शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

👉 अध्यात्म की आधारशिला-मन की स्वच्छता (भाग ४)

हमारे आध्यात्मिक लक्ष्य की आधारशिला मन की स्वच्छता है। जप, तप, भजन, ध्यान, व्रत, उपवास, तीर्थ, हवन, दान, पुण्य, कथा, कीर्तन सभी का महत्व है पर उनका पूरा लाभ उन्ही को मिलता है जिनने मन की स्वच्छता के लिए भी समुचित श्रम किया है। मन मलीन हो, दुष्टता एवं नीचता की दुष्प्रवृत्तियों से मन गन्दी कीचड़ की तरह सड़ रहा हो तो भजन-पूजन का भी कितना लाभ मिलने वाला है? अन्तरात्मा की निर्मलता अपने आप में  एक साधन है जिसमें किलोल करने के लिए भगवान स्वयं दौड़े आते हैं। थोड़ी साधना से भी आत्म-दर्शन का, मुक्ति एवं साक्षात्कार का लक्ष्य सहज ही प्राप्त हो जाता है। स्वल्प साधना भी उनके लिए सिद्धिदायिनी बन जाती हंै।
  
‘सुमनस्’  शब्द संस्कृत भाषा में बहुत ही प्रतिष्ठा का प्रतीक है। जिसका मन स्वच्छ होता है उसे ‘सुमनस्’ कहकर सम्मानित किया जाता है। ऋषि लोग प्रसन्न होकर किसी को ‘सौमनस्’ अर्थात् सुन्दर मन वाला होने का आशीर्वाद दिया करते थे। प्रस्तुत-इस निकम्में प्राणी मनुष्य में यदि कोई विशेषता हो सकती है तो वह उसकी मानसिक स्वच्छता ही है। जिसे यह सम्पदा प्राप्त हुई उसका जीवन सच्चे अर्थों में सफल हो गया। स्वच्छ मन वाले मानवों का देव समाज जहाँ बढ़ता है, वहीं स्वर्ग बन जाता है। स्थान चाहे पृथ्वी हो या कोई और लोक, वहीं रहेगा जहाँ ऊँचे मन वाले मनुष्य रहेंगे। किसी राष्ट्र की दौलत सोना, चाँदी नहीं वरन् वहाँ उच्च मन वाली जनता ही है। श्रेष्ठ मनुष्य का मूल्य सोने और चाँदी के पहाड़ से अधिक है। गाँधी और बुद्ध की कीमत रूपयों में नहीं आँकी जा सकती।
   
आम लोगों की मनोभूमि तथा परिस्थिति, कामना, वासना, लालसा, संकीर्णता और कायरता के ढर्रे में घूमती रहती है। इस चक्र में घूमता रहने वाला किसी तरह जिन्दगी के दिन ही पूरे कर सकता है। तीर्थयात्रा, व्रत, उद्यापन, कथा, कीर्तन,  प्रणाम, प्राणायाम जैसे माध्यम मन बहलाने के लिए ठीक हैं, पर उनसे किसी को आत्मा की प्राप्ति या ईश्वर दर्शन जैसे महान् लाभ पाने की आशा नहीं करनी चाहिए। उपासना से नहीं, साधना से कल्याण की प्राप्ति होती और जीवन साधना के लिए व्यक्तिगत जीवन में इतना आदर्शवाद तो प्रतिष्ठापित करना होता है जिसमें लोक-मंगल के लिए महत्वपूर्ण स्थान एवं अनुदान सम्भव हो सके।
   
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Chiseled Refinement of Life

It’s the law of Nature that stress and struggle of particles generate force and motion. Friction and violent movement though appear harsh, but are necessary for sharpened gaze. The yellow metal gets its golden bright glow only after being heated and hammered. An ordinary piece of stone or metal becomes magnificent sculptures or precious idols only after undergoing hard hitting and shrill cutting.

The same is true of human life. Glory of life sparkles only after passing through testing times, bearing the tough disciplines, pains and difficulties on the path of ideals. Those who can rise and march against obstructions and opposition alone can reach high goals. You can hardly find any great life or eminent success that was achieved by any one without unflinching efforts and examinations.

