🔷 आत्मिक प्रगति के पथ पर चलते हुए अनेक व्यक्ति एक ही मन्त्र से-एक ही पूजा विधान से-एक जितने समय तक ही उपासना करते हैं पर उनमें से कोई सफल होता है कोई असफल। किसी को तुरन्त परिणाम दिखाई पड़ता है किसी को मुद्दतें बीत जाने पर भी कोई सफलता दृष्टि-गोचर नहीं होती। इसका क्या कारण है? यह मैंने गुरुदेव से और भी स्पष्ट रूप से पूछा। कारण कि इन दिनों मुझे ही डाक का उत्तर देना पड़ता है और उनमें ऐसे पत्र भी कम नहीं होते जो बताये हुए विधान से उपासना करते हुए बहुत दिन हो जाने पर भी कुछ परिणाम न मिलने से असन्तुष्ट है। इस कठिनाई का उत्तर गुरुदेव के मुख से जो निकला उसका साराँश नीचे की पंक्तियों में प्रस्तुत किया जाता है।
🔶 ‘आत्मिक प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ा व्यवधान उन कुसंस्कारों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है जो दुर्भावों और दुष्कर्मों के रूप में मनोभूमि पर छाये रहते हैं। आकाश में बादल छाये हों तो फिर मध्याह्न काल का सूर्य यथावत् उदय रहते हुए भी अन्धकार ही छाया रहेगा। जप-तप करते हुए भी आध्यात्मिक सफलता न मिलने कारण एक ही है- मनोभूमि का कुसंस्कारी होना। साधना का थोड़ा-सा गंगाजल इस गन्दे नाले में गिरकर अपनी महत्ता खो बैठता है- नाले को शुद्ध कर सकना सम्भव नहीं होता। बेशक तीव्र गंगा प्रवाह में थोड़ी-सी गन्दगी भी शुद्धता में परिणत हो जाती है। पर साथ ही यह भी सच है कि सड़ांद भरी गन्दी गटर को थोड़ा-सा गंगा जल शुद्ध कर सकने में असमर्थ असफल रहेगा।
🔷 सफलता की अपनी महिमा और महत्ता है उसे गंगा-जल से कम नहीं अधिक ही महत्व दिया जा सकता है पर साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि वह सर्व समर्थ नहीं है। गंगा जल से बनी हुई मदिरा अथवा गंगा जल में पकाया हुआ माँस शुद्ध नहीं गिने जायेंगे। शौचालय में प्रयुक्त होने के उपरान्त का गंगा जल का भरा पात्र देव प्रतिमा पर चढ़ाने योग्य न रहेगा। गंगा जल की शास्त्र प्रतिपादित महत्ता यथावत बनी रहे इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि उसके संग्रह उपकरण एवं स्थान की पवित्रता भी अक्षुण्य बनी रहे।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मई 1972 पृष्ठ 7
🔶 ‘आत्मिक प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ा व्यवधान उन कुसंस्कारों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है जो दुर्भावों और दुष्कर्मों के रूप में मनोभूमि पर छाये रहते हैं। आकाश में बादल छाये हों तो फिर मध्याह्न काल का सूर्य यथावत् उदय रहते हुए भी अन्धकार ही छाया रहेगा। जप-तप करते हुए भी आध्यात्मिक सफलता न मिलने कारण एक ही है- मनोभूमि का कुसंस्कारी होना। साधना का थोड़ा-सा गंगाजल इस गन्दे नाले में गिरकर अपनी महत्ता खो बैठता है- नाले को शुद्ध कर सकना सम्भव नहीं होता। बेशक तीव्र गंगा प्रवाह में थोड़ी-सी गन्दगी भी शुद्धता में परिणत हो जाती है। पर साथ ही यह भी सच है कि सड़ांद भरी गन्दी गटर को थोड़ा-सा गंगा जल शुद्ध कर सकने में असमर्थ असफल रहेगा।
🔷 सफलता की अपनी महिमा और महत्ता है उसे गंगा-जल से कम नहीं अधिक ही महत्व दिया जा सकता है पर साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि वह सर्व समर्थ नहीं है। गंगा जल से बनी हुई मदिरा अथवा गंगा जल में पकाया हुआ माँस शुद्ध नहीं गिने जायेंगे। शौचालय में प्रयुक्त होने के उपरान्त का गंगा जल का भरा पात्र देव प्रतिमा पर चढ़ाने योग्य न रहेगा। गंगा जल की शास्त्र प्रतिपादित महत्ता यथावत बनी रहे इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि उसके संग्रह उपकरण एवं स्थान की पवित्रता भी अक्षुण्य बनी रहे।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मई 1972 पृष्ठ 7