ काम करना होगा। अगर आप भगवान् का नाम लेकर अपने आपको बहकाते रहेंगे—भगवान् को बहकाते रहें तो आप इसी प्रकार खाली हाथ रहेंगे जैसे आप आज रह रहे हैं। यह आपके लिए खुली छूट है। निर्णय आपको करना है—कदम आपको ही बढ़ाना है। भगवान् काम नहीं कर सकता है, क्योंकि वह अपने आप में निराकार है। आप भगवान् का साकार रूप बनकर उनका कार्य करने का प्रयास करें।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 गुरु पूर्णिमा सन्देश-1980
🔴 बहादुरी का अर्थ एक ही है कि ऐसे पराक्रम कर गुजरना जिससे अपनी महानता उभरती है और समय, समाज और संस्कृति की छवि निखरती है। ऐसा पुरुषार्थ करने का ठीक यही समय है। सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन और दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन की जैसी आवश्यकता इन दिनों है उतनी इससे पहले कभी नहीं रही। इस दुहरे मोर्चे पर जो जितना जुझारू हो सके, समझना चाहिए कि उसने युगधर्म समझा और समय की पुकार सुनकर अगली पंक्ति में बढ़ आया।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 21 वीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-37
🔵 दुष्ट जन गिरोह बना लेते हैं। आपस में सहयोग भी करते हैं, किन्तु तथाकथित सज्जन मात्र अपने काम से काम रखते हैं। लोकहित के प्रयोजन के लिए संगठित और कटिबद्ध होने से कतराते हैं। उनकी यही कमजोरी अन्य सभी गुणों और सामर्थ्यों को बेकार कर देती है। मन्यु की कमी ही इसका मूल कारण है। वह बहादुरी का ही काम है कि जो बुद्ध के धर्म-चक्र-प्रवर्तन और गांधी के सत्याग्रह आन्दोलन में सम्मिलित होने वालों की तरह सज्जनों का समुदाय जमा कर लेते हैं।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 21 वीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-38
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 गुरु पूर्णिमा सन्देश-1980
🔴 बहादुरी का अर्थ एक ही है कि ऐसे पराक्रम कर गुजरना जिससे अपनी महानता उभरती है और समय, समाज और संस्कृति की छवि निखरती है। ऐसा पुरुषार्थ करने का ठीक यही समय है। सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन और दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन की जैसी आवश्यकता इन दिनों है उतनी इससे पहले कभी नहीं रही। इस दुहरे मोर्चे पर जो जितना जुझारू हो सके, समझना चाहिए कि उसने युगधर्म समझा और समय की पुकार सुनकर अगली पंक्ति में बढ़ आया।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 21 वीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-37
🔵 दुष्ट जन गिरोह बना लेते हैं। आपस में सहयोग भी करते हैं, किन्तु तथाकथित सज्जन मात्र अपने काम से काम रखते हैं। लोकहित के प्रयोजन के लिए संगठित और कटिबद्ध होने से कतराते हैं। उनकी यही कमजोरी अन्य सभी गुणों और सामर्थ्यों को बेकार कर देती है। मन्यु की कमी ही इसका मूल कारण है। वह बहादुरी का ही काम है कि जो बुद्ध के धर्म-चक्र-प्रवर्तन और गांधी के सत्याग्रह आन्दोलन में सम्मिलित होने वालों की तरह सज्जनों का समुदाय जमा कर लेते हैं।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 21 वीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-38
👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 7) 29 Dec
🌹 गायत्री उपासना का समय
🔴 प्रातःकाल का समय गायत्री उपासना के लिए सर्वोत्तम है। सूर्य उदय से पूर्व दो घंटे से लेकर दिन निकलने तक का समय ब्राह्म मुहूर्त माना जाता है। इस अवधि में की गई उपासना अधिक फलवती होती है। सायंकाल सूर्य अस्त होने से लेकर एक घन्टे बाद तक का समय भी संध्याकाल है। प्रातःकाल के उपरान्त दूसरा स्थान उसी समय का है। इतने पर भी किसी अन्य समय में न करने जैसी रोक नहीं है। दिन में सुविधानुसार कभी भी जप किया जा सकता है।
🔵 जिन लोगों को रात की पाली में काम करना पड़ता है, जैसे रेलवे आदि की नौकरी में छुट्टी के समय बदलते रहते हैं, वे अपनी सुविधानुसार जब भी स्नान आदि करते हैं तो उपासना को भी नित्यकर्म में सम्मिलित रख सकते हैं। इस प्रकार बार-बार समय-बदलना पड़े तो भी हर्ज नहीं है। न करने से करना अच्छा। प्रातः सायं का समय न मिलने के कारण उपासना ही बन्द करदी जाय यह उचित नहीं। सर्वोत्तम न सही तो कुछ कम महत्त्व का समय भी बुरा नहीं है।
🔴 रात्रि को जप करना निषिद्ध नहीं है। शास्त्रकारों ने सामान्य सुविधा का ध्यान रखते हुए ही रात्रि का महत्त्व घटाया है। दिन काम करने के लिए और रात्रि विश्राम के लिए है। विश्राम के समय काम करेंगे तो इससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसलिए विश्राम के घण्टों में विक्षेप न करके काम के ही घण्टों में ही अन्य कामों की तरह ही उपासना करने का औचित्य है। एक कारण यह भी है कि सविता को गायत्री का देवता माना गया है।
🔵 सूर्य की उपस्थिति में उस उपासना द्वारा सूर्य-तेज का अधिक आकर्षण किया जाता है। उसकी अनुपस्थिति में लाभ की मात्रा में कुछ कमी रह जाती है। इन्हीं दो बातों को कारण रात्रि में उपासना का महत्त्व कम किया गया है। किन्तु निषेध फिर भी नहीं है। दिन की तरह रात्रि भी भगवान द्वारा ही निर्मित है। शुभ कार्य के लिए हर घड़ी शुभ है। जिनके पास और कोई समय नहीं बचता वे रात्रि में भी अपनी सुविधानुसार किसी भी समय अपनी उपासना कर सकते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 प्रातःकाल का समय गायत्री उपासना के लिए सर्वोत्तम है। सूर्य उदय से पूर्व दो घंटे से लेकर दिन निकलने तक का समय ब्राह्म मुहूर्त माना जाता है। इस अवधि में की गई उपासना अधिक फलवती होती है। सायंकाल सूर्य अस्त होने से लेकर एक घन्टे बाद तक का समय भी संध्याकाल है। प्रातःकाल के उपरान्त दूसरा स्थान उसी समय का है। इतने पर भी किसी अन्य समय में न करने जैसी रोक नहीं है। दिन में सुविधानुसार कभी भी जप किया जा सकता है।
🔵 जिन लोगों को रात की पाली में काम करना पड़ता है, जैसे रेलवे आदि की नौकरी में छुट्टी के समय बदलते रहते हैं, वे अपनी सुविधानुसार जब भी स्नान आदि करते हैं तो उपासना को भी नित्यकर्म में सम्मिलित रख सकते हैं। इस प्रकार बार-बार समय-बदलना पड़े तो भी हर्ज नहीं है। न करने से करना अच्छा। प्रातः सायं का समय न मिलने के कारण उपासना ही बन्द करदी जाय यह उचित नहीं। सर्वोत्तम न सही तो कुछ कम महत्त्व का समय भी बुरा नहीं है।
