बुधवार, 6 दिसंबर 2017

👉 जैसा खाओ अन्न, वैसा होये मन: -

🔷 बासमती चावल बेचने वाले एक सेठ की स्टेशन मास्टर से साँठ-गाँठ हो गयी। सेठ को आधी कीमत पर बासमती चावल मिलने लगा। सेठ को हुआ कि इतना पाप हो रहा है तो कुछ धर्म-कर्म भी करना चाहिए।

🔶 एक दिन उसने बासमती चावल की खीर बनवायी और किसी साधु बाबा को आमंत्रित कर भोजन प्रसाद लेने के लिए प्रार्थना की। साधु बाबा ने बासमती चावल की खीर खायी। दोपहर का समय था। सेठ ने कहाः "महाराज ! अभी आराम कीजिए। थोड़ी धूप कम हो जाय फिर पधारियेगा।"

🔷 साधु बाबा ने बात स्वीकार कर ली। सेठ ने 100-100 रूपये वाली 10 लाख जितनी रकम की गड्डियाँ उसी कमरे में चादर से ढँककर रख दी।

🔶 साधु बाबा आराम करने लगे। खीर थोड़ी हजम हुई। चोरी के चावल थे। साधु बाबा के मन में हुआ कि इतनी सारी गड्डियाँ पड़ी हैं, एक-दो उठाकर झोले में रख लूँ तो किसको पता चलेगा ? साधु बाबा ने एक गड्डी उठाकर रख ली। शाम हुई तो सेठ को आशीर्वाद देकर चल पड़े।

🔷 सेठ दूसरे दिन रूपये गिनने बैठा तो 1 गड्डी (दस हजार रुपये) कम निकली। सेठ ने सोचा कि महात्मा तो भगवत्पुरुष थे, वे क्यों लेंगे ? नौकरों की धुलाई-पिटाई चालू हो गयी। ऐसा करते-करते दोपहर हो गयी।

🔶 इतने में साधु बाबा आ पहुँचे तथा अपने झोले में से गड्डी निकाल कर सेठ को देते हुए बोलेः

🔷 "नौकरों को मत पीटना, गड्डी मैं ले गया था।"

🔶 सेठ ने कहाः "महाराज ! आप क्यों लेंगे ? जब यहाँ नौकरों से पूछताछ शुरु हुई तब कोई भय के मारे आपको दे गया होगा और आप नौकर को बचाने के उद्देश्य से ही वापस करने आये हैं क्योंकि साधु तो दयालु होते हैं।"

🔷 साधुः "यह दयालुता नहीं है। मैं सचमुच में तुम्हारी गड्डी चुराकर ले गया था। सेठ ! तुम सच बताओ कि तुम कल खीर किसकी और किसलिए बनायी थी ?"

🔶 सेठ ने सारी बात बता दी कि स्टेशन मास्टर से चोरी के चावल खरीदता हूं,उसी चावल की खीर थी।

🔷 साधु बाबा "चोरी के चावल की खीर थी इसलिए उसने मेरे मन में भी चोरी का भाव उत्पन्न कर दिया। सुबह जब पेट खाली हुआ, तेरी खीर का सफाया हो गया तब मेरी बुद्धि शुद्ध हुई कि 'हे राम.... यह क्या हो गया ? मेरे कारण बेचारे नौकरों पर न जाने क्या बीत रही होगी। इसलिए तेरे पैसे लौटाने आ गया।"

🔶 इसीलिए कहते हैं किः

🔷 जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन। जैसा पीओ पानी वैसी होवे वाणी।

👉 प्रार्थना करें, याचना नहीं

🔷 भगवान से प्रार्थना कीजिये, याचना नहीं। आपकी स्थिति ऐसी नहीं कि कमजोरियों के कारण किसी का मुँह ताकना पड़े और याचना के लिए हाथ फैलाना पड़े। 

🔶 प्रार्थना कीजिये कि आपका प्रसुप्त आत्मबल जाग्रत् हो चले ।। प्रकाश का दीपक जो विद्यमान है, वह टिमटिमाये नहीं वरन् रास्ता दिखाने की स्थिति में बना रहे। मेरा आत्मबल मुझे धोखा न दे। समग्रता में न्यूनता का भ्रम न होने दे।  

🔷 जब परीक्षा लेने और शक्ति निखारने हेतु संकटों का झुण्ड आये, तब मेरी हिम्मत बनी रहे और जूझने का उत्साह भी। लगता रहे कि यह बुरे दिन अच्छे दिनों की पूर्व सूचना देने आये हैं।

