🔷 शरीर को जीवित और सुसंचालित रखने के लिए दो कार्य आवश्यक हैं एक भोजन, दूसरा भय त्याग। इनमें से एक की भी उपेक्षा नहीं हो सकती। भोजन न किया जाय तो पोषण के लिए नितान्त आवश्यक रस रक्त की नई उत्पत्ति न होना और पुराने संचित रक्त की पूँजी समाप्त होते ही काया दुर्बल होकर मृत्यु के मुख में चली जायगी। इसी प्रकार मल त्याग न करने पर नित्य उत्पन्न होते रहने वाले विष जमा होते और बढ़ते चले जायेंगे और उनका विस्फोट अनेक उपद्रवों के रूप में प्रकट होकर कष्टकारक मृत्यु का आधार बनेगा।
🔶 पञ्च भौतिक शरीर की तरह सूक्ष्म शरीर की दिव्य−चेतना की भी कुछ आवश्यकताएँ हैं। उसे भी भूख लगती है। उस पर भी मैल चढ़ते हैं और सफाई की आवश्यकता पड़ती है, इन दोनों प्रयोजनों को पूरी करने वाली प्रक्रिया साधन कही जाती है। उससे सत्प्रवृत्तियों को जगाकर वह सब उगाया, पकाया जा सकता है जिससे आत्मा की भूख बुझती है और जीवन भूमि में हरी−भरी फसल लहलहाती है। साधना से उन मलीनताओं का—मनोविकारों का निष्कासन होता है जो प्रगति के हर क्षेत्र में चट्टान बनकर अड़े रहते हैं और पग−पग पर व्यवधान उत्पन्न करते हैं।
🔷 साबुन और पानी से कपड़ा धोया जाता है और धूप में सुखा देने पर वह भकाभक दीखने लगता है। उसे पहनने वाला स्वयं गौरवान्वित होता है और देखने वालों को उस सुरुचि पर प्रसन्नता होती है। साधन में प्रयुक्त होने वाली आत्म−शोधन और आत्म−निर्माण की उभय−पक्षीय प्रक्रिया अन्तःक्षेत्र में धँसे−फँसे कुसंस्कारों को उखाड़ कर उनकी जगह आम्र वृक्ष लगती है। कँटीली झाड़ियों से पिण्ड छुड़ाने और स्वादिष्ट फल सम्पदा से लाभान्वित होने का दुहरा लाभ मिलता है।
🔶 संसार में जितने भी चमत्कारी देवता जाने माने गये हैं, उन सबसे बढ़कर आत्म देव है। उसकी साधना प्रत्यक्ष है। नकद धर्म की तरह उसकी उपासना कभी भी—किसी की भी—निष्फल नहीं जाती। यदि उद्देश्य समझते हुए सही दृष्टिकोण अपनाया जा सके और विधिवत् साधना की जा सके तो जीवन साधना को अमृत, पारस और कल्प−वृक्ष की कामधेनु की सार्थक उपमा दी जा सकती है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1976 पृष्ठ 14
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1976/January/v1.14
🔶 पञ्च भौतिक शरीर की तरह सूक्ष्म शरीर की दिव्य−चेतना की भी कुछ आवश्यकताएँ हैं। उसे भी भूख लगती है। उस पर भी मैल चढ़ते हैं और सफाई की आवश्यकता पड़ती है, इन दोनों प्रयोजनों को पूरी करने वाली प्रक्रिया साधन कही जाती है। उससे सत्प्रवृत्तियों को जगाकर वह सब उगाया, पकाया जा सकता है जिससे आत्मा की भूख बुझती है और जीवन भूमि में हरी−भरी फसल लहलहाती है। साधना से उन मलीनताओं का—मनोविकारों का निष्कासन होता है जो प्रगति के हर क्षेत्र में चट्टान बनकर अड़े रहते हैं और पग−पग पर व्यवधान उत्पन्न करते हैं।
🔷 साबुन और पानी से कपड़ा धोया जाता है और धूप में सुखा देने पर वह भकाभक दीखने लगता है। उसे पहनने वाला स्वयं गौरवान्वित होता है और देखने वालों को उस सुरुचि पर प्रसन्नता होती है। साधन में प्रयुक्त होने वाली आत्म−शोधन और आत्म−निर्माण की उभय−पक्षीय प्रक्रिया अन्तःक्षेत्र में धँसे−फँसे कुसंस्कारों को उखाड़ कर उनकी जगह आम्र वृक्ष लगती है। कँटीली झाड़ियों से पिण्ड छुड़ाने और स्वादिष्ट फल सम्पदा से लाभान्वित होने का दुहरा लाभ मिलता है।
🔶 संसार में जितने भी चमत्कारी देवता जाने माने गये हैं, उन सबसे बढ़कर आत्म देव है। उसकी साधना प्रत्यक्ष है। नकद धर्म की तरह उसकी उपासना कभी भी—किसी की भी—निष्फल नहीं जाती। यदि उद्देश्य समझते हुए सही दृष्टिकोण अपनाया जा सके और विधिवत् साधना की जा सके तो जीवन साधना को अमृत, पारस और कल्प−वृक्ष की कामधेनु की सार्थक उपमा दी जा सकती है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1976 पृष्ठ 14
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1976/January/v1.14