🔴 रात्रि को जप करना निषिद्ध नहीं है। शास्त्रकारों ने सामान्य सुविधा का ध्यान रखते हुए ही रात्रि का महत्त्व घटाया है। दिन काम करने के लिए और रात्रि विश्राम के लिए है। विश्राम के समय काम करेंगे तो इससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसलिए विश्राम के घण्टों में विक्षेप न करके काम के ही घण्टों में ही अन्य कामों की तरह ही उपासना करने का औचित्य है। एक कारण यह भी है कि सविता को गायत्री का देवता माना गया है।
🔵 सूर्य की उपस्थिति में उस उपासना द्वारा सूर्य-तेज का अधिक आकर्षण किया जाता है। उसकी अनुपस्थिति में लाभ की मात्रा में कुछ कमी रह जाती है। इन्हीं दो बातों को कारण रात्रि में उपासना का महत्त्व कम किया गया है। किन्तु निषेध फिर भी नहीं है। दिन की तरह रात्रि भी भगवान द्वारा ही निर्मित है। शुभ कार्य के लिए हर घड़ी शुभ है। जिनके पास और कोई समय नहीं बचता वे रात्रि में भी अपनी सुविधानुसार किसी भी समय अपनी उपासना कर सकते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 1) 29 Dec
🌹 प्रतिकूलताएं वस्तुतः विकास में सहायक
🔵 संसार के अधिकांश व्यक्ति परिस्थितियों का रोना रोते रहते हैं और सोचते हैं कि अमुक तरह की अनुकूलताएं मिलें तो वे आगे बढ़ने का प्रयास करे। हर तरह की अनुकूलता का सुअवसर उनके लिए जीवन पर्यन्त नहीं आता और वे पिछड़ी अविकसित स्थिति में ही पड़े रहते हैं। जबकि इसके विपरीत साहसी पुरुषार्थी परिस्थितियों के अपने पक्ष में होने का इन्तजार नहीं करते, अपने बाहुबल एवं बुद्धिबल के सहारे वे स्वयं अपने लिए परिस्थितियां गढ़ते हैं। समय श्रम एवं बुद्धि रूपी सम्पदा के सदुपयोग द्वारा वे सफलता के शिखर पर जा चढ़ते हैं। सामान्य व्यक्ति उन सफलताओं को देखकर आश्चर्य चकित रह जाता है और आकस्मिक दैवी वरदान के रूप में स्वीकार करता है जबकि वे स्वयं के पुरुषार्थ, श्रम और समय के सदुपयोग के बलबूते अर्जित की गई होती हैं।
🔴 दूसरों के सहयोग से एक सीमा तक ही आगे बढ़ा जा सकता है। वास्तविक प्रयास तो स्वयं ही करना पड़ता है। अनुकूलताओं का भी एक सीमा तक ही महत्व है। असली सम्पदा तो हर व्यक्ति को समान रूप से परमात्मा द्वारा प्रदत्त की गई है। शरीर बुद्धि एवं समय लगभग सबको एक समान मिला है। शारीरिक एवं बौद्धिक दृष्टि से मनुष्य मनुष्य के बीच थोड़ा अन्तर हो भी सकता है किन्तु समय रूपी सम्पदा में तो राई रत्ती भर का भी अन्तर नहीं है। 24 घण्टे हर व्यक्ति को मिले हैं। यही मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। यह वह खेत है जिसमें पुरुषार्थ का बीजारोपण करके अनेकों प्रकार के सफलता रूपी फल प्राप्त किये जाते हैं।🔵 अनुकूलताएं आगे बढ़ने के लिए किन्हीं-किन्हीं को ही जन्मजात प्राप्त होती हैं। अधिकांश तो प्रतिकूलताओं में ही आगे बढ़े और सफलता के उस शिखर पर जा चढ़े जो सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव प्रतीत होती हैं। ऐसे शूरवीरों-जीवट सम्पन्न साहसियों के समय अन्ततः परिस्थितियां भी नतमस्तक होती हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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🔵 संसार के अधिकांश व्यक्ति परिस्थितियों का रोना रोते रहते हैं और