शनिवार, 29 सितंबर 2018

👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 16)

👉 लेखक का निजी अनुभव  
 
🔷 साधारण स्तर के नर वानर कोल्हू के बैल की तरह पिसते और पीसते रहकर जिन्दगी के दिन गुजार देते हैं। पर जब भीतर से उत्कृष्टता का पक्षधर उल्लास उभरता है तो अन्तराल में बीज रूप में विद्यमान दैवी क्षमताएँ, जागृत, सक्रिय होकर अपनी महत्ता का ऐसा परिचय देने लगती हैं जिसे अध्यात्म का वह चमत्कार कहा जा सकता है, जो भौतिक शक्तियों की तुलना में कहीं अधिक समर्थ है।
  
🔶 उपासना प्रकरण में श्रद्धा-विश्वास की शक्ति ही प्रधान है। वही उस स्तर की बन्दूक है जिस पर किसी भी फैक्टरी में विनिर्मित कारतूस चलाए जा सकते हैं। उस दृष्टि से मात्र गायत्री मंत्र ही नहीं, साधक की आस्था के अनुरूप अन्यान्य मंत्र एवं उपासना विधान भी अपनी सामर्थ्य का वैसा ही परिचय दे सकते हैं। श्रद्धा और विश्वास के अभाव में उपेक्षापूर्वक अस्त-व्यस्त मन से कोई भी उपासना क्रम अपनाया जाए, असफलता ही हाथ लगेगी।
  
🔷 परीक्षण के लिए प्रयोगशाला की तथा उसके लिए आवश्यक यन्त्र उपकरणों की जरूरत पड़ती है। इस सन्दर्भ में अच्छाई एक ही है कि मानव शरीर में विद्यमान चेतना ही उन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर देती है, जो अत्यन्त सशक्त प्रयोग परीक्षणों के लिए भौतिक विज्ञानियों को मूल्यवान यन्त्र उपकरणों से सुसज्जित प्रयोगशाला को जुटाने पर सम्भव होते हैं।
  
🔶 इन दिनों विज्ञान के प्रतिपादन पत्थर की लकीर बनकर जन-जन की मान्यताओं को अपने प्रभाव क्षेत्र में समेट चुके हैं। आज की मान्यताएँ और गतिविधियाँ उसी से आच्छादित हैं और तदनुरूप प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न कर रही हैं। अध्यात्म का स्वरूप विडम्बना स्तर का बनकर रह गया है, फलस्वरूप उसका न किसी साधनारत पर प्रभाव पड़ता है और न वातावरण को उच्चस्तरीय बनाने में कोई सहायता ही मिल पाती है। इस दुर्गति के दिनों से यही उपयुक्त लगा है कि यदि विज्ञान के प्रत्यक्षवाद को, यथार्थता को जिस प्रकार अनुभव कर लिया गया है, उसी प्रकार अध्यात्म को भी यदि सशक्त एवं प्रत्यक्ष फल देने वाला माना जा सकने का सुयोग बन सके तो समझना चाहिए कि सोना और सुगन्ध के मिल जाने जैसा सुयोग बन गया। विज्ञान शरीर और अध्यात्म प्राणचेतना मिलकर काम कर सकें तो समझना चाहिए कि सब कुछ जीवन्त हो गया। एक प्राणवान दुनियाँ समग्र शक्ति के साथ नए सिरे से नए कलेवर में उद्भूत हो गई। न विज्ञान झगड़ालू रहा और अध्यात्म के साथ जो कुरूपता जुड़ गई है, उसके लिए कोई गुंजाइश ही शेष रह गई है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 19

👉 चित्रों का भला और बुरा प्रभाव (भाग 3)

🔷 चित्र दर्शन की इस वैज्ञानिक प्रक्रिया को समझकर ही हमारे पूर्वजों ने नित्य मन्दिरों में भगवान की मूर्ति के दर्शन, साधु महात्माओं के दर्शनों का विधान बनाया होगा। एक भारतीय नागरिक का धर्म कर्तव्य है कि वह प्रातः सायं भगवान् तथा गुरुजनों के दर्शन करें उन्हें प्रणाम करें। सोने पूर्व, उठने पर शुभ दर्शन एक आवश्यक धर्म कर्तव्य माना जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे धार्मिक चित्र बहुत समय से हमें उच्च आदर्शों, सामाजिक मर्यादाओं त्याग, वैराग्य, संयम, बल, पौरुष, कर्तव्य आदि की उत्कृष्ट प्रेरणा देकर आत्म-विकास की ओर अग्रसर करते रहे हैं।

