हमारे आध्यात्मिक लक्ष्य की आधारशिला मन की स्वच्छता है। जप, तप, भजन, ध्यान, व्रत, उपवास, तीर्थ, हवन, दान, पुण्य, कथा, कीर्तन सभी का महत्व है पर उनका पूरा लाभ उन्ही को मिलता है जिनने मन की स्वच्छता के लिए भी समुचित श्रम किया है। मन मलीन हो, दुष्टता एवं नीचता की दुष्प्रवृत्तियों से मन गन्दी कीचड़ की तरह सड़ रहा हो तो भजन-पूजन का भी कितना लाभ मिलने वाला है? अन्तरात्मा की निर्मलता अपने आप में एक साधन है जिसमें किलोल करने के लिए भगवान स्वयं दौड़े आते हैं। थोड़ी साधना से भी आत्म-दर्शन का, मुक्ति एवं साक्षात्कार का लक्ष्य सहज ही प्राप्त हो जाता है। स्वल्प साधना भी उनके लिए सिद्धिदायिनी बन जाती हंै।
‘सुमनस्’ शब्द संस्कृत भाषा में बहुत ही प्रतिष्ठा का प्रतीक है। जिसका मन स्वच्छ होता है उसे ‘सुमनस्’ कहकर सम्मानित किया जाता है। ऋषि लोग प्रसन्न होकर किसी को ‘सौमनस्’ अर्थात् सुन्दर मन वाला होने का आशीर्वाद दिया करते थे। प्रस्तुत-इस निकम्में प्राणी मनुष्य में यदि कोई विशेषता हो सकती है तो वह उसकी मानसिक स्वच्छता ही है। जिसे यह सम्पदा प्राप्त हुई उसका जीवन सच्चे अर्थों में सफल हो गया। स्वच्छ मन वाले मानवों का देव समाज जहाँ बढ़ता है, वहीं स्वर्ग बन जाता है। स्थान चाहे पृथ्वी हो या कोई और लोक, वहीं रहेगा जहाँ ऊँचे मन वाले मनुष्य रहेंगे। किसी राष्ट्र की दौलत सोना, चाँदी नहीं वरन् वहाँ उच्च मन वाली जनता ही है। श्रेष्ठ मनुष्य का मूल्य सोने और चाँदी के पहाड़ से अधिक है। गाँधी और बुद्ध की कीमत रूपयों में नहीं आँकी जा सकती।
आम लोगों की मनोभूमि तथा परिस्थिति, कामना, वासना, लालसा, संकीर्णता और कायरता के ढर्रे में घूमती रहती है। इस चक्र में घूमता रहने वाला किसी तरह जिन्दगी के दिन ही पूरे कर सकता है। तीर्थयात्रा, व्रत, उद्यापन, कथा, कीर्तन, प्रणाम, प्राणायाम जैसे माध्यम मन बहलाने के लिए ठीक हैं, पर उनसे किसी को आत्मा की प्राप्ति या ईश्वर दर्शन जैसे महान् लाभ पाने की आशा नहीं करनी चाहिए। उपासना से नहीं, साधना से कल्याण की प्राप्ति होती और जीवन साधना के लिए व्यक्तिगत जीवन में इतना आदर्शवाद तो प्रतिष्ठापित करना होता है जिसमें लोक-मंगल के लिए महत्वपूर्ण स्थान एवं अनुदान सम्भव हो सके।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
‘सुमनस्’ शब्द संस्कृत भाषा में बहुत ही प्रतिष्ठा का प्रतीक है। जिसका मन स्वच्छ होता है उसे ‘सुमनस्’ कहकर सम्मानित किया जाता है। ऋषि लोग प्रसन्न होकर किसी को ‘सौमनस्’ अर्थात् सुन्दर मन वाला होने का आशीर्वाद दिया करते थे। प्रस्तुत-इस निकम्में प्राणी मनुष्य में यदि कोई विशेषता हो सकती है तो वह उसकी मानसिक स्वच्छता ही है। जिसे यह सम्पदा प्राप्त हुई उसका जीवन सच्चे अर्थों में सफल हो गया। स्वच्छ मन वाले मानवों का देव समाज जहाँ बढ़ता है, वहीं स्वर्ग बन जाता है। स्थान चाहे पृथ्वी हो या कोई और लोक, वहीं रहेगा जहाँ ऊँचे मन वाले मनुष्य रहेंगे। किसी राष्ट्र की दौलत सोना, चाँदी नहीं वरन् वहाँ उच्च मन वाली जनता ही है। श्रेष्ठ मनुष्य का मूल्य सोने और चाँदी के पहाड़ से अधिक है। गाँधी और बुद्ध की कीमत रूपयों में नहीं आँकी जा सकती।
आम लोगों की मनोभूमि तथा परिस्थिति, कामना, वासना, लालसा, संकीर्णता और कायरता के ढर्रे में घूमती रहती है। इस चक्र में घूमता रहने वाला किसी तरह जिन्दगी के दिन ही पूरे कर सकता है। तीर्थयात्रा, व्रत, उद्यापन, कथा, कीर्तन, प्रणाम, प्राणायाम जैसे माध्यम मन बहलाने के लिए ठीक हैं, पर उनसे किसी को आत्मा की प्राप्ति या ईश्वर दर्शन जैसे महान् लाभ पाने की आशा नहीं करनी चाहिए। उपासना से नहीं, साधना से कल्याण की प्राप्ति होती और जीवन साधना के लिए व्यक्तिगत जीवन में इतना आदर्शवाद तो प्रतिष्ठापित करना होता है जिसमें लोक-मंगल के लिए महत्वपूर्ण स्थान एवं अनुदान सम्भव हो सके।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य