सोचते हैं कि अमुक तरह की अनुकूलताएं मिलें तो वे आगे बढ़ने का प्रयास करे। हर तरह की अनुकूलता का सुअवसर उनके लिए जीवन पर्यन्त नहीं आता और वे पिछड़ी अविकसित स्थिति में ही पड़े रहते हैं। जबकि इसके विपरीत साहसी पुरुषार्थी परिस्थितियों के अपने पक्ष में होने का इन्तजार नहीं करते, अपने बाहुबल एवं बुद्धिबल के सहारे वे स्वयं अपने लिए परिस्थितियां गढ़ते हैं। समय श्रम एवं बुद्धि रूपी सम्पदा के सदुपयोग द्वारा वे सफलता के शिखर पर जा चढ़ते हैं। सामान्य व्यक्ति उन सफलताओं को देखकर आश्चर्य चकित रह जाता है और आकस्मिक दैवी वरदान के रूप में स्वीकार करता है जबकि वे स्वयं के पुरुषार्थ, श्रम और समय के सदुपयोग के बलबूते अर्जित की गई होती हैं।
🔴 दूसरों के सहयोग से एक सीमा तक ही आगे बढ़ा जा सकता है। वास्तविक प्रयास तो स्वयं ही करना पड़ता है। अनुकूलताओं का भी एक सीमा तक ही महत्व है। असली सम्पदा तो हर व्यक्ति को समान रूप से परमात्मा द्वारा प्रदत्त की गई है। शरीर बुद्धि एवं समय लगभग सबको एक समान मिला है। शारीरिक एवं बौद्धिक दृष्टि से मनुष्य मनुष्य के बीच थोड़ा अन्तर हो भी सकता है किन्तु समय रूपी सम्पदा में तो राई रत्ती भर का भी अन्तर नहीं है। 24 घण्टे हर व्यक्ति को मिले हैं। यही मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। यह वह खेत है जिसमें पुरुषार्थ का बीजारोपण करके अनेकों प्रकार के सफलता रूपी फल प्राप्त किये जाते हैं।🔵 अनुकूलताएं आगे बढ़ने के लिए किन्हीं-किन्हीं को ही जन्मजात प्राप्त होती हैं। अधिकांश तो प्रतिकूलताओं में ही आगे बढ़े और सफलता के उस शिखर पर जा चढ़े जो सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव प्रतीत होती हैं। ऐसे शूरवीरों-जीवट सम्पन्न साहसियों के समय अन्ततः परिस्थितियां भी नतमस्तक होती हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 26)
🌹 अपनी दुनियाँ के स्वयं निर्माता
🔵 हो सकता है कि लोग आपको दुःख दें, आपका तिरस्कार करें, आपके महत्त्व को न समझें, आपको मूर्ख गिनें और विरोधी बनकर मार्ग में अकारण कठिनाइयाँ उपस्थित करें, पर इसकी तनिक भी चिंता मत कीजिए और जरा भी विचलित मत हूजिए, क्योंकि इनकी संख्या बिल्कुल नगण्य होगी। सौ आदमी आपके सत्प्रयत्न का लाभ उठाएँगे, तो दो-चार विरोधी भी होंगे। यह विरोध आपके लिए ईश्वरीय प्रसाद की तरह होगा, ताकि आत्मनिरीक्षण का, भूल सुधार का अवसर मिले और संघर्ष से जो शक्ति आती है, उसे प्राप्त करते हुए तेजी से आगे बढ़ते रहें।
🔴 आप समझ गए होंगे कि संसार असार है, इसलिए वैराग्य के योग्य है, पर आत्मोन्नति के लिए कर्त्तव्य धर्म पालन करने में यह वैराग्य बाधक नहीं होता। सच तो यह है कि वैराग्य को अपनाकर ही हम विकास के पथ पर तीव्र गति से बढ़ सकते हैं। संसार को दुःखमय मानना एक भारी भूल है। यह सुखमय है। यदि संसार में सुख न होता, तो स्वतंत्र, शुद्ध, बुद्ध और आनंदी आत्मा इसमें आने के लिए कदापि तैयार नहीं होती। दुःख और कुछ नहीं, सुख के अभाव का नाम दुःख है। राजमार्ग पर चलना छोड़कर कँटीली झाड़ियों में भटकना दुःख है।
