रविवार, 2 सितंबर 2018

👉 साधुता की कसौटी

🔶 एकबार एक धनी व्यक्ति ने एक ऊँची बली पर रत्न जटित कीमती कमण्डल टाँग दिया और घोषणा की कि जो कोई साधु इस बल्ली पर सीधा चढ़कर कमण्डल उतार लेगा उसे यह कीमती पात्र ही नहीं बहुत दक्षिणा भी दूँगा। बहुत से त्यागी और विद्वान् साधुओं ने भी प्रयत्न किया पर किसी को सफलता न मिली। अन्त में कश्यप नामक नट विद्या में बहुत सा जीवन बिताकर साधु बने एक बौद्ध भिक्षु ने उस बल्ली पर चढ़कर कमण्डलु उतार लिया। उसकी बहुत प्रशंसा हुई और धन भी मिला।

🔷 जब यह समाचार भगवान बुद्ध के पास पहुँचा तो वे बहुत दुःखी हुये। उनने सब शिष्यों को बुलाकर कहा-भविष्य तुम में से कोई भिक्षु इस प्रकार का चमत्कार न दिखाये और न उन लोगों से भिक्षा ग्रहण करे जो साधु का आचार नहीं चमत्कार देखकर उसे बड़ा मानते हों।
चमत्कार नहीं चरित्र और ज्ञान ही साधुता की कसौटी है।

📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1961

👉 विनम्रता का परिचय

🔶 लोकतंत्र के महान समर्थक अब्राहम लिंकन एक बार अपने गांव के नजदीक एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे। भाषण के बीच एक महिला खड़ी होकर बोली - 'अरे, यह राष्ट्रपति है? यह तो हमारे गांव के मोची का लड़का है।'

🔷 अपने प्रति ये अपमानजनक शब्द सुनकर लिंकन ने बड़े ही विनम्र शब्दों में उस महिला से कहा, 'मैडम! आपने बहुत अच्छा किया जो उपस्थ्ति जनता से मेरा यथार्थ परिचय करा दिया, मैं वही मोची का बेटा हूँ। क्या मैं आपसे एक बात पूछ सकता हूँ? 'अवश्य', उस महिला ने कहा।

🔶 तब लिंकन ने पूछा - 'क्या आप यह बताने का कष्ट करेंगी कि मेरे पिताजी ने आपके जूते आदि तो ठीक तरह से मरम्मत किए थे न? आपको उनके कार्य में कोई शिकायत तो नहीं मिली।'

🔷 उस महिला ने सफाई देते हुए कहा - 'नहीं, नहीं, उनके कार्य में कोई शिकायत नहीं मिली। वे अपना काम बड़ी अच्छी तरह करते थे।'

🔶 तब लिंकन ने उत्तर दिया, 'मैडम! जिस प्रकार मेरे मोची पिता ने अपने कार्य में आपको कोई शिकायत का मौका नहीं दिया, उसी प्रकार मैं भी आपको आश्वस्त करता हूँ कि आपने मुझे राष्ट्रपति के रूप में सेवा करने का जो मौका दिया है, उसे मैं बड़ी ही कुशलता से करूंगा और यह मेरी कोशिश रहेगी कि मेरे काम में आपको कोई शिकायत का मौका न मिले।'

🔷 यह है अमरीकी इतिहास के सर्वाधिक सफल राष्ट्रपति लिंकन की विनम्रता का उदाहरण, जिन्हें आज भी बड़ी श्रद्धा एवं आदर के साथ स्मरण किया जाता है।

👉 उक्त उदाहरण का विश्लेषण कर हम यह कह सकते हैं कि

🔷 विनम्रता-आत्म-सम्मान (यानी ऊँचे स्वाभिमान) का एक विशेष गुण है।

🔶 व्यक्ति की महानता को दर्शाती है।

🔷 एक पॉजिटिव पर्सनेलिटी ही सारी खूबियों की बुनियाद है।

🔶 मनुष्य को उदारचित बनाती है।

🔷 परोपकार की भावना प्रदान करती है।

🔶 धैर्यवान व संयमी बनाती है और सभी को अपनी ओर आकर्षित करती है।
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👉 आज का सद्चिंतन 2 September 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 2 September 2018


👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 2)

