बुधवार, 3 जुलाई 2019
👉 इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 4)
पुरे समय के लिए तत्काल भावनात्मक नव−निर्माण को ब्राह्मणोचित परम्परा का निर्वाह करने के लिए हर किसी को नहीं कहा जा सकता। जिनने पारिवारिक उत्तरदायित्व पूरे कर लिये हैं, उन्हें वानप्रस्थ में प्रवेश करने के लिए बहुत दिनों से कहा जा रहा है। जुलाई 73 की अखण्ड−ज्योति में इस संदर्भ में अधिक जोर दिया गया है और जो घर की जिम्मेदारियों से निवृत्त हो चुके उन्हें परमार्थिक−जीवन में प्रवेश करने के लिए वानप्रस्थ में प्रवेश करने का अनुरोध किया गया है। दूसरे स्तर के क्लिष्ट वानप्रस्थ वे होंगे —जो अभी शेष जीवन पुरी तरह इस महान लक्ष्य के लिए समर्पित करने की स्थिति में तो नहीं है, पर अधिकाधिक साहस इसके लिए जुटाते रहेंगे।
अब इस श्रृंखला में एक नई कड़ी और जोड़ी जा रही है कि जिन्हें जब जितना अवकाश हुआ करे, तब वे उतने समय के लिए परमार्थ प्रयोजनों के लिए अपना समय लगाने का निश्चय करें और उन्हें कहाँ क्या करना है—इसका निर्देश ‘युग−निर्माण योजना’ मथुरा एवं शान्तिकुंज से प्राप्त कर लिया करे। इस प्रकार थोड़ा−थोड़ा समय भी अनेक व्यक्ति देने लगेंगे तो उस सबका सम्मिलित परिणाम बहुत बड़ा हो जायगा। एक लाख व्यक्ति ऐसे थोड़ा−थोड़ा समय देने वाले हों तो उन सबका मिला हुआ कार्य हजारों नियमित एक पूरे जीवन के लिए साधु−संस्था में प्रवेश करने वालों जितना ही हो जायगा। यह प्रक्रिया सरल बैठेगी। इस योजना के अंतर्गत व्यस्त और पारिवारिक बोझ से लदे हुए व्यक्ति भी थोड़ा-बहुत समय देते रहेंगे तो उन्हें यह पश्चाताप न रहेगा कि हम घरेलू झंझटों में उलझे रहने रहने के कारण युग की पुकार को पूरा करने के लिए कुछ भी न कर सके। ऐसे व्यक्ति पूरा न सही—अधूरा सही का थोड़ा-बहुत अवसर पाकर भी आत्म-सन्तोष की एक साँस ले सकते हैं और कह सकते हैं कि मानवता पर छाई हुई विषम-वेला में हम मूक-दर्शक बने रहने वाले अभागों में से नहीं है। जितना कुछ संभव था, उतना तो किया ही।
बँधा रुपया न मिले। एक-एक पैसे वाले सौ सिक्के मिल जायँ तो गिनने, धरने, उठाने का झंझट तो जरूर रहेगा, पर प्रयोजन वही पूरा हो जायगा—जो एक रुपये से सम्भव होता है। पूरे समय के लिए वानप्रस्थ न मिले तो थोड़ा-थोड़ा समय देने वाले अनेकों का सहयोग लेकर भी सामयिक संकट से जूझने का सुयोग बन सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1974 पृष्ठ 24
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1974/January/v1.24
अब इस श्रृंखला में एक नई कड़ी और जोड़ी जा रही है कि जिन्हें जब जितना अवकाश हुआ करे, तब वे उतने समय के लिए परमार्थ प्रयोजनों के लिए अपना समय लगाने का निश्चय करें और उन्हें कहाँ क्या करना है—इसका निर्देश ‘युग−निर्माण योजना’ मथुरा एवं शान्तिकुंज से प्राप्त कर लिया करे। इस प्रकार थोड़ा−थोड़ा समय भी अनेक व्यक्ति देने लगेंगे तो उस सबका सम्मिलित परिणाम बहुत बड़ा हो जायगा। एक लाख व्यक्ति ऐसे थोड़ा−थोड़ा समय देने वाले हों तो उन सबका मिला हुआ कार्य हजारों नियमित एक पूरे जीवन के लिए साधु−संस्था में प्रवेश करने वालों जितना ही हो जायगा। यह प्रक्रिया सरल बैठेगी। इस योजना के अंतर्गत व्यस्त और पारिवारिक बोझ से लदे हुए व्यक्ति भी थोड़ा-बहुत समय देते रहेंगे तो उन्हें यह पश्चाताप न रहेगा कि हम घरेलू झंझटों में उलझे रहने रहने के कारण युग की पुकार को पूरा करने के लिए कुछ भी न कर सके। ऐसे व्यक्ति पूरा न सही—अधूरा सही का थोड़ा-बहुत अवसर पाकर भी आत्म-सन्तोष की एक साँस ले सकते हैं और कह सकते हैं कि मानवता पर छाई हुई विषम-वेला में हम मूक-दर्शक बने रहने वाले अभागों में से नहीं है। जितना कुछ संभव था, उतना तो किया ही।
बँधा रुपया न मिले। एक-एक पैसे वाले सौ सिक्के मिल जायँ तो गिनने, धरने, उठाने का झंझट तो जरूर रहेगा, पर प्रयोजन वही पूरा हो जायगा—जो एक रुपये से सम्भव होता है। पूरे समय के लिए वानप्रस्थ न मिले तो थोड़ा-थोड़ा समय देने वाले अनेकों का सहयोग लेकर भी सामयिक संकट से जूझने का सुयोग बन सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1974 पृष्ठ 24