🔵 दुःख, विरोध, बैर, क्लेश, कलह का अधिकांश भाग काल्पनिक होता है, दूसरे लोग सचमुच उतने बुरे नहीं होते, जितने कि हम समझते हैं। यदि हम अपने मस्तिष्क को शुद्ध कर डालें, आँख पर का रंगीन चश्मा उतार फेंके, तो संसार का सच्चा स्वरूप दिखाई देने लगेगा। यह दर्पण के समान है, भले के लिए भला और बुरे लिए के बुरा। जैसे ही हमारी दृष्टि भलाई देखने और स्नेहपूर्ण सुधार करने की हो जाती है, वैसे ही सारा संसार अपना प्रेम हमारे ऊपर उड़ेल देता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/aapni.5
🔵 हो सकता है कि लोग आपको दुःख दें, आपका तिरस्कार करें, आपके महत्त्व को न समझें, आपको मूर्ख गिनें और विरोधी बनकर मार्ग में अकारण कठिनाइयाँ उपस्थित करें, पर इसकी तनिक भी चिंता मत कीजिए और जरा भी विचलित मत हूजिए, क्योंकि इनकी संख्या बिल्कुल नगण्य होगी। सौ आदमी आपके सत्प्रयत्न का लाभ उठाएँगे, तो दो-चार विरोधी भी होंगे। यह विरोध आपके लिए ईश्वरीय प्रसाद की तरह होगा, ताकि आत्मनिरीक्षण का, भूल सुधार का अवसर मिले और संघर्ष से जो शक्ति आती है, उसे प्राप्त करते हुए तेजी से आगे बढ़ते रहें।
🔴 आप समझ गए होंगे कि संसार असार है, इसलिए वैराग्य के योग्य है, पर आत्मोन्नति के लिए कर्त्तव्य धर्म पालन करने में यह वैराग्य बाधक नहीं होता। सच तो यह है कि वैराग्य को अपनाकर ही हम विकास के पथ पर तीव्र गति से बढ़ सकते हैं। संसार को दुःखमय मानना एक भारी भूल है। यह सुखमय है। यदि संसार में सुख न होता, तो स्वतंत्र, शुद्ध, बुद्ध और आनंदी आत्मा इसमें आने के लिए कदापि तैयार नहीं होती। दुःख और कुछ नहीं, सुख के अभाव का नाम दुःख है। राजमार्ग पर चलना छोड़कर कँटीली झाड़ियों में भटकना दुःख है।
🔵 दुःख, विरोध, बैर, क्लेश, कलह का अधिकांश भाग काल्पनिक होता है, दूसरे लोग सचमुच उतने बुरे नहीं होते, जितने कि हम समझते हैं। यदि हम अपने मस्तिष्क को शुद्ध कर डालें, आँख पर का रंगीन चश्मा उतार फेंके, तो संसार का सच्चा स्वरूप दिखाई देने लगेगा। यह दर्पण के समान है, भले के लिए भला और बुरे लिए के बुरा। जैसे ही हमारी दृष्टि भलाई देखने और स्नेहपूर्ण सुधार करने की हो जाती है, वैसे ही सारा संसार अपना प्रेम हमारे ऊपर उड़ेल देता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/aapni.5
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 10)
🌞 जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
🔴 गंध-बाबा चाहे जिसे सुगंधित फूल सुँघा देते थे। बाघ बाबा-अपनी कुटी में बाघ को बुलाकर बिठा लेते थे। समाधि बाबा कई दिन तक जमीन में गड़े रहते थे। सिद्ध बाबा-आगंतुकों की मनोकामना पूरी करते थे। ऐसी-ऐसी जनश्रुतियाँ भी दिमाग में घूम गईं और समझ में आया कि यदि इन घटनाओं के पीछे मेस्मेरिज्म स्तर की जादूगरी थी, तो महान् कैसे हो सकते हैं? ठण्डे प्रदेश में गुफा में रहना जैसी घटनाएँ भी कौतूहल वर्धक ही है। जो काम साधारण आदमी न कर सके, उसे कोई एक करामात की तरह कर दिखाए तो इसमें कहने भर की सिद्धाई है।
