रविवार, 10 अप्रैल 2016

शिष्य संजीवनी (भाग 30) : स्वयं को स्वामी ही सच्चा स्वामी


शिष्य संजीवनी के इस सूत्र में श्रुतियों का सार है, सन्त वचनों की पवित्रता है, सिद्ध परम्परा का रहस्य है। बड़े ही गुह्य एवं अटपटे भाव हैं इस सूत्र के। सूत्र की पहली बात में ही बड़ी उलटबांसी है। सामान्य जीवन की रीति यही है कि शक्ति की अभीप्सा इसलिए की जाती है कि लोगों की नजर में, जन समुदाय के बीच में अपने अहंकार को प्रतिष्ठित किया जा सके।

अहंता की प्रतिष्ठा जितनी ज्यादा होती है, लोगों की नजर में व्यक्ति का रूतबा, दबदबा, मर्तबा उतना ही ज्यादा होता है। उसकी बड़ी धाक होती है सबकी दृष्टि में। सभी उससे डरते, दबते या घबराते हैं। जितना ज्यादा मान उतनी ही ज्यादा शक्ति। यही सोच है जमाने की। यही चलन है दुनिया की। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि मान पाने के लिए, मर्तबा पाने के लिए लोग शक्ति की चाहत रखते हैं।

लेकिन शिष्य के जीवन में तो इसका अर्थ ही उल्टा है। शिष्य तो शक्ति इसलिए चाहता है कि वह स्वयं को पूरी तरह से अपने सद्गुरु के चरणों में समर्पित कर सके। अपने अस्तित्त्व को गुरुदेव के अस्तित्त्व को विलीन कर सके। समर्पण की साधना के लिए विसर्जन की भावदशा के लए, विलीनता की अनुभूति के लिए गहन शक्ति की आवश्यकता है। यह काम थोड़ी- बहुत शक्ति से नहीं हो सकता। अपने बिखरे हुए अस्तित्त्व को समेटना, एकजुट करना और फिर उसे गुरुदेव के अस्तित्त्व में मिला देना बड़े साहस का काम है।

इसके लिए महान् शक्ति चाहिए। अपने को बनाने, बड़ा सिद्ध करने के लिए तो सभी प्रयासरत रहते हैं। परन्तु स्वयं को मिटाने, विसर्जित करने के लिए विरले ही तैयार होते हैं। शिष्य को यही विरल काम करना होता है। उसे अपने शिष्यत्व का खरापन साबित करने के लिए स्वयं को पूरी तरह मिटा देना होता है। उसे लोगों की नजर में नहीं भगवान् और अपने सद्गुरु की नजर में खुद को प्रमाणित करना होता है। जो ऐसा करने में समर्थ होता है वही खरा शिष्य बन पाता है।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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