🔶 खेद है आज कला के नाम पर, चलचित्रों के माध्यम से, धन के लोभ के लिये समाज में बहुत ही भद्दे अश्लील चित्रों की बाढ़ सी आ गई है। यत्र-तत्र बाजार में इस तरह के चित्र अधिक मिलते हैं जिनमें दूषित हाव-भाव, भड़कीले पोशाक शारीरिक अंगों का फूहड़ प्रदर्शन मुख्य होते हैं। सिनेमा में तो अभिनेता और अभिनेत्रियों के अर्धनग्न शरीर उनकी अश्लील मुद्रायें भड़काने वाले तथा कथित ‘ऐक्टिंग‘ दर्शक पर कैसा प्रभाव डालता होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। समाज में बढ़ती हुई अश्लीलता, फूहड़पन, फैशनपरस्ती का एक कारण सिनेमा में दिखाये जाने वाले भद्दे चित्र भी हैं।

🔷 बाजार में खुले आम इस तरह की पत्र-पत्रिकायें बिकती देखी जा सकती हैं जिनमें बहुत ही गन्दे उत्तेजित चित्र होते हैं। भोले-भाले, अनुभवहीन यौवन में पैर रखने वाले युवक इनसे बहुत जल्दी ही प्रभावित हो जाते हैं। पैसा खर्च करके खरीदते हैं लेकिन ये गन्दे चित्र उनमें कामोत्तेजना भड़काने, कई दुर्गुण पैदा करने का बहुत बड़ा काम करते हैं। एक बुराई से अनेकों बुराइयां पैदा होती हैं और पतन का पथ प्रशस्त बन जाता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए पृष्ठ 138

👉 आज का सद्चिंतन 29 September 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 29 September 2018


गुरुवार, 27 सितंबर 2018

👉 आज का सद्चिंतन 27 September 2018


👉 उपहास व आलोचना

🔶 एक दिन स्कूल टीचर ने बोर्ड पर लिखा :
9×1=7
9×2=18
9×3=27
9×4=36
9×5=45
9×6=54
9×7=63
9×8=72
9×9=81
9×10=90

🔷 जब उन्होने पूरा लिख लिया, उन्होने विद्यार्थियों की तरफ देखा और पाया कि सभी विद्यार्थी उन पर हँस रहे हैं, क्योंकि प्रथम गुणांक गलत था!

🔶 फिर टीचर ने कहा कि,

🔷 "मैने पहला वाला जान बूझ कर गलत लिखा, क्योंकि मै चाहती थी कि आप आज बहुत महत्वूर्ण बात सीखें।

🔶 मैं चाहती थी कि आप जानें कि संसार में आप के साथ कैसा व्यवहार होगा आपने देखा, कि मैने नौ बार सही लिखा, पर किसी ने मुझे इसके लिये बधाई नही दी; अपितु मेरी एक गलती पर आप सभी हँसे, और मेरा उपहास किया. यही सीख है...:

🔷 यह संसार आपकी हजार बार अच्छाई की तारीफ नही करेगा, परन्तु आपके द्वरा की गयी गलती की आलोचना (उपहास) अवश्य करेगा...

🔶 परन्तु इससे आपको हताश व निराश होने की आवश्यकता नही है, सदैव उपहास व आलोचना से ऊपर उठें मजबूत बनें।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 September 2018


👉 दुष्प्रवृत्ति निरोध आन्दोलन (अन्तिम भाग)

