शनिवार, 4 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 04 Nov 2023

🔶 युग निर्माण के लिए धन की नहीं, समय की-श्रद्धा की-भावना की एवं उत्साह की आवश्यकता पड़ेगी। नोटों के बण्डल वहाँ कूड़े-करकट के समान सिद्ध होंगे। समय का दान ही सबसे बड़ा दान है। धनवान लोग अश्रद्धा और अनिच्छा रहते हुए भी मान, प्रतिफल, दबाव या अन्य किसी कारण से उपेक्षापूर्वक भी कुछ पैसा दान खाते में फेंक सकते हैं, पर समयदान केवल वही कर सकेगा जिसकी उस कार्य में श्रद्धा होगी। इस श्रद्धायुक्त समयदान में गरीब और अमीर समान रूप से भाग ले सकते हैं। युग निर्माण के लिए इसी दान की आवश्यकता पड़ेगी और आशा की जाएगी कि अपने परिवार के लोगों में से कोई इस दिशा में कंजूसी न दिखावेगा।              

🔷 जिन्होंने समय-समय पर ममता भरा प्यार हमें दिया है, हमारी तुच्छता को भुलाकर जो आदर, सम्मान, श्रद्धा, सद्भाव, स्नेह एवं अपनत्व प्रदान किया है, उनके लिए क्या कुछ किया जाए समझ में नहीं आता? इच्छा प्रबल है कि अपना हृदय कोई बादल जैसा बना दे और उसमें प्यार का इतना जल भर दे कि जहाँ से एक बूँद स्नेह की मिली हो वहाँ एक पहर की वर्षा कर सकने का सुअवसर मिल जाए। मालूम नहीं, ऐसा संभव होगा कि नहीं। यदि संभव न हो सके तो हमारी अभिव्यंजना उन सभी तक पहुँचे जिनकी सद्भावना किसी रूप में हमें प्राप्त हुई हो। वे उदार सज्ज्न अनुभव करें कि उनके प्यार को भुलाया  नहीं गया।        

🔶 सत्य रूपी प्रहलाद की रक्षा भगवान् नृसिंह स्वयं करते हैं। नृसिंह मनुष्यों में जो सिंह स्वरूप वीर पुरुष है, वे धर्मवृक्ष को गिरने न देने के लिए अपना पूरा सहयोग देते हैं। गायत्री परिवार के कार्यक्रमों के पीछे, महान् यज्ञानुष्ठान के पीछे सत्य की दैवी शक्ति मौजूद है। इसलिए हममें से किसी को भी विचलित होने की रत्ती भर भी जरूरत नहीं है। फिर भी प्रहलाद की तरह कठिन परीक्षा देने को तैयार रहना ही होगा।     

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अपने को पहचानें

शरीर अनेक सुख-सुविधाओं का माध्यम है, ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा रसास्वादन और कर्मेन्द्रियों के द्वारा उपार्जन करने वाला शरीर ही सांसारिक हर्षोल्लास प्राप्त करता है। इसलिए इसे स्वस्थ, सुन्दर, सुसज्जित एवं समुन्नत स्थिति में रखना चाहिए। इसी दृष्टिï से उत्तम आहार-विहार रखा जाता है, तनिक सा रोग-कष्टï होते ही उपचार कर ली जाती है। शरीर की ज्योति ही मस्तिष्क की उपयोगिता है। आत्मा की चेतना और शरीर की गतिशीलता का भौतिक व आत्मिक समन्वय का प्रतीक है, यह मन मस्तिष्क इसकी अपनी उपयोगिता है। मन की कल्पना, बुद्धि का निर्णय, चित्त की आकांक्षा और अहन्ता की प्रवृत्ति इन चारों से मिलकर अन्त:करण चतुष्टïय बना है।
  
सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा, दीक्षा द्वारा मस्तिष्क को विकसित एवं परिष्कृत करने के लिए हमारी चेष्टïा निरन्तर रहती है क्योंकि भौतिक जगत में उच्चस्तरीय विकास एवं आनन्द उसी के माध्यम से सम्भव है। सभ्य, सुसंस्कृत , सुशिक्षित व्यक्ति ही नेता, कलाकार, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनिरय, वैज्ञानिक, साहित्यकार आदि ही पद प्राप्त कर सकते हैं।
  
शरीर को समुन्नत स्थिति में रखने के लिए पौष्टिïक आहार, व्यायाम, चिकित्सा, विनोद आनन्द आदि की अगणित व्यवस्थाएँ की गई हैं। मस्तिष्कीय उन्नति के लिए स्कूल, कॉलेज, प्रशिक्षण केन्द्र, गोष्ठिïयाँ, सभाएँ विद्यमान हैं। पुस्तिकाएँ, रेडियो, फिल्म आदि का सृजन किया गया है जिससे कि मस्तिष्कीय समर्थता बढ़े।
  
मनुष्य का स्थूल कलेवर शरीर और मन के रूप में ही जाना समझा जा सकता है। सो उन्हीं के लिए सुविधा साधन जुटाने में हर कोई जुटा है। यह उचित भी है। इस जगत के लिए जड़ साधनों और चेतन हलचलों को यदि मानवी सुविधा एवं सन्तोष के लिए नियोजित किया जाता है और उसके लिए उत्साहवर्धक प्रयास जुटाया जाता है तो इसमें अनुचित भी क्या हैै?
  
मनुष्य द्वारा जो कुछ किया जा रहा है, संसार में जो हो रहा है, उसे स्वाभाविक ही कहा जाना चाहिए। यहाँ उसकी निन्दा प्रशंसा नहीं की जा रही है। ध्यान उस तथ्य की ओर आकर्षित किया जा रहा है जो इस सबसे अधिक उत्कृष्टï एवं आवश्यक था उसे एक प्रकार से भुला ही दिया गया। समझ यह लिया गया है कि मनुष्य जो सब कुछ है, वह शरीर और मन तक की सीमित है। इससे आगे, इससे ऊपर और कोई हस्ती नहीं। यदि इससे आगे, इससे ऊपर भी कुछ समझा गया होता तो उसके लिए भी जीवन क्रम में वैसा ही स्थान मिलता, वैसा ही प्रयास होता, जैसा शरीर और मन के लिए होता है, पर हम देखते हैं वह तीसरी सत्ता जो इन दोनों से लाखों, करोड़ों गुनी अधिक महत्त्वपूर्ण है एक प्रकार से उपेक्षित विस्मृत ही पड़ी है और वह लाभ और आनन्द जो अत्यन्त सुखद एवं समर्थ है एक प्रकार से अनुपलब्ध ही रहा है।
  
रोज ही यह कहा और सुना जाता है कि हमारे शरीर और मन से ऊपर आत्मा है। सत्संग और स्वाध्याय के नाम पर यह शब्द प्रतिदिन आये दिन आँखों और कानों के पर्दों पर टकराते हैं, पर वह सब एक ऐसी विडम्बना बन कर रह जाता है जो मानो कहने-सुनने और पढऩे-लिखने के लिए ही खड़ी की गई हो। वास्तविकता से जिसका कोई सीधा सम्बन्ध न हो। यदि ऐसा न होता तो आत्मा को सचमुच ही महत्त्वपूर्ण माना गया होता। कम से कम शरीर, मन जितने स्तर का समझा गया होता, तो उसके लिए उतना श्रम एवं चिन्तन तो नियोजित किया ही गया होता, जितना कायिक, मानसिक उपलब्धियों के लिए किया जाता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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