🔵 मौन रहना, हाथ पर रखकर भोजन करना, एक हाथ ऊपर रखना, झूले पर पड़े-पड़े समय गुजारना जैसे असाधारण करतब दिखाने वाले बाजीगर सिद्ध हो सकते हैं, पर यदि कोई वास्तविक सिद्ध या शिष्य होगा, तो उसे पुरातन काल के, लोक मंगल के लिए जीवन उत्सर्ग करने वाले ऋषियों के राजमार्ग पर चलना पड़ा होगा। आधुनिक काल में भी विवेकानन्द, दयानन्द, कबीर, चैतन्य, समर्थ की तरह उस मार्ग पर चलना पड़ा होगा। भगवान् अपना नाम जपने मात्र से प्रसन्न नहीं होते, न उन्हें पूजा-प्रसाद आदि की आवश्यकता है। जो उनके इस विश्व उद्यान को सुरम्य, सुविकसित करने में लगते हैं, उन्हीं का नाम-जप सार्थक है। यह विचार मेरे मन में उसी वसंत पर्व के दिन, दिन-भर उठते रहे, क्योंकि उनने स्पष्ट कहा था कि ‘‘पात्रता में जो कमी है, उसे पूरा करने के साथ-साथ लोकमंगल का कार्य भी साथ-साथ करना है। एक के बाद दूसरा नहीं दोनों साथ-साथ।’’ चौबीस वर्ष पालन करने योग्य नियम बताए, साथ ही स्वतंत्रता संग्राम में एक सच्चे स्वयं सेवक की तरह काम करते रहने के लिए कहा।
🔴 उस दिन उन्होंने हमारा समूचा जीवनक्रम किस प्रकार चलना चाहिए, इसका स्वरूप एवं पूरा विवरण बताया। बताया ही नहीं, स्वयं लगाम हाथ में लेकर चलाया भी। चलाया ही नहीं, हर प्रयास को सफल भी बनाया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/jivana.3
🔴 गंध-बाबा चाहे जिसे सुगंधित फूल सुँघा देते थे। बाघ बाबा-अपनी कुटी में बाघ को बुलाकर बिठा लेते थे। समाधि बाबा कई दिन तक जमीन में गड़े रहते थे। सिद्ध बाबा-आगंतुकों की मनोकामना पूरी करते थे। ऐसी-ऐसी जनश्रुतियाँ भी दिमाग में घूम गईं और समझ में आया कि यदि इन घटनाओं के पीछे मेस्मेरिज्म स्तर की जादूगरी थी, तो महान् कैसे हो सकते हैं? ठण्डे प्रदेश में गुफा में रहना जैसी घटनाएँ भी कौतूहल वर्धक ही है। जो काम साधारण आदमी न कर सके, उसे कोई एक करामात की तरह कर दिखाए तो इसमें कहने भर की सिद्धाई है।
🔵 मौन रहना, हाथ पर रखकर भोजन करना, एक हाथ ऊपर रखना, झूले पर पड़े-पड़े समय गुजारना जैसे असाधारण करतब दिखाने वाले बाजीगर सिद्ध हो सकते हैं, पर यदि कोई वास्तविक सिद्ध या शिष्य होगा, तो उसे पुरातन काल के, लोक मंगल के लिए जीवन उत्सर्ग करने वाले ऋषियों के राजमार्ग पर चलना पड़ा होगा। आधुनिक काल में भी विवेकानन्द, दयानन्द, कबीर, चैतन्य, समर्थ की तरह उस मार्ग पर चलना पड़ा होगा। भगवान् अपना नाम जपने मात्र से प्रसन्न नहीं होते, न उन्हें पूजा-प्रसाद आदि की आवश्यकता है। जो उनके इस विश्व उद्यान को सुरम्य, सुविकसित करने में लगते हैं, उन्हीं का नाम-जप सार्थक है। यह विचार मेरे मन में उसी वसंत पर्व के दिन, दिन-भर उठते रहे, क्योंकि उनने स्पष्ट कहा था कि ‘‘पात्रता में जो कमी है, उसे पूरा करने के साथ-साथ लोकमंगल का कार्य भी साथ-साथ करना है। एक के बाद दूसरा नहीं दोनों साथ-साथ।’’ चौबीस वर्ष पालन करने योग्य नियम बताए, साथ ही स्वतंत्रता संग्राम में एक सच्चे स्वयं सेवक की तरह काम करते रहने के लिए कहा।
🔴 उस दिन उन्होंने हमारा समूचा जीवनक्रम किस प्रकार चलना चाहिए, इसका स्वरूप एवं पूरा विवरण बताया। बताया ही नहीं, स्वयं लगाम हाथ में लेकर चलाया भी। चलाया ही नहीं, हर प्रयास को सफल भी बनाया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/jivana.3
👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 10)
🌞 हमारा अज्ञातवास और तप-साधना का उद्देश्य