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1974/January/v1.24
👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 20)
👉 चित्त के संस्कारों की चिकित्सा
अब यदि क्रमिक रूप में ५- ५ या १०- १० वर्षों के अन्तराल का लेखा- जोखा करें तो हमें विस्मयजनक एवं आश्चर्यचकित करने वाले नए- नए मोड़ अपने जीवन में देखने को मिलेंगे। यह अचरज हमें कितना ही क्यों न चौंकाए, पर यह हमारे जीवन की अनुभूत सच्चाई है। थोड़ा बारीकी से देखें तो इन पंक्तियों के पाठक अनुभव करेंगे कि उनके जीवन में पाँच या दस सालों के अन्तराल में कुछ ऐसा होता गया, जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। मन की कल्पनाएँ बदली, अरमान, आकांक्षाएँ बदली, चाहत एवं वृत्तियों में परिवर्तन हुए, साथ ही परिस्थितियों में नए- नए घटनाक्रमों का उदय हुआ। कई पराए अपने हुए और कई अपने परायापन जताकर विरोधी हो गए। आॢथक -- सामाजिक पहलुओं में भी नए रंग उभरे।
यह सब संयोग की वजह से नहीं, संस्कारों की वजह से हुआ। नए संस्कारों के जागरण एवं नए कर्म बीजों के अंकुरण के कारण हमारे जीवन के नए- नए शृंगार होते गए। यह अलग बात है कि इन परिवर्तनों में कई परिवर्तन हमारे लिए दुखद साबित हुए तो कई ने हमें सुखद अनुभूतियाँ दी। भरोसा करें, यहाँ जो कहा जा रहा है वह आध्यात्मिक ज्ञान का सच है। कोई भी सुपात्र सत्पात्र इसे अनुभव कर सकता है। यदि आपको इस पर भरोसा हो रहा है तो इस सच्चाई पर भी यकीन करें कि संस्कारों की तह तक पहुँच कर, इनका उत्खनन करके दुःखद संस्कारों से छुटकारा पाया जा सकता है। और सुखद संस्कारों को प्रबल बनाया जा सकता है। यानि कि आध्यात्मिक प्रयोगों की सहायता से बुरी मनःस्थिति एवं परिस्थिति से छुटकारा पाया जा सकता है।
विश्वास करें यह एक प्रायोगिक सच है। अनेकों ने अनेक तरह से इसे अपने जीवन में खरा पाया है। बस इसके लिए आपको किसी आध्यात्मिक चिकित्सक का संग- साथ चाहिए। उसकी सहायता से जीवन में नए रंग भरे जा सकते हैं। ऐसा होने की अनुभूति तो अनेकों की है, पर हम यहाँ केवल एक का उल्लेख करना चाहेंगे। जिसकी वजह से एक भटकता हुआ आवारा किशोर महान् क्रान्तिकारी इतिहास पुरुष बन गया। हाँ यह सच्चाई पं. रामप्रसाद बिस्मिल के जीवन की है। ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’- का प्रेरक स्वर देने वाले बिस्मिल किशोर वय में कुसंग एवं कुटेव के कुचक्र में फंस गए थे। गलत लोगों के गलत साथ ने उनमें अनेकों गलत आदतें डाल दी। स्थिति कुछ ऐसी बिगड़ी कि जैसा उनका व्यक्तित्व ही मुरझा गया।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति
अब यदि क्रमिक रूप में ५- ५ या १०- १० वर्षों के अन्तराल का लेखा- जोखा करें तो हमें विस्मयजनक एवं आश्चर्यचकित करने वाले नए- नए मोड़ अपने जीवन में देखने को मिलेंगे। यह अचरज हमें कितना ही क्यों न चौंकाए, पर यह हमारे जीवन की अनुभूत सच्चाई है। थोड़ा बारीकी से देखें तो इन पंक्तियों के पाठक अनुभव करेंगे कि उनके जीवन में पाँच या दस सालों के अन्तराल में कुछ ऐसा होता गया, जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। मन की कल्पनाएँ बदली, अरमान, आकांक्षाएँ बदली, चाहत एवं वृत्तियों में परिवर्तन हुए, साथ ही परिस्थितियों में नए- नए घटनाक्रमों का उदय हुआ। कई पराए अपने हुए और कई अपने परायापन जताकर विरोधी हो गए। आॢथक -- सामाजिक पहलुओं में भी नए रंग उभरे।
यह सब संयोग की वजह से नहीं, संस्कारों की वजह से हुआ। नए संस्कारों के जागरण एवं नए कर्म बीजों के अंकुरण के कारण हमारे जीवन के नए- नए शृंगार होते गए। यह अलग बात है कि इन परिवर्तनों में कई परिवर्तन हमारे लिए दुखद साबित हुए तो कई ने हमें सुखद अनुभूतियाँ दी। भरोसा करें, यहाँ जो कहा जा रहा है वह आध्यात्मिक ज्ञान का सच है। कोई भी सुपात्र सत्पात्र इसे अनुभव कर सकता है। यदि आपको इस पर भरोसा हो रहा है तो इस सच्चाई पर भी यकीन करें कि संस्कारों की तह तक पहुँच कर, इनका उत्खनन करके दुःखद संस्कारों से छुटकारा पाया जा सकता है। और सुखद संस्कारों को प्रबल बनाया जा सकता है। यानि कि आध्यात्मिक प्रयोगों की सहायता से बुरी मनःस्थिति एवं परिस्थिति से छुटकारा पाया जा सकता है।