🔶 इस समस्या का हल करने के लिए यह आवश्यक प्रतीत हुआ है कि विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन के साथ-साथ एक छोटा सहायक आन्दोलन और भी चालू रखा जाय। जिससे जो लोग आदर्श विवाहों की पद्धति अपनाने के लिए तैयार न हो सकें उन्हें उस सहायक आन्दोलन के किसी अंश के साथ सहमत करने का प्रयत्न किया जाय। किसी न किसी बात पर यदि व्यक्ति को सहमत कर लिया जाय तो विदाई के समय मधुरता बनी रहती है और आगे के प्रेम सम्बन्धों में अन्तर नहीं आता। आज की थोड़ी सहमति आगे चलकर बड़ी सहमतियों के रूप में परिणत हो सकती है। अतएव एक सरल आन्दोलन भी साथ-साथ चलते रहने की आवश्यकता अनुभव की गई है।

🔷 इस सहायक आन्दोलन का नाम है—"दुष्प्रवृत्ति निरोध आन्दोलन" यों इसकी उपयोगिता, आवश्यकता एवं महत्ता भी किसी प्रकार कम नहीं। समाज निर्माण एवं सुधार के लिए दूसरा सहायक आन्दोलन के अंतर्गत आने वाले काम भी कम महत्व के नहीं हैं। चरित्र निर्माण, व्यक्ति निर्माण एवं समाज निर्माण में इनका भी भारी योगदान रहेगा। पर सहायक आन्दोलन उसे इसलिए कहा गया है कि उसमें बताये हुये दस कार्यों में से किसी न किसी के लिये कोई भी व्यक्ति आसानी से सहमत किया जा सकता है और बिना अधिक कठिनाई के आन्दोलन में सम्मिलित होने वाला, कोई एक प्रतिज्ञा लेने वाला बन सकता है।
दुष्प्रवृत्ति निरोध आन्दोलन के अंतर्गत दस कार्यक्रम रखे गये हैं—

माँसाहार— माँस, मछली, अण्डे एवं काटे हुए पशुओं के चमड़े का उपयोग।
नशेबाजी— तम्बाकू, भाँग, गाँजा, अफीम, शराब आदि नशों का सेवन।
पशुबलि— देवी देवताओं के नाम पर निरीह पशु-पक्षियों की हत्या।
मृत्यु भोज— मृतक के नाम पर धूमधाम भरी दावतों का अपव्यय।
ऊँच-नीच— गुणों की अपेक्षा पद, वंश, जाति के कारण किसी को ऊँचा या नीच मानना।
नारी तिरस्कार— पुरुष की तुलना में नारी का गौरव, महत्व, सम्मान या अधिकार कम मानना।
बेईमानी— चोरी, छल, जुआ, समर्थ होते हुए भी अपने लिये भिक्षा याचना अनीति एवं बिना परिश्रम की कमाई।
अपव्यय— फैशन, जेवर, आडम्बर, विलासिता एवं व्यसनों की फिजूलखर्ची।
अन्ध विश्वास— भूत-पलीत, टोना, टोटके शकुन-अपशकुन जैसी मूढ़ मान्यतायें।
असभ्यता— गाली-गलौज, गन्दगी, आलस-अशिष्टता, कृतघ्नता, आवेश जैसे दुर्गुण।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1965 पृष्ठ 47

http://literature.awgp.org/hindi/akhandjyoti/1965/July/v1.47

👉 Living The Simple Life (Last Part)

🔶 After a wonderful sojourn in the wilderness, I remember walking along the streets of a city which had been my home for a while. It was 1 p.m. Hundreds of neatly dressed human beings with pale or painted faces hurried in rather orderly lines to and from their places of employment. I, in my faded shirt and well-worn slacks, walked among them. The rubber soles of my soft canvas shoes moved noiselessly along beside the clatter of trim, tight shoes with stilt-like heels. In the poorer section I was tolerated. In the wealthier section some glances seemed a bit startled and some were disdainful.

🔷 On both sides of us as we walked were displayed the things we can buy if we are willing to stay in the orderly lines day after day, year after year. Some of the things are more or less useful, many are utter trash. Some have a claim to beauty, many are garishly ugly. Thousands of things are displayed - and yet, my friends, the most valuable are missing.
Freedom is not displayed, nor health, nor happiness, nor peace of mind. To obtain these things, my friends, you too may need to escape from the orderly lines and risk being looked upon disdainfully.

🔶 To the world I may seem very poor, walking penniless and wearing or carrying in my pockets my only material possessions, but I am really very rich in blessings which no amount of money could buy - health and happiness and inner peace.