🔵 इस प्रकार के दस- बीस नहीं हजारों- लाखों प्रसंग भारतीय इतिहास में मौजूद हैं जिनने तप शक्ति के लाभों से लाभान्वित होकर साधारण नर तनधारी जनों ने विश्व को चमत्कृत कर देने वाले स्व- पर कल्याणकेंमहान् आयोजन पूर्ण करने वाले उदाहरण उपस्थित किए हैं। इस युग में महात्मा गाँधी, सन्त बिनोवा, ऋषि दयानन्द, मीरा, कबीर, दादू, तुलसीदास सूरदास, रैदास, अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस, रामतीर्थ आदि आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा जो कार्य किए गए हैं वे साधारण भौतिक पुरुषार्थी द्वारा पूरे किए जाने पर सम्भव न थे। हमने भी अपने जीवन के आरम्भ से ही यह तपश्चर्या का कार्य अपनाया है।
🔴 २४ महापुरश्चरणों के कठिन तप द्वारा उपलब्ध शक्ति का उपयोग हमने लोक- कल्याण में किया है। फलस्वरूप अगणित व्यक्ति हमारी सहायता से भौतिक उन्नति एवं आध्यात्मिक प्रगति की उच्च कक्षा तक पहुँचे हैं। अनेकों को भारी व्यथा व्याधियों से, चिन्ता परेशानियों से छुटकारा मिला है। साथ ही धर्म जागृति एवं नैतिक पुनरुत्थान की दिशा में आशाजनक कार्य हुआ है। २४ लक्ष गायत्री उपासकों का निर्माण एवं २४ हजार कुण्डों के यज्ञों का संकल्प इतना महान् था कि सैकड़ों व्यक्ति मिलकर कई जन्मों में भी पूर्ण नहीं कर सकते थे; किन्तु यह सब कार्य कुछ ही दिनों में बड़े आनन्द पूर्वक पूर्ण हो गए।
🔵 गायत्री तपोभूमि का- गायत्री परिवार का निर्माण एवं वेद भाष्य का प्रकाशन ऐसे कार्य हैं जिनके पीछे साधना- तपश्चर्या का प्रकाश झाँक रहा है। आगे और भी प्रचण्ड तप करने का निश्चय किया है और भावी जीवन को तप- साधना में ही लगा देने का निश्चय किया है तो इसमें आश्चर्य की बात नही हें। हम तप का महत्त्व समझ चुके हैं कि संसार के बड़े से बड़े पराक्रम और पुरुषार्थ एवं उपार्जन की तुलना में तप साधना का मूल्य अत्यधिक है। जौहरी काँच को फेंक, रत्न की साज- सम्भाल करता है। हमने भी भौतिक सुखों को लात मार कर यदि तप की सम्पत्ति एकत्रित करने का निश्चय किया है तो उससे मोहग्रस्त परिजन भले ही खिन्न होते रहें वस्तुत: उस निश्चय में दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता ही ओत- प्रोत है।🔴 राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक दोनों मिलकर इन दिनों जो रचना कर रहे है वह केवल आग लगाने वाली, नाश करने वाली ही है। ऐसे हथियार तो बन रहे हैं जो विपक्षी देशों को तहस- नहस करके अपनी विजय पताका गर्वपूर्वक फहरा सकें; पर ऐसे अस्त्र कोई नहीं बना पा रहा है, जो लगाई आग को बुझा सके, आग लगाने वालों के हाथ को कुंठित कर सके और जिनके दिलों व दिमागों में नृशंसता की भट्टी जलती है, उनमें शान्ति एवं सौभाग्य की सरसता प्रवाहित कर सके। ऐसे शान्ति शस्त्रों का निर्माण राजधानियों में, वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं हो सकता है। प्राचीनकाल में जब भी इस प्रकार की आवश्यकता अनुभव हुई है, तब तपोवनों की प्रयोगशाला में तप साधना के महान् प्रयत्नों द्वारा ही शान्ति शस्त्र तैयार किये गये हैं। वर्तमान काल में अनेक महान् आत्माएँ इसी प्रयत्न के लिए अग्रसर हुई हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/hamara_aagyatvaas.4