🔶 प्रार्थना कीजिये की हम हताश न हों, लड़ने की सामर्थ्य को पत्थर पर घिसकर धार रखते रहें। योद्धा बनने की प्रार्थना करनी है, भिक्षुक बनने की याचना नहीं। जब अपना भिक्षुक मन गिड़गिड़ाये, तो उसे दुत्कार देने की प्रार्थना भी भगवान् से करते रहें।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अपना स्वर्ग, स्वयं बनायें (भाग 3)

🔶 स्वर्ग की विशेषताओं में आनन्द के अतिरिक्त एक विशेषता अमरता भी है। ऐसी मान्यता है कि स्वर्ग प्राप्त कर लेने वाले देवकोटि में पहुंच जाते हैं और देवता अमर होते हैं, कभी मरते नहीं। अर्थात् स्वर्ग का अधिकारी अमरत्व का भी अधिकारी होता है। किन्तु सत्य बात यह है कि स्वर्ग की विशेषताओं में अमरता की उतनी प्रधानता नहीं है, जितनी की आनन्द की। यदि अमरता छोड़कर स्वर्ग से आनन्द की विशेषता हटा ली जाय और वहां की परिस्थितियां संसार की तरह सामान्य दुःख-सुख और कष्ट, क्लेश देने वाली हो जायं तो शायद उस एकाकी अमरता से भरा स्वर्ग बड़ा घोर भयानक बन जाये। लोग उसके लिये लालायित तो क्या हों, उल्टे उसकी कल्पना से भी भयभीत होने लगें। यदि आनंद से रहित अमरता पूर्ण स्वर्ग किसी को अनायास ही मिलने लगे तब भी कोई उसे स्वीकार न करे। इस थोड़ी-सी अवधि के जीवन में जब आनन्द का अभाव हो जाता है, दुःख और क्लेश का दबाव बढ़ जाता है तो वह दुर्वह भार बन जाता है।
   
🔷 लोग उससे पीछा छुड़ाने के लिये उत्सुक हो उठते हैं, तब भला निरानन्द अमरता से भरा वह युग-युग की अवधि वाला स्वर्गीय जीवन कितना भयानक और असह्य भार बन जाये। आनन्दहीन अमरता की अपेक्षा लोग सानन्द नश्वरता को ही अधिक पसन्द भी करेंगे और श्रेय भी देंगे। आनन्द की प्रधानता के कारण ही स्वर्ग की अमरता का महत्त्व है, अन्यथा वह तो एक असीम कारागृह से अधिक कुछ नहीं है। नरक क्या है? आनन्द रहित अमरता ही तो है, प्रतिकूलता से भी परिस्थितियां ही तो हैं, दुःख और यातना से पूर्ण अवस्था ही तो है। स्वर्ग का महत्त्व अमरत्व के कारण नहीं, आनन्द के कारण है और आनन्द की उत्पत्ति अनुकूल तथा प्रियतापूर्ण परिस्थितियों से होती है।

🔶 वह आनन्दपूर्ण स्वर्ग जो पारलौकिक स्वर्ग की तरह अमरता वाला भले ही न हो पर जो आपके इस जीवन में ही मूर्तिमान हो सकता है, आप स्वयं अपने प्रयत्न से निर्माण कर सकते हैं। वह प्रियता जो आनन्द की जननी कही गई है, आत्मीयता से उत्पन्न होती है। संसार में मनुष्य को जो कुछ अच्छा और प्रिय लगता है, वह आत्म-भाव के कारण। संसार की कोई भी वस्तु कितनी ही सुन्दर और उपयोगी क्यों न हो, तब तक प्रिय नहीं लगती जब तक उसमें आत्म-भाव स्थापित न हो। किन्हीं दर्शनीय स्थानों को दो आदमी एक साथ देखते हैं। उनमें से एक उसके सुन्दर दृश्य को देखकर आनन्दित और आत्म-विभोर हो उठता है, जबकि दूसरा व्यक्ति उसे देखकर अनमना बना रहता है। उसे उसमें न तो कोई आकर्षण अनुभव होता है और न प्रियता। इसका कारण यही है कि एक व्यक्ति उस दृश्य में तन्मय होकर उससे आत्मीयता स्थापित कर लेता है, जबकि दूसरा तटस्थ रहता है। यदि उस दृश्य की सुन्दरता ही प्रियता का कारण होता, तो दोनों व्यक्तियों को ही वह दृश्य एक समान सुन्दर और प्रिय लगता। प्रियतापूर्ण आकर्षण का कारण मनुष्य का आत्म-भाव है न कि किसी वस्तु की विशेषता या गुण।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति- दिसंबर 1968 पृष्ठ 7
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.7