Devout endeavors of penance and adoption of ascetic disciplines for selfpurification and self-transformation are described as tapasya (tapa). Chiseled refinement of life is the essence of tapa. This awakens hidden powers and sublime potentials. Vedic history has witnessed how great tapaswis have been able to conquer heavens by the spiritual force of their tapasya. The best devotion of the life-God is tapa. It is the only means of glorious accomplishments.

Remember, only those gain importance and reverence in this world, who can smile in hardships and who can enjoy the pains of tapaspya for noble aims.

📖  Akhand Jyoti, Oct. 1945

👉 सद्विचारों की उपयोगिता और आवश्यकता

हमारा शरीर आहार के आधार पर बनता और बिगड़ता है। इसी प्रकार मन का बनाव और बिगाड़ विचारों पर निर्भर रहता है। सद्विचारों के संपर्क में आये बिना कोई व्यक्ति उसी प्रकार मानसिक स्वच्छता प्राप्त नहीं कर सकता जिस प्रकार आहार की सुव्यवस्था किये बिना शरीर को बलवान बना सकना संभव नहीं होता। मन तभी स्वच्छ रह सकता है जब उसे सद्विचारों का सान्निध्य मिले। मानसिक स्वच्छता के लिए स्वाध्याय और सत्संग की आवश्यकता उसी प्रकार है जिस प्रकार बर्तन माँजने के लिए मिट्टी और पानी की उपयोगिता होती है। सद्विचारों का प्रसार जब कम हो जाता है और कुविचारों का विस्तार बढ़ जाता है तब स्वभावतः जन मानस में मलीनता छा जाती है और पाप तापों का, क्लेश कलह का रोग शोक का वातावरण पनपता दृष्टिगोचर होने लगता है। मनुष्य के भीतरी मन की बुराइयाँ उसके सामने विपत्ति बनकर आ खड़ी होती हैं।

कुएँ की प्रतिध्वनि की तरह हमें अपनी भावनाओं के अनुरूप ही दूसरों का प्रत्युत्तर मिलता है। जैसे हम स्वयं है वैसे ही दूसरे भी दीखते हैं। स्वभावतः वे वैसे नहीं तो कम से कम हमारे लिए तो वैसे बन ही जाते हैं, अपना क्रोधी स्वभाव हो और दूसरों से झगड़ते रहने की आदत पड़ जाय तो उसके फलस्वरूप दूसरे लोग जो भले ही स्वभावतः क्रोधी न हों हमारे आचरण से क्षुब्ध होकर कुछ देर के लिए तो क्रोधी बन ही जाते हैं। चोर, व्यभिचारी, बेईमान, असभ्य, अकर्मण्य मनुष्य के संपर्क में आने वाले व्यक्ति कुछ देर तक तो घृणा और क्षोभ प्रकट करेंगे ही। मन का मैला मनुष्य कुढ़न का अभिशाप भोगता है अपनी सारी श्रेष्ठताएँ खोकर निम्न स्तर का बन जाता है। मित्रों को शत्रु रूप में बदल लेता है। लोक−परलोक तो उसके बिगड़ते ही हैं। इतनी हानिकारक मन की मलीनता हमारे लिए सर्वथा त्याज्य है। वैयक्तिक और सामूहिक सारे संघर्ष इसी पर ठहरे हुए हैं। पापों की जड़ यही है। इसे काट दिया जाय तो वे कटीली झाड़ियाँ जो पग−पग पर दुख देती हैं नष्ट हो सकती हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 कर्मफल की स्वसंचालित प्रक्रिया (भाग २)

घृणित कर्म करने वाले आप ही अपने को दण्ड देते हैं और सन्मार्ग पर चलने वाले अपनी गतिविधियों के कारण स्वयं ही पुरस्कृत होते हैं। शृंखला अपनी गति से चल रही है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कुमार्ग पर चलने वाले सुख शान्ति से रहे और सन्मार्ग अपनाने वालों को दुःख दारिद्र्य से ग्रसित होना पड़े। यदि ऐसा होता तो यहाँ उचित अनुचित के बीच कोई भेद ही न रह जाता और कोई कुकर्म से बचने एवं सत्कर्म अपनाने के लिए तैयार ही न होता। अधर्म का तात्कालिक आकर्षण यदि चिरस्थायी लाभ दे सका होता और उसके दुष्परिणामों की कोई आशंका न होती तो कदाचित् ही कोई उस कष्ट साध्य प्रतीत होने वाली प्रक्रिया को अपनाता।
  