The simplified life is a sanctified life,
Much more calm, much less strife.
Oh, what wondrous truths are unveiled -
Projects succeed which had previously failed.
Oh, how beautiful life can be, Beautiful simplicity.

***END***

👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 15)

👉 लेखक का निजी अनुभव
 
🔶 मन्त्र विज्ञान के सम्बन्ध में जितना कुछ पढ़ा, सुना और गुना था, उसके आधार पर प्रारम्भिक दिनों में ही यह विश्वास जम गया था कि आदि शक्ति के नाम से जानी जाने वाली गायत्री की श्रेष्ठता-वरिष्ठता असंदिग्ध है। संचित संस्कार और संबद्ध वातावरण भी इसी की पुष्टि करते रहे। उपासना क्रम सरल भी लगा और उत्साहवर्धक भी। गाड़ी चली सो अपनी पटरी पर आगे बढ़ती और लुढ़कती ही चली गई। तब से अब तक न उसमें विराम लिया और न कोई अवरोध ही आड़े आया। अस्सी वर्ष की आयु होने तक वह मान्यता, भावना-श्रद्धा आगे ही आगे बढ़ती चली आई है।
  
🔷 मानवी गरिमा के अनुरूप जीवन यापन कैसे किया जा सकता है? उसके साथ जुड़ी हुई मर्यादाओं का परिपूर्ण निर्वाह कैसे हो सकता है और वर्जनाओं से कैसे बचा जा सकता है? यह समझ अन्तराल की गहराई से निरन्तर उठती रही और उसका परिपालन भी स्वभाव का अंग बन जाने पर बिना किसी कठिनाई के होता रहा। गुण, कर्म, स्वभाव, चिन्तन, चरित्र, व्यवहार में जो तथ्य गहराई तक उतरकर परिपक्व हो जाते हैं, वे छोटे-मोटे आघातों से डगमगाते नहीं। देखा गया कि सघन संकल्प के साथ जुड़ी हुई व्रतशीलता अनायास ही निभती रहती है। सो सचमुच बिना किसी दाग-धब्बे के निभ भी गई।
  
🔶 ईश्वर के प्रति सुनिश्चित आत्मीयता की अनुभूति उपासना, जीवन में शालीनता की अविच्छिन्नता अर्थात् ‘‘साधना’’ तथा करुणा और उदारता से ओतप्रोत अन्तराल में निरन्तर निर्झर की तरह उद्भूत होती रहने वाली ‘‘आराधना’’, यही है वह त्रिवेणी जो मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाती है। उस संगम तक पहुँचने पर कल्मष कषायों, दोष-दुर्गुणों के प्रवेश कर सकने जितनी गुंजायश भी शेष नहीं रहती। त्रिपदा कही जाने वाली गायत्री, प्रज्ञा, मेधा, और श्रद्धा बनकर इस स्तर तक आत्मसात हो गई कि लगने लगा कि सचमुच ही वैसा मनुष्य जीवन उपलब्ध हुआ है। जिसे सुर दुर्लभ कहा और देवत्व के अवतरण जैसे शब्दों से जिसका परिचय दिया जाता रहा है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 18

👉 चित्रों का भला और बुरा प्रभाव (भाग 2)

🔶 शान्त गम्भीर मुद्रा में महान् तत्व के चिंतन में लीन किसी महापुरुष का चित्र देखकर उससे मनुष्य को गम्भीरता शान्ति की प्रेरणा मिलती है। किसी वीर योद्धा का चित्र देख कर हृदय में शौर्य और साहस के भाव उत्पन्न होते हैं। किसी जनसेवी, परमार्थ परायण शहीद की प्रतिमा देख कर समाज के लिए मर मिटने की भावना जागृत होती है। किसी देवी-देवता या अवतार की प्रतिमा देखकर, किसी मन्दिर, मस्जिद, गिर्जाघर में जाने पर, परमात्मा और उसके दिव्य गुणों का स्मरण होता है। ठीक इसी तरह भद्दे अश्लील कहे जाने वाले, अर्द्धनग्न, असामाजिक, हाव भाव मुद्रा तथा शारीरिक अंगों के भड़कीले प्रदर्शन वाले चित्र मनुष्य में कई नैतिक बुराइयां पैदा करते हैं। उसकी पाशविक वृत्तियों को जगाकर बुराइयों की ओर प्रेरित करते हैं। कोई भी गन्दा या अश्लील चित्र-दृश्य देखने पर मनुष्य के मन में भी गन्दगी, अश्लीलता भड़क उठती है।