🔵 इस प्रकार के दस- बीस नहीं हजारों- लाखों प्रसंग भारतीय इतिहास में मौजूद हैं जिनने तप शक्ति के लाभों से लाभान्वित होकर साधारण नर तनधारी जनों ने विश्व को चमत्कृत कर देने वाले स्व- पर कल्याणकेंमहान् आयोजन पूर्ण करने वाले उदाहरण उपस्थित किए हैं। इस युग में महात्मा गाँधी, सन्त बिनोवा, ऋषि दयानन्द, मीरा, कबीर, दादू, तुलसीदास सूरदास, रैदास, अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस, रामतीर्थ आदि आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा जो कार्य किए गए हैं वे साधारण भौतिक पुरुषार्थी द्वारा पूरे किए जाने पर सम्भव न थे। हमने भी अपने जीवन के आरम्भ से ही यह तपश्चर्या का कार्य अपनाया है।
🔴 २४ महापुरश्चरणों के कठिन तप द्वारा उपलब्ध शक्ति का उपयोग हमने लोक- कल्याण में किया है। फलस्वरूप अगणित व्यक्ति हमारी सहायता से भौतिक उन्नति एवं आध्यात्मिक प्रगति की उच्च कक्षा तक पहुँचे हैं। अनेकों को भारी व्यथा व्याधियों से, चिन्ता परेशानियों से छुटकारा मिला है। साथ ही धर्म जागृति एवं नैतिक पुनरुत्थान की दिशा में आशाजनक कार्य हुआ है। २४ लक्ष गायत्री उपासकों का निर्माण एवं २४ हजार कुण्डों के यज्ञों का संकल्प इतना महान् था कि सैकड़ों व्यक्ति मिलकर कई जन्मों में भी पूर्ण नहीं कर सकते थे; किन्तु यह सब कार्य कुछ ही दिनों में बड़े आनन्द पूर्वक पूर्ण हो गए।
🔵 गायत्री तपोभूमि का- गायत्री परिवार का निर्माण एवं वेद भाष्य का प्रकाशन ऐसे कार्य हैं जिनके पीछे साधना- तपश्चर्या का प्रकाश झाँक रहा है। आगे और भी प्रचण्ड तप करने का निश्चय किया है और भावी जीवन को तप- साधना में ही लगा देने का निश्चय किया है तो इसमें आश्चर्य की बात नही हें। हम तप का महत्त्व समझ चुके हैं कि संसार के बड़े से बड़े पराक्रम और पुरुषार्थ एवं उपार्जन की तुलना में तप साधना का मूल्य अत्यधिक है। जौहरी काँच को फेंक, रत्न की साज- सम्भाल करता है। हमने भी भौतिक सुखों को लात मार कर यदि तप की सम्पत्ति एकत्रित करने का निश्चय किया है तो उससे मोहग्रस्त परिजन भले ही खिन्न होते रहें वस्तुत: उस निश्चय में दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता ही ओत- प्रोत है।🔴 राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक दोनों मिलकर इन दिनों जो रचना कर रहे है वह केवल आग लगाने वाली, नाश करने वाली ही है। ऐसे हथियार तो बन रहे हैं जो विपक्षी देशों को तहस- नहस करके अपनी विजय पताका गर्वपूर्वक फहरा सकें; पर ऐसे अस्त्र कोई नहीं बना पा रहा है, जो लगाई आग को बुझा सके, आग लगाने वालों के हाथ को कुंठित कर सके और जिनके दिलों व दिमागों में नृशंसता की भट्टी जलती है, उनमें शान्ति एवं सौभाग्य की सरसता प्रवाहित कर सके। ऐसे शान्ति शस्त्रों का निर्माण राजधानियों में, वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं हो सकता है। प्राचीनकाल में जब भी इस प्रकार की आवश्यकता अनुभव हुई है, तब तपोवनों की प्रयोगशाला में तप साधना के महान् प्रयत्नों द्वारा ही शान्ति शस्त्र तैयार किये गये हैं। वर्तमान काल में अनेक महान् आत्माएँ इसी प्रयत्न के लिए अग्रसर हुई हैं।
🌹 क्रमशः जारी
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