शनिवार, 10 नवंबर 2018

👉 साधना- अपने आपे को साधना (भाग 6)

🔷 शरीर को जीवित और सुसंचालित रखने के लिए दो कार्य आवश्यक हैं एक भोजन, दूसरा भय त्याग। इनमें से एक की भी उपेक्षा नहीं हो सकती। भोजन न किया जाय तो पोषण के लिए नितान्त आवश्यक रस रक्त की नई उत्पत्ति न होना और पुराने संचित रक्त की पूँजी समाप्त होते ही काया दुर्बल होकर मृत्यु के मुख में चली जायगी। इसी प्रकार मल त्याग न करने पर नित्य उत्पन्न होते रहने वाले विष जमा होते और बढ़ते चले जायेंगे और उनका विस्फोट अनेक उपद्रवों के रूप में प्रकट होकर कष्टकारक मृत्यु का आधार बनेगा।

🔶 पञ्च भौतिक शरीर की तरह सूक्ष्म शरीर की दिव्य−चेतना की भी कुछ आवश्यकताएँ हैं। उसे भी भूख लगती है। उस पर भी मैल चढ़ते हैं और सफाई की आवश्यकता पड़ती है, इन दोनों प्रयोजनों को पूरी करने वाली प्रक्रिया साधन कही जाती है। उससे सत्प्रवृत्तियों को जगाकर वह सब उगाया, पकाया जा सकता है जिससे आत्मा की भूख बुझती है और जीवन भूमि में हरी−भरी फसल लहलहाती है। साधना से उन मलीनताओं का—मनोविकारों का निष्कासन होता है जो प्रगति के हर क्षेत्र में चट्टान बनकर अड़े रहते हैं और पग−पग पर व्यवधान उत्पन्न करते हैं।

🔷 साबुन और पानी से कपड़ा धोया जाता है और धूप में सुखा देने पर वह भकाभक दीखने लगता है। उसे पहनने वाला स्वयं गौरवान्वित होता है और देखने वालों को उस सुरुचि पर प्रसन्नता होती है। साधन में प्रयुक्त होने वाली आत्म−शोधन और आत्म−निर्माण की उभय−पक्षीय प्रक्रिया अन्तःक्षेत्र में धँसे−फँसे कुसंस्कारों को उखाड़ कर उनकी जगह आम्र वृक्ष लगती है। कँटीली झाड़ियों से पिण्ड छुड़ाने और स्वादिष्ट फल सम्पदा से लाभान्वित होने का दुहरा लाभ मिलता है।

🔶 संसार में जितने भी चमत्कारी देवता जाने माने गये हैं, उन सबसे बढ़कर आत्म देव है। उसकी साधना प्रत्यक्ष है। नकद धर्म की तरह उसकी उपासना कभी भी—किसी की भी—निष्फल नहीं जाती। यदि उद्देश्य समझते हुए सही दृष्टिकोण अपनाया जा सके और विधिवत् साधना की जा सके तो जीवन साधना को अमृत, पारस और कल्प−वृक्ष की कामधेनु की सार्थक उपमा दी जा सकती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1976 पृष्ठ 14
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1976/January/v1.14

👉 Who creates problems?

🔷 A spider spins its own web and remains entangled in it. At some point it starts to think that its web is its confinement and laments being trapped in it. However, when it realizes the root of the problem, it dismantles the web which it created, gulps down the threads and sets itself free. As a result, the spider experiences the joy of freedom by removing all the barriers responsible for its miseries.

🔶 In the same way, every individual creates his own cocoon, his own little world. He alone creates this world with no outside interferences and influences. The hindering and facilitating circumstances imposed by the outside world, they are just temporary and keep appearing and disappearing like the ebb and flow of the tide.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Jivan Devta ki sadhana-aradhana 2:3.1

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 10 November 2018


👉 आज का सद्चिंतन 10 November 2018


👉 झूठे मित्र

🔷 एक खरगोश बहुत भला था। उसने बहुत से जानवरों से मित्रता की और आशा की कि वक्त पड़ने पर मेरे काम आवेंगे। एक दिन शिकारी कुत्तों ने उसका पीछा किया। वह दौड़ा हुआ गाय के पास पहुँचा और कहा—आप हमारे मित्र हैं, कृपाकर अपने पैने सींगों से इन कुत्तों को मार दीजिए। गाय ने उपेक्षा से कहा—मेरा घर जाने का समय हो गया। बच्चे इन्तजार कर रहे होंगे, अब मैं ठहर नहीं सकती।

🔶 तब वह घोड़े के पास पहुँचा और कहा—मित्र घोड़े! मुझे अपनी पीठ पर बिठाकर इन कुत्तों से बचा दो। घोड़े ने कहा—मैं बैठना भूल गया हूँ, तुम मेरी ऊँची पीठ पर चढ़ कैसे पाओगे? अब वह गधे के पास पहुँचा और कहा—भाई, मैं मुसीबत में हूँ, तुम दुलत्ती झाड़ने में प्रसिद्ध हो इन कुत्तों को लातें मारकर भगा दो। गधे ने कहा—घर पहुँचने में देरी हो जाने से मेरा मालिक मुझे मारेगा। अब तो मैं घर जा रहा हूँ। यह काम किसी फुरसत के वक्त करा लेना।

🔷 अब वह बकरी के पास पहुँचा और और उससे भी वही प्रार्थना की। बकरी ने कहा—जल्दी भाग यहाँ से, तेरे साथ मैं भी मुसीबत में फँस जाऊँगी। तब खरगोश ने समझा कि दूसरों का आसरा तकने से नहीं अपने बल बूते से ही अपनी मुसीबत पार होती है। तब वह पूरी तेजी से दौड़ा और एक घनी झाड़ी में छिपकर अपने प्राण बचाए।

🔶 अक्सर झूठे मित्र कुसमय आने पर साथ छोड़ बैठते हैं। दूसरों पर निर्भर रहने में खतरा है, अपने बलबूते ही अपनी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

📖 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1964 पृष्ठ 21
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/October/v1.21

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...