🔷 किसी भी चित्र को बार-बार देखने पर उसमें निहित विचार, आदर्शों की छाप मनुष्य में गहरी होती जाती है। ऐसी स्थिति में कोई दृश्य विशेष उसके सामने न हो तब भी उसकी कल्पना मानस पटल पर पूरा चित्र अंकित कर लेती है, पूर्व स्मृति के आधार पर और वैसी ही प्रेरणा मनुष्य को देती है, जब भी मनुष्य का मन विश्राम में होता है तो पूर्व में देखे गए चित्रों, दृश्यों की कल्पना जागृत होकर उस समय उन्हें प्रत्यक्ष देखने जैसी अनुभूति होती है। इसलिए चित्रों को देख लेने से ही बात समाप्त हो जाती हो ऐसा नहीं है। वे धीरे-धीरे मानव प्रकृति के अंग बन जाते हैं और उसे समय-समय पर वैसी ही प्रेरणा देते रहते हैं। अन्तर में छिपी पड़ी इन प्रेरणाओं के अनुसार बहुधा मनुष्य काम भी करने लगता है।

🔶 इसमें कोई सन्देह नहीं कि हम जो कुछ भी देखते हैं उसका हमारी प्रकृति, व्यवहार-आचरण आदि पर भारी प्रभाव पड़ता है। अच्छे चित्र देखने पर जीवन में अच्छाइयां पैदा होती हैं। बुरे चित्र देखने पर बुराइयां। आवश्यकता इस बात की है कि बुरे चित्र, बुरे दृश्य देखने के बजाय उधर से आंख मींच लेना, बुराइयों को न देखना ही श्रेयस्कर होता है। गांधीजी के आंख मीचने वाले बन्दर से हमें यही प्रेरणा मिलती है।

🔷 अच्छे या बुरे चित्रों का चुनाव करना हमारी अपनी इच्छा पर निर्भर करता है। यदि हमें अपने जीवन में अच्छे आदर्श, उच्च प्रेरणा, दिव्य गुणों को प्रतिष्ठापित करना हो तो इस सम्बन्ध में अच्छे चित्रों का चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण होगा। महापुरुषों के, शहीदों के, तपस्वी त्यागी सन्त महात्माओं के चित्र ढूंढ़ने पर सफलता से मिल जाते हैं। इसी तरह की कोई उत्कृष्ट ऐतिहासिक घटनाओं, त्याग बलिदान का दृश्य जिनमें अंकित हों ऐसे चित्र भी मिल जाते हैं। प्रेरणा-प्रद आदर्श वाक्यों का चुनाव भी अच्छे चित्रों का काम दे सकता है। इस तरह हम उत्कृष्ट चित्रों का संग्रह करके अपनी जीवन शिक्षा की महत्वपूर्ण सामग्री जुटा सकते हैं इनसे हमें उठते-बैठते सोते जागते उत्कृष्ट प्रेरणा, महान शिक्षा मिल सकती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए पृष्ठ 137

बुधवार, 26 सितंबर 2018

👉 आज का सद्चिंतन 26 September 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 September 2018

👉 भगवान की कृपा या अकृपा

🔶 एक व्यक्ति नित्य हनुमान जी की मूर्ति के आगे दिया जलाने जाया करता था। एक दिन मैंने उससे इसका कारण पूछा तो उसने कहा- ”मैंने हनुमान जी की मनौती मानी थी कि यदि मुकदमा जीत जाऊँ तो रोज उनके आगे दिया जलाया करूंगा। मैं जीत गया और तभी से यह दिया जलाने का कम चल रहा है।

