मंगलवार, 21 मई 2019

अहंकार नाश ही करता है Ahankar Nash Hi Karta Hai | डॉ चिन्मय पंड्या



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👉 Bhagwaan Ki Kripa भगवान् की कृपा.....

किसी स्थान पर संतों की एक सभा चल रही थी, किसी ने एक घड़े में गंगाजल भरकर वहां रखवा दिया ताकि संतजन को जब प्यास लगे तो गंगाजल पी सकें।

संतों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था, उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे। वह सोचने लगा:- "अहा, यह घड़ा कितना भाग्यशाली है, एक तो इसमें किसी तालाब पोखर का नहीं बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब सन्तों के काम आयेगा। संतों का स्पर्श मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा, ऐसी किस्मत किसी-किसी की ही होती है।

घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा:- बंधु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य पड़ा था, किसी काम का नहीं था, कभी नहीं लगता था कि भगवान् ने हमारे साथ न्याय किया है। फिर एक दिन एक कुम्हार आया, उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और गधे पर लादकर अपने घर ले गया।

वहां ले जाकर हमको उसने रौंदा, फिर पानी डालकर गूंथा, चाक पर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा, फिर थापी मार-मारकर बराबर किया। बात यहीं नहीं रूकी, उसके बाद आंवे के अंदर आग में झोंक दिया जलने को। इतने कष्ट सहकर बाहर निकला तो गधे पर लादकर उसने मुझे बाजार में भेज दिया, वहां भी लोग ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं?

ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या- बस 20 से 30 रुपये, मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि:- "हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था, रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो, मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है।" भगवान ने कृपा करने की भी योजना बनाई है यह बात थोड़े ही मालूम पड़ती थी।

किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगाजल भरकर सन्तों की सभा में भेज दिया तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी भगवान् की कृपा थी। उसका वह गूंथना भी भगवान् की कृपा थी, आग में जलाना भी भगवान् की कृपा थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाना भी भगवान् की कृपा ही थी।

अब मालूम पड़ा कि सब भगवान् की कृपा ही कृपा थी।

परिस्थितियां हमें तोड़ देती हैं, विचलित कर देती हैं- इतनी विचलित की भगवान के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठाने लगते हैं। क्यों हम सबमें इतनी शक्ति नहीं होती ईश्वर की लीला समझने की, भविष्य में क्या होने वाला है उसे देखने की? इसी नादानी में हम ईश्वर द्वारा कृपा करने से पूर्व की जा रही तैयारी को समझ नहीं पाते। बस कोसना शुरू कर देते हैं कि सारे पूजा-पाठ, सारे जतन कर रहे हैं फिर भी ईश्वर हैं कि प्रसन्न होने और अपनी कृपा बरसाने का नाम ही नहीं ले रहे। पर हृदय से और शांत मन से सोचने का प्रयास कीजिए, क्या सचमुच ऐसा है या फिर हम ईश्वर के विधान को समझ ही नहीं पा रहे?

आप अपनी गाड़ी किसी ऐसे व्यक्ति को चलाने को नहीं देते जिसे अच्छे से ड्राइविंग न आती हो तो फिर ईश्वर अपनी कृपा उस व्यक्ति को कैसे सौंप सकते हैं जो अभी मन से पूरा पक्का न हुआ हो। कोई साधारण प्रसाद थोड़े ही है ये, मन से संतत्व का भाव लाना होगा।

ईश्वर द्वारा ली जा रही परीक्षा की घड़ी में भी हम सत्य और न्याय के पथ से विचलित नहीं होते तो ईश्वर की अनुकंपा होती जरूर है, किसी के साथ देर तो किसी के साथ सवेर। यह सब पूर्वजन्मों के कर्मों से भी तय होता है कि ईश्वर की कृपादृष्टि में समय कितना लगना है।

घड़े की तरह परीक्षा की अवधि में जो सत्यपथ पर टिका रहता है वह अपना जीवन सफल कर लेता है।