ईश्वर ने मनुष्य को जितना स्वावलम्बी बनाया है उतना ही परावलम्बी भी। सर्वत्र स्वतन्त्र मनुष्य नहीं, ईश्वर ही है। ईश्वर इसलिए स्वतन्त्र है कि उसने नियम व्यवस्था बनाई है और उसने सर्वप्रथम अपने को बाँधा है। जहाँ विश्व का कण- कण किसी विधान से बँधा है उसी प्रकार ईश्वर भी मर्यादा पुरुषोत्तम है। मर्यादाएँ टूटने न पायें, उन्हें तोड़ने का कोई दुस्साहस न करे इसलिए उसने अपने को भी प्रतिबन्धित किया है। पात्रता की मर्यादा से अधिक अनुदान किसी को नहीं मिलते। कर्मफल की मर्यादा का उल्लंघन करके वह न तो किसी को क्षमा प्रदान करता है और न किसी को भक्त- अभक्त होने के नाम पर राग, द्वेष की नीति अपनाता है। न्याय और निष्पक्षता की रक्षा उसके लिए प्रधान है। बिजली मनुष्य की बहुत सेवा सहायता करती है, पर करती तभी तक है जब तक उसे विधि पूर्वक प्रयुक्त किया जाता है। अविधिपूर्वक व्यवहार करने पर यज्ञाग्नि भी होता को जला सकती है। प्रचुर खर्च करके बिजली के यन्त्रों को सुसज्जा एवं मनोयोग पूर्वक लगाने वाले भी यदि प्रयोगों में प्रमाद बरतें तो वह प्रतिष्ठापित विद्युत यन्त्र प्रयोक्ता के प्राण लिये बिना न छोड़ेंगे। ईश्वर को कर्मफल शृंखला में अग्नि या विद्युत के समतुल्य माना जाय तो उसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी।
  
कर्मफल तत्काल मिले ऐसी विधि व्यवस्था इस संसार में नहीं है। क्रिया और प्रतिक्रिया के बीच कुछ समय का अन्तराल रहता है। बीज बोते ही फल- फूलों से लदा वृक्ष सामने प्रस्तुत नहीं होता। गर्भाधान के अगले क्षण ही प्रसव नहीं होता और प्रसव के उपरान्त तत्काल नवजात शिशु किशोर या प्रौढ़ नहीं बन जाता। अभिभावकों को उसके लिए धैर्य रखना होता है। बीज का फल वृक्ष और गर्भाधान का फल समर्थ सन्तान होता है यह सही है, पर यह भी सही है कि आरम्भ और परिणाम के बीच कुछ अन्तर अवश्य रहता है। हथेली पर सरसों बाजीगर ही जमा सकते हैं। किसान को उसके लिए छः महीने तक साधना और प्रतीक्षा करनी पड़ती है। गाय के पेट में घास जाकर दूध में बदलती है इसे कौन नहीं जानता, पर यह लाभ धैर्यपूर्वक ही उठाया जा सकता है। कोल्हू से तेल निकलने की तरह गाय को एक ओर घास खिलाने और दूसरी ओर दूध पाने की आशा की जाय तो सफलता न मिलेगी। ठीक इसी प्रकार कर्म को फल रूप में परिवर्तित होने की प्रक्रिया कुछ समय चाहती है।
  
जन्मजात अपंग, बाधित, असमर्थ, रुग्ण व्यक्तियों को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि उद्धत आचरण करने वालों के प्रगति साधनों का प्रकृति ने किस प्रकार अपहरण कर लिया। बन्दूक का दुरुपयोग करने वालों का लाइसेन्स जब्त हो जाता है, इसी प्रकार मोटर चलाने में प्रमाद बरतने वालों का लाइसेन्स छिन जाता है। अपराधियों को न्यायालय में समाज से पृथक रहने का यातनापूर्ण कारावास मिलता है और उनके नागरिक अधिकार छिन जाते हैं। जन्मजात बाधितों को देखकर हम अनुमान लगा सकते हैं कि मिली हुई कर्म स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करने वालों से प्रकृति किस प्रकार प्रतिशोध लेती है।
 
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

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