शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

👉 अलविदा युगपुरुष अटल बिहारी

वह अटल अजातशत्रु वह राजनीति का वैभव जा रहा है
हवाओं रास्ता दो
मेरा भारत रत्न मेरा जननायक जा रहा है
वो जब बोलता था तब लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे।

साथ उसके वाणी का सम्मोहक जा रहा है।
पोखरण में जिसकी धमक को दुनिया ने देखा
वो जिसने खींची राष्ट्र में स्वर्णिम चतुर्भुज की रेखा
हवाओं रास्ता दो
मेरा राष्ट्र रत्न मेरा देश नायक जा रहा है।

राजनीति की काली कोठरी में जो सदा बेदाग रहा
सत्य को सदा सत्य कहने वाला अपने विचारों पर अटल रहने वाला
कवि ह्रदय विचारक जा रहा है।
हवाओं रास्ता दो
मेरा राष्ट्र भक्त मेरा राष्ट्र नायक जा रहा है।

कृतज्ञ राष्ट्र,कृतज्ञ राजनीति, कृतज्ञ जनमानस निःशब्द खड़े देखते हैं।
हम इंसानों के बीच से वह देवतुल्य महामानव जा रहा है
हवाओं रास्ता दो
मेरा विश्व रत्न मेरा गणनायक जा रहा है।

अलविदा युगपुरुष

👉 कल्पना द्वारा नकारात्मक को सकारात्मक में बदलना:

🔶 सुबह उठते ही पहली बात, कल्पना करें कि तुम बहुत प्रसन्न हो। बिस्तर से प्रसन्न-चित्त उठें-- आभा-मंडित, प्रफुल्लित, आशा-पूर्ण-- जैसे कुछ समग्र, अनंत बहुमूल्य होने जा रहा हो। अपने बिस्तर से बहुत विधायक व आशा-पूर्ण चित्त से, कुछ ऐसे भाव से कि आज का यह दिन सामान्य दिन नहीं होगा-- कि आज कुछ अनूठा, कुछ अद्वितीय तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है; वह तुम्हारे करीब है। इसे दिन-भर बार-बार स्मरण रखने की कोशिश करें। सात दिनों के भीतर तुम पाओगे कि तुम्हारा पूरा वर्तुल, पूरा ढंग, पूरी तरंगें बदल गई हैं।

🔷 जब रात को तुम सोते हो तो कल्पना करो कि तुम दिव्य के हाथों में जा रहे हो…जैसे अस्तित्व तुम्हें सहारा दे रहा हो , तुम उसकी गोद में सोने जा रहे हो। बस एक बात पर निरंतर ध्यान रखना है कि नींद के आने तक तुम्हें कल्पना करते जाना है ताकि कल्पना नींद में प्रवेश कर जाए, वे दोनों एक दूसरे में घुलमिल जाएं।

🔶 किसी नकारात्मक बात की कल्पना मत करें, क्योंकि जिन व्यक्तियों में निषेधात्मक कल्पना करने की क्षमता होती है, अगर वे ऐसी कल्पना करते हैं तो वह वास्तविकता में बदल जाती है। अगर तुम कल्पना करते हो कि तुम बीमार पड़ोगे तो तुम बीमार पड़ जाते हो। अगर तुम सोचते हो कि कोई तुमसे कठोरता से बात करेगा तो वह करेगा ही। तुम्हारी कल्पना उसे साकार कर देगी।

🔷 तो जब भी कोई नकारात्मक विचार आए तो उसे एकदम सकारात्मक सोच में बदल दें। उसे नकार दें, छोड़ दें उसे,फेंक दें उसे।

🔶 एक सप्ताह के भीतर तुम्हें अनुभव होने लगेगा कि तुम बिना किसी कारण के प्रसन्न रहने लगे हो— बिना किसी कारण के।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 29)

👉 प्रतिभा के बीजांकुर हर किसी में विद्यमान हैं

🔶 जिन्हें पेट-प्रजनन की ही गरज है, जो लोभ, मोह और अहंकार से ऊँचे उठ सकने की आवश्यकता ही नहीं समझते, उनके संबंध में तो कहा ही क्या जाए? किंतु जिन्हें कोई महत्त्वपूर्ण लक्ष्य प्राप्त करना है, उनके लिए एक ही उपाय है कि प्रसुप्त शक्तियों को जाग्रत करके, उन्हें उस स्तर का अभ्यास कराए, जिसके बलबूते बड़े काम किए जाते हैं-बड़े लाभ अर्जित किए जाते हैं। दूसरों की सहायता पाने की बात को अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए। अपना पुरुषार्थ जगे, तो यह स्वाभाविक है कि खिले हुए फूल को देखकर उस पर तितलियाँ मँडराते और भौंरे यश गीत गाने की झड़ी लगाएँ।
  