👉 Bhagwaan Ko Pane Ke Sutra भगवान को पाने के सूत्र

भगवान को पाने के तीन सूत्र है वो है हमारा भगवान के प्रती समर्पण, विशर्जन और विलय
रामकृष्ण परमहंस के अनुसार इन तीनो साधनाओ को करने के लिए नीचे लिखे पाच भावो में से कोई भी एक अपना कर हम भगवन को पा सकते है इनके द्वारा भक्त, अपने भगवान के प्रती, अपनी प्रीती जाता सकता –

१. दास भाव -
रामकृष्ण परमहंस ने अपनी इस साधना के दौरान जो भाव हनुमान का अपने प्रभु राम से था इसी भाव से उन्होंने साधना की और साधना के अंत में उन्हें प्रभु श्रीराम और माता सीता के दर्शन हुए और वे उनके शरीर में समा गए।

२. दोस्त भाव -
इस साधना में स्वयं को सुदामा मान कर और भगवान को अपना मित्र मानकर की जाती है।

३. वात्सल्य भाव -
1864 में रामकृष्ण एक वैष्णव गुरु जटाधारी के सनिद्य में वात्सल्य भाव की साधना की, इस अवधि के दौरान उन्होंने एक मां के भाव से रामलला के एक धातु छवि (एक बच्चे के रूप में राम) की पूजा की. रामकृष्ण के अनुसार, वह धातु छवि में रहने वाले भगवान के रूप में राम की उपस्थिति महसूस करते थे।

४. माधुर्य भाव -
बाद में रामकृष्ण ने माधुर्य भाव की साधना की. उन्होंने अपने भाव को कृष्ण के प्रति गोपियों और राधा का रखा. इस साधना के दौरान, रामकृष्ण कई दिनों महिलाओं की पोशाक में रह कर स्वयं को वृंदावन की गोपियों में से एक के रूप में माना. रामकृष्ण के अनुसार, इस साधना के अंत में, वह साथ सविकल्प समाधि प्राप्त की।

५ . संत का भाव (शांत स्वाभाव) -
अन्त में उन्होने संत भाव की साधना की. इस साधना में उन्होंने खुद को एक बालक के रूप में मानकर माँ काली की पूजा की और उन्हें माँ काली की दर्शन हुए।

👉 आज का सद्चिंतन दृष्टिकोण बदलो (Drushtikon Badlo)


👉 प्रेरणादायक प्रसंग गुरुनानक जी का सन्देश ( Guru Nanak Vani)


👉 Upasana Ko Apnayen उपासना को अपनायें (भाग 1)

उपासना को समग्र रूप में अपनायें- समुचित लाभ उठायें

आत्मोत्कर्ष के लिए उस महाशक्ति के साथ घनिष्ठता बनाने की आवश्यकता है जिसमें अनन्त शक्तियों और विभूतियों के भण्डार भरे पड़े हैं। बिजली घर के साथ घर के बल्ब, पंखों का सम्बन्ध जोड़ने वाले तारों का फिटिंग सही होते ही वे ठीक तरह अपना काम कर पाते हैं। परमात्मा के साथ आत्मा का सम्बन्ध जितना निकटवर्ती एवं सुचारु होगा, उसी अनुपात से पारस्परिक आदान- प्रदान का सिलसिला चलेगा और उससे छोटे पक्ष को विशेष लाभ होगा। दो तालाबों के बीच में नाली खोदकर उनका सम्बन्ध बना दिया जाय तो निचले तालाब में ऊँचे तालाब का पानी दौड़ने लगेगा। और देखते- देखते दोनों की ऊपरी सतह समान हो जाएगी, पेड़ से लिपटकर बेल कितनी ऊँची चढ़ जाती है इसे सभी जानते हैं। यदि उसे वैसा सुयोग न मिला होता अथवा वैसा साहस न किया होता तो वह अपनी पतली कमर के कारण मात्र जमीन पर फैल भले ही जाती, पर ऊपर चढ़ नहीं सकती थी।