विश्वास करें यह एक प्रायोगिक सच है। अनेकों ने अनेक तरह से इसे अपने जीवन में खरा पाया है। बस इसके लिए आपको किसी आध्यात्मिक चिकित्सक का संग- साथ चाहिए। उसकी सहायता से जीवन में नए रंग भरे जा सकते हैं। ऐसा होने की अनुभूति तो अनेकों की है, पर हम यहाँ केवल एक का उल्लेख करना चाहेंगे। जिसकी वजह से एक भटकता हुआ आवारा किशोर महान् क्रान्तिकारी इतिहास पुरुष बन गया। हाँ यह सच्चाई पं. रामप्रसाद बिस्मिल के जीवन की है। ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’- का प्रेरक स्वर देने वाले बिस्मिल किशोर वय में कुसंग एवं कुटेव के कुचक्र में फंस गए थे। गलत लोगों के गलत साथ ने उनमें अनेकों गलत आदतें डाल दी। स्थिति कुछ ऐसी बिगड़ी कि जैसा उनका व्यक्तित्व ही मुरझा गया।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति
👉 The Absolute Law Of Karma (Part 29)
THE RELATIVITY OF VIRTUES AND SINS
What should be our course of action in this world to eliminate evil? The Sun sets an example worth emulating. Its light dispels the darkness. Its heat forms the clouds; clouds bring down rain and cool the heat. When we take food, hunger goes by itself and when we follow laws of health, weakness is removed without much effort. In order to remove ignorance, try to acquire knowledge. For making the world free of evil, we should work for proliferation of virtues. The proper way for eradication of disease is to educate the masses about the significance of laws of hygiene and health. The sick do need the medicines, but hospitals cannot cure the entire society. Law enforcement machinery works like a hospital for the wicked- the morally sick. It takes care of only contingencies. Law cannot remove the root causes of societal ills.
It is not possible to eradicate evil by violence. Violent opposition would only incite a stronger counter reaction. A surgeon does not act like a butcher. He makes a precise incision. Instead of direct confrontation, blabbing, showing resentment, expressing helplessness, follow the positive path of forgiveness, reformation and love. According to a philosopher, “A word of love creates much greater impact than a blow on the head”. Everyone has more or less goodness in him. Make an effort to identify your own virtues and make them more effective in life. Also find out the virtues in the other person and try to encourage him to more and more cultivate these virtues. Do not fight your battle in the darkness of ignorance. Make your battlefield illuminated. Do not be disheartened by the spread of immorality. Counter it by promoting morality.
The only way to remove evil from this world is to encourage goodness. Remove the air from the bottle by filling it with water. Do not associate with evil. Why should you like to collect the garbage (evil)? Let others do this dirty job. Your work is to disinfect the rot. Why should you do skinning of dead animals (finding faults of the evildoers)? Assume the more dignified role of a teacher. Remember! In this world quite a few persons have a faultfinding attitude. Perhaps there are more persons inclined to punish the guilty than are necessary. When a child teases another one, quite a few of his companions slap him on the cheek. But how many in this world are prepared to give free food and clothes to a needy child? Let the evildoers suffer the consequences of their misdeeds.
face of all provocations.