🔶 नई मान्यता के अनुसार मनुष्य एक चलता-फिरता पौधा मान लिया गया। अधिक से अधिक उसे वार्तालाप कर सकने की विशेषता वाला पशु माना जाने लगा। प्राणीवध में जिस निर्दयता और निष्ठुरता का आरोपण कर लोग अनुचित और अधार्मिक माना करते थे, वह अब असमंजस का विषय नहीं रह सकेगा, ऐसा दीखता है। कद्दू-बैंगन की तरह किसी भी पशु-पक्षी को माँसाहार के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। दूसरे की पीड़ा जब हमें स्वयं को अनुभव नहीं होती और सामिष आहार में अधिक प्रोटीन होने और अपने शरीर को लाभ मिलने की बात प्रत्यक्षवादी कहने लगें तो कोई प्राणीवध को इसलिए क्यों अस्वीकार करे कि उसके कारण नीति का अनुशासन बिगड़ता है तथा भावनाएँ विचलित होती हैं।

🔷 ठीक यही बात अन्य मानवी मर्यादाओं के सम्बन्ध में भी हैं। अपराधों के लिए द्वार इसीलिए खुला कि उसमें मात्र दूसरों की हानि होती है। अपने को तो तत्काल लाभ उठाने का अवसर मिल जाता है। अन्य विचारों में भी पशु-प्रवृत्तियों को अपनाए जाने के सम्बन्ध में जो तर्क दिए गए और प्रतिपादन प्रस्तुत किए गए हैं, उन्हें देखते हुए यौन सदाचार के लिए भी किसी पर कोई दबाव नहीं पड़ता। जब इस सम्बन्ध में पशु सर्वथा स्वतन्त्र हैं तो मनुष्य के लिए ही क्यों इस सन्दर्भ में प्रतिबन्ध होना चाहिए। जीव जगत में जब धर्म, कर्तव्य दायित्व जैसी कोई मान्यता नहीं, तो फिर मनुष्य ही उन जंजालों में अपने को क्यों बाँधे? जब बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, जब बड़ी चिड़िया को छोटी चिड़ियों पर आक्रमण करने में कोई हिचक नहीं होती, जब चीते हिरन स्तर के कमजोरों को दबोच लेते हैं तो फिर समर्थ मनुष्य ही अपने असमर्थ जनों का शोषण करने में क्यों चूकें?
  
🔶 प्रत्यक्षवाद ने, भौतिक विज्ञान ने सुविधा-संवर्धन के लिए कितने ही नए-नए आधार दिए हैं, तो उसकी उपयोगिता और यथार्थता पर क्या किसी को सन्देह करना चाहिए। यदि आत्मा, परमात्मा, धर्म, कर्तव्य पुण्य, परमार्थ जैसी मान्यताओं के आधार पर कोई लाभ हाथों-हाथ नहीं मिलता तो फिर व्यर्थ ही उन बन्धनों को क्यों माना जाए, जिनके कारण अपने को तो तात्कालिक घाटे में ही रहना पड़ता है। समर्थों को इसके कारण संत्रस्त और शोषण का शिकार बनना पड़ता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 4

👉 Saint Versus Mimic

🔶 A mimic reached the court of a king and begged from him a paltry sum of rupees five only as his family was famishing without food. "I am an admirer of arts. It is the moral duty of State to encourage and honour an artist. I shall gladly reward you in appreciation of a feat of your art, i.e. mimicry; but I do not consider it appropriate to give you even rupees five as alms," said the king. "Doesn't matter your Highness, I don't want you to violate your principle. Please give me three days time to show you my next act of mimicry." Saying this, the mimic left the court. Next day a saint was seen in a meditative posture on a mound outside the capital of the kingdom, with erect spine, closed eyes, glowing face and long matted hair.

🔷 Cowherds grazing the cattle near the mound spotted the saint from a distance and went to him out of curiosity. The ascetic was so absorbed in his meditation on a deer- skin, that he did not betray any sign of noticing the crowd standing in front of him. 'Swamiji'  where from have you come? Should we arrange for some fruits, milk and dry fruits for you? There was no response whatsoever either by gesture or word from Swamiji. In the evening all cowherds went back to town along with their cattle.