पोले बाँस का निरर्थक समझा जाने वाला टुकड़ा जब वादक के हाथों के साथ तादात्म्य स्थापित करता है तो बाँसुरी वादन का ऐसा आनन्द आता है जिसे सुनकर सांप लहराने और हिरन मन्त्र मुग्ध होने लगते हैं। पतले कागज के टुकड़े से बनी पतंग आकाश को चूमती है, जब उसकी डोर का सिरा किसी उड़ाने वाले के हाथ में रहता है। यह सम्बन्ध शिथिल पड़ने या टूटने पर सारा खेल खतम हो जाता है और पतंग जमीन पर आ गिरती है। यह उदाहरण यह बताते है कि यदि आत्मा को परमात्मा के साथ सघनतापूर्वक जुड़ जाने का अवसर मिल सके, तो उसकी स्थिति सामान्य नहीं रहती। तब उसे नर पामरों जैसा जीवन व्यतीत नहीं करना पड़ता। वरन् ऐसे मानव देखते- देखते कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं। इतिहास पुराण ऐसे देव मानवों की चर्चा से भरे पड़े हैं जिनने अपने अन्तराल को निकृष्टता से विरत करके ईश्वरीय महानता के साथ जोड़ा और देखते- देखते कुछ से कुछ बन गए।

उपासना को आध्यात्मिक प्रगति का आवश्यक एवं अनिवार्य अंग माना गया है। उसके बिना वह सम्बन्ध जुड़ता ही नहीं है, जिसके कारण छोटे- छोटे उपकरण बिजली घरों के साथ तार जोड़ लेने पर अपनी महत्त्वपूर्ण हलचलें दिखा सकने में समर्थ होते हैं। घर में हीटर, कूलर, रेफ्रिजरेटर, रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन आदि कितने ही सुविधाजनक उपकरण क्यों न लगे हो, पर उनका महत्त्व तभी है जब उनके तार बिजलीघर के साथ जुड़कर शक्ति भण्डार से अपने लिए उपयुक्त क्षमता प्राप्त करते रहने का सुयोग बिठा लेते हो। उपासना का तत्त्वज्ञान यही है। उसका शब्दार्थ है- उप+आसन, अर्थात् अति निकट बैठना। परमात्मा और आत्मा को निकटतम लाने के लिए ही उपासना की जाती है। विशिष्ट शक्ति के आदान- प्रदान का सिलसिला इसी प्रकार चलता है।

.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 19)

IS PREDICTION OF FUTURE EVENTS POSSIBLE?

At times, yogis having paranormal powers make accurate predictions about the future events. It should not create the misconception that life is strictly bound by rigid predestination. The future course of life undoubtedly depends on past karmas. By virtue of paranormal powers the futurologists and seers are able to foresee the ultimate outcome of the Prarabdha Karmas. In this world, too, we can often predict the probable future on the basis of a comprehensive data. On learning details of legal proceedings an experienced juror may foretell the judgement to be delivered. It does not mean that there is no relevance of prosecutors, defendants, evidence, lawyers and cross-examinations. Foretelling of events also does not mean that certain events can be correlated to some particular past Prarabdha Karmas. In fact, fate and selfeffort (Taqdeer and Tadbeer) are two faces of the same
coin. Self-efforts (karmas) are given the name of destiny when they beer fruit.

We may compare the current karma with any raw fruit, which is going to ripen in future as destiny. The fate of today is the karmas of the past. If karma stands for an infant calf, Prarabdha is the state acquired by it late in life as an aged cow. The word Prarabdha is frequently misunderstood as predestiny though Prarabdha Karmas and Prarabdha (fate) are two names given to the same phenomena- with a time lag in between.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 33

👉 How to Stay Happy? (Part 2)

It is not true that everything is going perfectly well in the life of a happy person. Everybody has to go through his/her share of difficult and challenging situations in life. All of us desire to have a better life, but we should not waste away whatever good things we already have in pursuit for something better. Instead we should utilize what we have to obtain what we desire further.