👉 युग निर्माण योजना और उसके भावी कार्यक्रम (भाग 4)

🔶 एक-दूसरे का सहयोग करने की वृत्तियाँ हर एक के मन में बसी हुई थीं। अपने आप स्वयं कष्ट उठा लेना और दूसरे की सेवा करना हर आदमी के सामने लक्ष्य था। यही कारण था कि आदमी थोड़ी-सी वस्तुओं में, साधारण वस्तुओं में भी सुखी रहते थे और दुनिया में जगद्गुरु कहलाते थे, चक्रवर्ती शासन व्यवस्था को सँभालते थे। यहाँ सुख-सम्पदाओं के थोड़े-से किफायतसारी मितव्ययता के आधार जो कुछ भी सम्पदा थी, उसी के इस्तेमाल करने और कुछ बचत करने का था। यहाँ हर घर में सोना-चाँदी था, हर घर में लक्ष्मी का निवास था, क्योंकि आदमियों ने मितव्ययता से उपयोग किया हुआ था।
                
🔷 अपव्ययता का दौर जो आजकल चारों ओर फैला हुआ है, उस जमाने में नहीं था। उस जमाने की परिस्थितियाँ और आज की परिस्थितियों में हम जब तुलनात्मक दृष्टियों से देखते हैं तो पाते हैं कि जो सम्पन्नता आज हमारे पास ज्यादा है, शिक्षा हमारे पास ज्यादा है, विज्ञान के साधन हमारे पास ज्यादा हैं, चिकित्सा के माध्यम हमारे पास ज्यादा है, असंख्य माध्यम और साधन ज्यादा हैं, फिर भी हम असन्तुष्ट होकर कहीं अधिक दुःखी, कहीं अधिक दीन, कहीं अधिक उलझे हुए, कहीं अधिक व्याधियों से त्रस्त हैं। इसका कारण भावनात्मक स्तर का निकृष्ट हो जाना ही है।
    
🔶 युग निर्माण योजना का आविर्भाव केवल इसी समस्या का समाधान करने के लिए हुआ था। दूसरे शब्दों में इसको हम यों कह सकते हैं कि विश्व की जितनी भी समस्याएँ, कठिनाइयाँ और गुत्थियाँ हैं, उन सबका समाधान एक ही उपाय से करने के लिए जो हल ढूँढ़ा गया था, वह नवनिर्माण आन्दोलन का अर्थ भावनात्मक नवनिर्माण है। मनुष्य की विचारणाएँ, भावनाएँ और दृष्टिकोण को बदल देना यही हमारा उद्देश्य है, उसके बदल देने के पश्चात् सारी परिस्थितियाँ स्वयं ही बदल जाती है। एक-एक चीज को हम बदलना चाहें तो बहुत मुश्किल है। हजारों समस्याएँ सामने हैं, उनको अलग-अलग तरीके से हल करना असम्भव है क्योंकि जैसे-जैसे मनुष्यों की आमदनी बढ़ती चली जाएगी, उसमें ही आदमी का खर्च बढ़ता चला जाएगा। आमदनी की अपेक्षा खर्च ज्यादा किया तो दर्द कैसे दूर हो जाएगा? अपव्यय अगर मनुष्य के काबू से बाहर है तो चाहे कितनी ही आमदनी क्यों न बढ़े, हमेशा कर्जदारी की समस्या बनी रहेगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 Vacant Palaces in the Heaven

🔶 Once upon a time Rishi Varud arrived at heaven to meet Indra- the divine king. Indra greeted him and took him for a trip of the heaven. As a result of their good deeds on Earth many persons were leading a lavish life in the heaven. But in the center of the heaven the best of golden palaces were vacant. Noticing this, Rishi Varud asked, "Why are these fascinating palaces full of alluring amenities unoccupied?" 

🔷 "These palaces have been constructed for the saints and compassionate devotees of God," replied Indra, "They are lying vacant because the true saints do not want to come here and spend their time in pleasure. They derive gratification in public service on Earth." God's love and grace is reserved only for such devotees.

📖 From Pragya Puran

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