🔶 They spread the news of arrival of a great saint outside the town. The next day many elites of the town, courtiers, merchants, traders and devout persons rushed out of the town in their vehicles, carrying fruits, sweets, sumptuous dishes and preparations for the Mahatma. Everybody was anxious that the Mahatma would bless him by accepting even a morsel of his offerings. The saint did not even blink his eyes. He remained sitting there unmoved. The news of the presence of a highly evolved saint reached the prime minister of the kingdom. He too rushed to the mound in his chariot full of gold and silver coins which were placed in front of the saint as an offering.

🔷 The prime minister humbly requested the saint "Just oblige your servant once by opening your eyes oh great yogi. I have not come to plead for fulfillment of any desire." Even the request of prime minister went unheeded; and he became assured that the sadhu was a highly elevated soul indeed - free from all worldly attachments. He went back to the town and apprised the king of his impression about the Mahatma. The king started lamenting "When such a great yogi has come to my state I should have definitely gone to welcome him." Early morning the next day he started for the darshan of the yogi. The news spread throughout the state like wild fire.

🔶 The pathways through which king had to pass were cleaned. Policemen were posted in the way. The King offered one lakh asharfis (gold coins) at the feet of the ascetic and bowing his head at his feet besought his blessings but the saint remained unmoved and self absorbed. Now every body was sure that they were fortunate to have darshan of a truly great saint free from all worldly allurements.

🔷 On the fourth day the mimic again entered the court and with folded hands said, "Oh King! You must have seen the miracle of the art of mimicry and must have been impressed by it. If so, please do give me at least a prize of five rupees, so that I may manage to procure simple food for my family.

🔶 " The king exclaimed: "I have not seen a foolish person like you. When the public of the whole populace of the state was standing at your feet eager to offer you the riches of the world, you did not even look at the treasure heap of wealth and riches and now you are craving before me for a paltry sum of five rupees." The mimic replied "Your Highness! At that time it was the question of dignity of the robe and role of a saint. I would have degraded the exalted status of a saint if I had succumbed to temptation in the saint's apparel and role. Now I have come to you as an ordinary mimic requesting for reward and remuneration for my labour to be able to discharge my minimum duties as a householder  to provide mere sustenance to my famished family."

📖 Akhand Jyoti, May June 2003

👉 मानव अभ्युदय का सच्चा अर्थ

🔶 बुद्ध ने उपनिषद् की शिक्षाओं को जीवन में कार्यान्वित करने की कला का अभ्यास करने के बाद अपना संदेश दिया था। वह संदेश था कि भूमि या आकाश में, दूर या पास में, दृश्य या अदृश्य में, जो कुछ भी है उसमें असीम प्रेम की भावना रखो, हृदय में द्वेष या हिंसा की कल्पना भी जाग्रत न होने दो। जीवन की ही चेष्टा में उठते-बैठो, सोते-जागते, प्रतिक्षण इसी प्रेमभावना में ओतप्रोत रहना ही ब्रह्म-विहार है, दूसरे शब्दों में जीवन की यही गतिविधि है जिससे ब्रह्म का आत्मा में विचार किया जाता है।

🔷 यह ब्रह्म की आत्मा क्या है? उपनिषद् के शब्दों में जो आकाश में तेजोमय और अमृतमय है और जो विश्वचेतना है वही ब्रह्म है और उपनिषद् का कहना है कि आकाश में ही नहीं बल्कि जो हमारे अन्तःकरणों में भी तेजोमय और अमृतमय पुरुष है और जो विश्वचेतना का स्रोत है वह ब्रह्म है। इस विराट विश्व के रिक्त स्थान में उस को चेतनता प्राप्त है और हमारी अंतर-आत्मा में भी उसी की चेतनता है।

🔶 इस लिये इस व्यापक चेतना की प्राप्ति के लिए हमें अपने अन्तर की चेतना से विश्व की असीम चेतनता का समभाव स्थापित करना है। वस्तुतः मानव के अभ्युदय का सच्चा अर्थ इसी चेतना के उदय और विस्तार में है। वही हमारे-सारे ज्ञान-विज्ञान का ध्येय रहा है।

✍🏻 रवीन्द्रनाथ ठाकुर
📖 अखण्ड ज्योति 1967 जनवरी पृष्ठ 1

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...