One might find happiness in the pages of an old book kept in one’s shelf or in something simple that a person cooked, while that recipe may not even be found in the menu of a 5-star restaurant. There could be times when a person might feel happy after keeping a vessel of water for birds to drink on a hot summer day, while he might not be satisfied with Rs. 500/- offering at a temple. In this way, one will realize that happiness is related to the emotions which make the mind happy and contented. Emotions which are disturbing, annoying and unpleasant can never give happiness.

In fact, most of our worries are centered on what others will think or say to what we do. If we want to lead a happy life, psychologists recommend that we stay connected to a goal instead of people and things. Another suggestion is that one should do what one’s conscience propels him to pursue instead of worrying about what others will say or think. It will be his great loss if he does not pursue his dream frightened of what others will think about it. Any worthy step that a person executes in a planned manner not only gives him/her happiness but also contentment. Positive thinking and diligent efforts are the keys to happiness.

To be continued...
📖 From Akhand Jyoti

👉 Krodh Ko Jito क्रोध को जीतो आत्मचिंतन के क्षण

■ क्रोध को क्रोध से जीतने का प्रयास करना बड़ा भारी बिगाड़ पैदा करना है। छोटे-छोटे उलाहने, शब्दों की मार, नुक्ताचीनी, ताने मारना, व्यंग्य करना, प्रतिशोध या घृणावश बुरे नहीं जान पड़ते, पर मन, मस्तिष्क और आत्मा पर इनका विषवत् दुष्प्रभाव पड़ता है। ये दोष शरीर को कमजोर बनाते हैं, मस्तिष्क को खोखला और आत्मा को अपवित्र करते हैं।

◇ मनुष्य यदि सामान्य रूप से सुखी रहना चाहता है तो उसे अपनी परिस्थिति से परे की महत्त्वाकाँक्षाओं का त्याग करना होगा। उसे अपनी सीमा में रहकर आगे के लिए प्रयास करना होगा। उन्हें प्रकृति के इस नियम में आस्था रखनी ही होगी कि मनुष्य का विकास क्रमपूर्वक होता है, सहसा ही कोई कामनाओं के बल पर ऊँचा नहीं उठ जाता। जीवन में सुख-शान्ति के लिए आवश्यक है कि अपनी सीमाओं के अनुरूप ही कामना की जाये, उसी में रहकर धीरे-धीरे विकास की ओर बढ़ा जाये।

★ संसार परमात्मा की लीला भूमि और मनुष्य की कर्मभूमि है। यहाँ  पग-पग पर प्रतियोगिता में-परीक्षा में अपने को डालकर पात्रता प्रमाणित करनी होती है। उसमें विजय प्राप्त करने पर  ही पुरस्कार मिलता है। परीक्षा तथा प्रतियोगिता उत्तीर्ण किए बिना न तो आज तक किसी को सफलता तथा श्रेय मिला है और न आगे ही मिलेगा। जिसे श्रेय एवं सफलता की आकाँक्षा है, वह अपने को प्रतियोगी मानकर इस कर्मभूमि में अपनी कर्मठता तथा कर्त्तव्यशीलता का प्रमाण दे और तब देखे कि उसे मनोवांछित फल मिलता है या नहीं।

□ संसार में बुराइयाँ इसलिए बढ़ रही हैं कि बुरे आदमी अपने बुरे आचरणों द्वारा दूसरों को ठोस शिक्षण देते हैं। उन्हें देखकर यह अनुमान लगा लिया जाता है कि इस कार्य पर इनकी गहरी निष्ठा है, जबकि सद्विचारों के प्रचारक वैसे उदाहरण अपने जीवन में प्रस्तुत नहीं कर पाते। वे कहते तो बहुत कुछ हैं, पर ऐसा कुछ नहीं कर पाते जिससे उनकी निष्ठा की सच्चाई प्रतीत हो।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...