🔷 अध्यात्म दर्शन का सार निष्कर्ष इतना भर है कि अपने को जानों, ‘आत्मानं विद्धि’। अपने को विकसित करो और ऐसी राह पर चलो जो कहीं ऊँचे लक्ष्य तक पहुँचाती हो। यह शिक्षा अपने आपके लिए है। इसे स्वीकार-अंगीकार करने के उपरांत ही वह प्रयोजन सधता है, जिसमें दूसरों से कुछ समर्थन, सहायता, अनुदान पाने की आशा की जाए। देवता भी तपस्वियों को ही वरदान देते हैं, बाकी तो फूल प्रसाद के दोने लिए, देव स्थानों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं। भिखारी कितना कुछ कमा पाते हैं, इसे सभी जानते हैं। उन्हें जीवन भर अभावों की, उपेक्षा की शिकायत ही बनी रहती है।
  
🔶 वस्तुस्थिति समझने के उपरांत उसी निमित्त उन्मुख होना चाहिए कि अपने को अधिक प्रामाणिक और अधिक प्रखर बनाने में जुट पड़ा जाए। मनौती मानते रहने की अपेक्षा यही अवलंबन सही और सच्चा है। इस हेतु कुछ कदम बढ़ाने से पूर्व यह अनुमान लगा लेना चाहिए कि अपने भीतर सामर्थ्य का अजस्र भंडार भरा पड़ा है। स्रष्टा ने मनुष्य को असाधारण सफलताएँ उपलब्ध कर सकने की संभावनाओं से भरा-पूरा बनाया है। आवश्यकता मात्र इतनी है कि अवरोध की झीनी दीवार को गिराने के लिये साहस जुटाया जाये। अंडों में जब चूजा समर्थ हो जाता है तो भीतर से जोर लगाता है और छिलके को तोड़कर बाहर आता है। इसके बाद तो उसकी माता ही सहायता करने लगती है। प्रसव वेदना का कारण एक ही है कि गर्भस्थ बालक बाहर निकलने के लिए अपनी शक्ति प्रयोग करता है। यदि भ्रूण अति दुर्बल और मृत-मूर्च्छित हो, तो प्रसव की संभावना अतीव दुष्कर हो जाती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 38

👉 Materialism and Spirituality: Two ways of Living ( Part 1)

🔶 There are two aspects of human life: one that relates to the physical body materialism; and the other that relates to the inner self (the soul) spirituality. Materialism means an inclination towards acquiring material possessions and comforts; in short, it is a tendency to lead a life in which pleasures of the body are given preference above anything else. Spirituality means, centred and established on the soul, that is, activities in life are decided keeping in mind the awakening of the soul. Normally a persons needs are fulfilled with limited materials such as food to satisfy hunger, few clothes to cover the body, a bed for rest, a house for shelter, etc.; anything over and above the basic needs either remains unused or is misused.

🔷 For example, if a person who can eat four chapattis for lunch were given eight chapattis, it would be beyond his capacity to eat the extra four chapattis. A single bed is enough for a person to sleep on; any more bed space would remain unused. Considering this, a few hours work is sufficient to satisfy bodys requirements. The same is true for senses also. There are five physical senses: touch, smell, taste, hearing and vision. No matter how beautiful a view may be, the eyes will tire of seeing it after a few minutes. The ears will not be able to listen to melodious music indefinitely.

🔶 A person will be able to eat only a certain quantity of food of his liking. Thus the senses have limited requirements, beyond which they become saturated. But senses are never satisfied they always crave for more. The mind is considered to be the sixth sense. Its attributes are greed, attachment (moha) towards worldly objects and people, and egoism. The mind experiences joy when these three attributes are attended to. Man generally engages his time and effort in satisfying the requirements of the body and the mind. The mind propels him to fulfill the three attributes and also employs the body in its schemes. This is not surprising, since satisfaction of the senses is a bodily requirement, and the mind is one of the senses.