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 50
What should be our course of action in this world to eliminate evil? The Sun sets an example worth emulating. Its light dispels the darkness. Its heat forms the clouds; clouds bring down rain and cool the heat. When we take food, hunger goes by itself and when we follow laws of health, weakness is removed without much effort. In order to remove ignorance, try to acquire knowledge. For making the world free of evil, we should work for proliferation of virtues. The proper way for eradication of disease is to educate the masses about the significance of laws of hygiene and health. The sick do need the medicines, but hospitals cannot cure the entire society. Law enforcement machinery works like a hospital for the wicked- the morally sick. It takes care of only contingencies. Law cannot remove the root causes of societal ills.
It is not possible to eradicate evil by violence. Violent opposition would only incite a stronger counter reaction. A surgeon does not act like a butcher. He makes a precise incision. Instead of direct confrontation, blabbing, showing resentment, expressing helplessness, follow the positive path of forgiveness, reformation and love. According to a philosopher, “A word of love creates much greater impact than a blow on the head”. Everyone has more or less goodness in him. Make an effort to identify your own virtues and make them more effective in life. Also find out the virtues in the other person and try to encourage him to more and more cultivate these virtues. Do not fight your battle in the darkness of ignorance. Make your battlefield illuminated. Do not be disheartened by the spread of immorality. Counter it by promoting morality.
The only way to remove evil from this world is to encourage goodness. Remove the air from the bottle by filling it with water. Do not associate with evil. Why should you like to collect the garbage (evil)? Let others do this dirty job. Your work is to disinfect the rot. Why should you do skinning of dead animals (finding faults of the evildoers)? Assume the more dignified role of a teacher. Remember! In this world quite a few persons have a faultfinding attitude. Perhaps there are more persons inclined to punish the guilty than are necessary. When a child teases another one, quite a few of his companions slap him on the cheek. But how many in this world are prepared to give free food and clothes to a needy child? Let the evildoers suffer the consequences of their misdeeds.
face of all provocations.
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 50
👉 साधुओं का कर्तव्य Sadhuon Ka Kartvya
अपनी क्षुधा निवारण करने के उपरान्त बची हुई रसोई दूसरों को बाँट देनी चाहिये। इस प्रकार पहले अपने को ज्ञानवान बनाकर तब उस ज्ञान का वितरण दूसरे लोगों में करना चाहिए। तैरने वालों को चाहिए कि यदि कोई पानी में डूब रहा हो तो उसे डूबने न दें। उत्तम गुणों को अपने अन्दर धारण करने के उपरान्त उन्हें दूसरे लोगों में फैलाना कर्तव्य है। शरीर का सर्वश्रेष्ठ उपयोग परोपकार है वह देह धन्य है जो पराये काम आती है और जिससे किसी का अनिष्ट नहीं होता।
दूसरों के दुख में दुखी होना, दूसरों के सुख में प्रसन्न होना पराये को अपना लेना, मधुर वचन बोलना, दुखी जनों को ढूँढ़ ढूँढ़ कर उनकी सेवा सहायता के लिये प्रस्तुत रहना यह साधुजनों का काम है। आलस्य को त्यागकर कर्तव्य परायण होना, थोड़ा और विवेकयुक्त बोलना क्रोध और मन्सर को त्यागकर विनति भाव से रहना यह सत्पुरुषों का स्वभाव है। वे साधु धन्य हैं जो अपने सद्व्यवहार से दुर्जनों को सुपथ पर आरुढ़ करते हैं स्वयं कष्ट सहकर दूसरों का उपकार करते हैं आपत्ति काल में धैर्य धारण करते हैं और आलोचकों को देखकर विचलित नहीं होते। उन्हीं का भजन सच्चा है और परमात्मा को तृप्त करने वाला है।
जो बोया जाता है वही उगता है इसलिए कर्कश वचन और कठोर व्यवहार के विष बीजों को नहीं बोना चाहिए। इस दुनिया में उत्तम गुण वाले सज्जनों की बड़ी आवश्यकता है ऐसे पुरुषों को मनुष्य जाति सदैव खोजती रहती है। श्रेष्ठ जनों को समूह बनाना चाहिये, संगठन करना चाहिए। अकेला आदमी क्या कर सकता है। इसलिए विवेकवान धर्मप्रचारक को चाहिये कि शिक्षित साथियों की सहायता से कल्याण के कार्य को बढ़ावे।
अखण्ड ज्योति अप्रैल 1943 पृष्ठ 8
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/April/v1.8
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