एक फूल को मैं प्रेम करता हूँ, इतना प्रेम करता हूँ कि मुझे डर लगता है कि कहीं सूरज की रोशनी में कुम्हला न जाये और मुझे डर लगता है कि कहीं जोर की हवा आये, इसकी पंखुड़ियाँ न गिर जायें और मुझे डर लगता है कि कोई जानवर आ कर इसे चर न जाये और मुझे डर लगता है कि पड़ोसी के बच्चे इसको उखाड़ न लें, तो मैं फूल के पौधे को मय गमले के तिजोरी में बंद करके ताला लगा देता हूँ। प्रेम तो मेरा बहुत है, लेकिन करुणा मेरे पास नहीं है।
मैंने पौधे को बचाने के सब उपाय किये। धूप से बचा लिया, हवा से, जानवरों से। मजबूत तिजोरी खरीदी, इसको भी मेहनत करके बनाया, ताला लगा कर पौधे को बंद कर दिया, लेकिन अब यह पौधा मर जायेगा। मेरा प्रेम इसे बचा नहीं सकेगा और जल्दी मर जायेगा। हो सकता था बाहर हवाएँ थोड़ी देर लगातीं और पड़ोसी के बच्चे हो सकता था, इतनी जल्दी न भी आते और सूरज की किरणें फूल को इतनी जल्दी न मुर्झा देतीं, लेकिन तिजोरी में बंद पौधा जल्दी ही मर जायेगा। प्रेम तो पूरा था, लेकिन करुणा जरा भी न थी।
जगत् में प्रेम भी रहा है, दया भी रही है, लेकिन करुणा नहीं। करुणा का अनुभव ही नहीं रहा है। और करुणा का अनुभव आये, तो ही हम जीवन को बदलेंगे और करुणा से अगर दया निकले तो वह दया नकारात्मक न रह जायेगी। उसमें अहंकार की तृप्ति न होगी। और करुणा से अगर अहिंसा निकले तो वह निषेधात्मक न रह जायेगी। वह सिर्फ इतना न कहेगी कि दुःख मत दो, वह यह भी कहेगी दुःख मिटाओ भी, दुःख बचाओ भी, दुःख से मुक्त भी करो, सुख भी लाओ। और अगर करुणा से प्रेम निकले तो प्रेम मुक्तिदायी हो जायेगा, बंधनकारी नहीं रह जायेगा।
सद्गुरु का प्रेम ऐसा ही है। इन वासन्ती क्षणों में करुणा की यह महक बह रही है। यह महक है सद्गुरु की करुणा की। शिष्यवत्सल गुरुवर का प्रेम करुणा से आपूरित है। यह हमारे सामान्य मानवीय दोष-दुर्बलताओं से मुक्त है। प्रेम की सम्पूर्ण उर्वरता इसमें मौजूद है। इसमें संघर्ष है तो सृजन भी है। प्रगति व विकास के चहुँमुखी छोर इसमें है। व्यक्तित्व के बहुआयामी विकास की चमक इसमें है। गुरु स्मरण से मिलने वाला करुणा से आपूरित गुरुप्रेम वसन्त पर्व के इन पावन क्षणों में हम सबको सहज सुलभ है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ ११६
मैंने पौधे को बचाने के सब उपाय किये। धूप से बचा लिया, हवा से, जानवरों से। मजबूत तिजोरी खरीदी, इसको भी मेहनत करके बनाया, ताला लगा कर पौधे को बंद कर दिया, लेकिन अब यह पौधा मर जायेगा। मेरा प्रेम इसे बचा नहीं सकेगा और जल्दी मर जायेगा। हो सकता था बाहर हवाएँ थोड़ी देर लगातीं और पड़ोसी के बच्चे हो सकता था, इतनी जल्दी न भी आते और सूरज की किरणें फूल को इतनी जल्दी न मुर्झा देतीं, लेकिन तिजोरी में बंद पौधा जल्दी ही मर जायेगा। प्रेम तो पूरा था, लेकिन करुणा जरा भी न थी।
जगत् में प्रेम भी रहा है, दया भी रही है, लेकिन करुणा नहीं। करुणा का अनुभव ही नहीं रहा है। और करुणा का अनुभव आये, तो ही हम जीवन को बदलेंगे और करुणा से अगर दया निकले तो वह दया नकारात्मक न रह जायेगी। उसमें अहंकार की तृप्ति न होगी। और करुणा से अगर अहिंसा निकले तो वह निषेधात्मक न रह जायेगी। वह सिर्फ इतना न कहेगी कि दुःख मत दो, वह यह भी कहेगी दुःख मिटाओ भी, दुःख बचाओ भी, दुःख से मुक्त भी करो, सुख भी लाओ। और अगर करुणा से प्रेम निकले तो प्रेम मुक्तिदायी हो जायेगा, बंधनकारी नहीं रह जायेगा।
सद्गुरु का प्रेम ऐसा ही है। इन वासन्ती क्षणों में करुणा की यह महक बह रही है। यह महक है सद्गुरु की करुणा की। शिष्यवत्सल गुरुवर का प्रेम करुणा से आपूरित है। यह हमारे सामान्य मानवीय दोष-दुर्बलताओं से मुक्त है। प्रेम की सम्पूर्ण उर्वरता इसमें मौजूद है। इसमें संघर्ष है तो सृजन भी है। प्रगति व विकास के चहुँमुखी छोर इसमें है। व्यक्तित्व के बहुआयामी विकास की चमक इसमें है। गुरु स्मरण से मिलने वाला करुणा से आपूरित गुरुप्रेम वसन्त पर्व के इन पावन क्षणों में हम सबको सहज सुलभ है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ ११६