📖 Akhand Jyoti, Jan Feb 2003

👉 प्रत्यक्ष ही नहीं, परोक्ष भी प्रदूषित

🔶 मनुष्य का चिन्तन, चरित्र और व्यवहार व्यक्ति और समाज को तो प्रभावित करता ही है, सूक्ष्म जगत भी उससे अछूता नहीं रह पाता है। विकृत चिन्तन और भ्रष्टचरित्र, सूक्ष्म जगत के अदृश्य वातावरण को प्रदूषण से भर देते हैं। प्रकृति की सरल स्वाभाविकता बदल जाती है और वह रुष्ट होकर दैवी आपत्तियाँ बरसाने लगती है। इन दिनों अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़ दुष्काल, भूकम्प जैसी विपत्तियां बढ़े क्षेत्रों को प्रभावित कर रही है। शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोगों में भी भारी बढ़ोतरी हो रही है। मानवी सद्भावना में, व्यक्तित्व के स्तरों में बुरी तरह गिरावट आ रही है। इन सब के कारण वर्तमान जटिल और भविष्य धूमिल बनता जा रहा है। अनेक विसंगतियाँ जड़ें जमा रही है। जो लोग इन परिस्थितियों में सुधार करने की स्थिति में हैं, उनमें भी इन कर्त्तव्यों के प्रति आवश्यक उत्साह नहीं हैं। सदुपयोग से वही शक्तियाँ सुख सुविधा सम्पन्न स्वर्गीय वातावरण बना सकती हैं। दुरुपयोग तो नरक के अलावा और कुछ बना ही नहीं सकता।

🔷 प्रवाह यदि उल्टा न गया तो स्थिति ऐसी भी आ सकती है जिसे प्रलय कि समतुल्य कहा जा सकता है। अंतरिक्ष का बढ़ता हुआ तापमान ध्रुव प्रदेशों की बर्फ गलाकर जल प्रलय जैसी स्थिति बना सकता है। असंतुलन के दूसरे पक्ष के कारण हिम प्रलय की संभावनाएँ विज्ञजनों द्वारा व्यक्त की जा रही है। धरती कि अंतरिक्ष कवच -ओजोन की पर्त क्षीण होकर फट गयी तो ब्रह्मांडीय किरणें धरती के जीवन को भूतकाल का विषय बना सकती है। यह सब और कुछ नहीं, मनुष्य की उन करतूतों की प्रक्रिया है, जो पिछली दो शताब्दियों में उन्मादी उपक्रम अपनाकर महाविनाश को आमन्त्रण दे रही है।

🔶 परन्तु सृष्टा ऐसा होने नहीं देगा। उसने इस बरती को, उसकी प्रकृति सम्पदा को, मानवी सत्ता को अलग मनोयोग पूर्वक सँजोया है। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक अनेक बार, अनेकों की विकट परिस्थितियाँ आयी है। उन्हें टालने वाले ने समय रहते टाला है और उलटी दिशा में बहते प्रवाह को उलट कर सीधा किया है। “यदा यदा हि धर्मस्य” वाला वचन समय समय पर पूरा होता रहा है। अब भी वह पूरा होकर रहेगा। वही होने की आवश्यकता में सन्देह नहीं, पर बरतते हुए भी निराश होने कर आवश्यकता नहीं है। विनाश की विभीषिकाओं में सन्देह नहीं है वर यह भी निश्चित है कि समय चक्र पूर्व स्थिति की ओर घूम गया है। पुरातन सतयुगी वातावरण का पुनर्निर्माण होकर रहेगा। इसके लिए उपयुक्त समय यही है।

🔷 रात्रि जब समाप्त है, तो एक बार सघन अंधियारा छाता हैं। बुझते दीपक की लौ तेज हो जाती है। संव्याप्त असुरता भी यदि अपने विनाश की वेला आश्चर्य नहीं। प्राचीन काल में असुरों को जब अपनी दुष्टता का समापन होता दिखा तो उन्होंने देवत्व पर सारी शक्ति झोंक कर आक्रमण किया। हारा जुआरी एक बार साहस बटोर कर सब कुछ दाँव पर लगा देता है। भले ही उसे वह सब गँवाना पड़ें। युगसंधि में ऐसा ही हो तो आश्चर्य।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
📖 अखण्ड ज्योति, नवम्बर 1988 पृष्ठ 60

http://awgpskj.blogspot.com/2016/07/blog-post_40.html

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