🔷 मेरे पूछने पर मुकदमे का विवरण बताते हुए उसने कहा- एक गरीब आदमी की जमीन मैंने दबा रखी थी, उसने अपनी जमीन वापिस छुड़ाने के लिए अदालत में अर्जी दी, पर वह कानून जानता न था और मुकदमें का खर्च भी न जुटा पाया। मैंने अच्छे वकील किए खर्च किया और हनुमान जी मनौती मनाई। जीत मेरी हुई। हनुमान जी की इस कृपा के लिए मुझे दीपक जलाना ही चाहिए था, सो जलाता भी हूँ।

🔶 मैंने उससे कहा-भोले आदमी, यह तो हनुमान जी की कृपा नहीं अकृपा हुई। अनुचित कार्यों में सफलता मिलने से तो मनुष्य पाप और पतन के मार्ग पर अधिक तेजी से बढ़ता है, क्या तुझे इतना भी मालूम नहीं। मैंने उस व्यक्ति को एक घटना सुनाई-’एक व्यक्ति वेश्यागमन के लिए गया। सीढ़ी पर चढ़ते समय उसका पैर फिसला और हाथ की हड्डी टूट गई। अस्पताल में से उसने सन्देश भेजा कि मेरी हड्डी टूटी यह भगवान की बड़ी कृपा है। वेश्यागमन के पाप से बच गया।

🔷 मनुष्य सोचता है कि जो कुछ वह चाहे उसकी पूर्ति हो जाना ही भगवान ही कृपा है। यह भूल है। यदि उचित और न्याययुक्त सफलता मिले तो ही उसे भगवान की कृपा कहना चाहिए। पाप की सफलता तो प्रत्यक्ष अकृपा है। जिससे अपना पतन और नाश समीप आता है उसे अकृपा नहीं तो और क्या कहें?

✍🏻 बिनोवा
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1964 पृष्ठ 1

मंगलवार, 25 सितंबर 2018

👉 हरि कीर्तन

🔶 ‘कीर्तन’ शब्द को यदि उलटा कर दिया जाय तो वह शब्द ‘नर्तकी’ बन जाता है। इस जमाने में हर जगह उलटा चलने ही अधिक देखा जाता है। कीर्तन का वास्तविक तात्पर्य न समझ कर लोग उसका उलटा अर्थ करते हैं और नर्तकी की तरह नाच कूद कर अपनी उचंग पूरी करते हैं। ईश्वर कोई मनचला नवाब नहीं है, जिसे नाच रंग में मस्त रहने की सनक हो। वह अपने प्रिय पुत्रों को नर्तक नहीं, धर्म प्रवर्तक बनाना चाहता है।

🔷 कीर्तन का तात्पर्य उन कर्मों के करने से है, जिससे प्रभु की कारीगरी की कीर्ति फलती है, प्रशंसा होती है। हम किसी सुन्दर खिलौने को देखकर उसकी प्रशंसा करते हैं, वास्तव में वह प्रशंसा जड़ खिलौने की नहीं वरन् उस कुम्हार की है जिसने उसे बनाया है। विद्वान्, धर्मात्मा, तपस्वी, उद्धारक, धर्म प्रवर्तक, अक्सर अवतार कहे जाते हैं, उनमें ईश्वरीय अंश बताया जाता है।

🔴 वैसे तो हर मनुष्य में ईश्वरीय अंश है और आत्मा-परमात्मा का अवतार है। पर किसी विशेष व्यक्ति को अवतारी पुरुष करने का तात्पर्य उसके सद्गुणों के निमित्त कर्ता की प्रशंसा करना है। किसी भले आदमी को देखकर उसे अनायास ही ‘ईश्वर का प्यारा’, ‘ईश्वर की पुण्य कृति’, ‘ईश्वर का कृपा भाजन’ आदि शब्द कहते हैं। इन शब्दों का मर्म अर्थ ईश्वर की प्रशंसा करना, उसकी कीर्ति बढ़ाना है।

🔶 हमें अपना आचरण, विचार, कर्म, व्यवहार एवं स्वभाव इस प्रकार का बनाना चाहिए, जिससे सर्वत्र हमारी प्रशंसा हो। हमारी भलमनसाहत, नेकी, ईमानदारी, सेवा वृत्ति, नम्रता, परमार्थ प्रियता, त्याग भावना की सुगन्ध चारों ओर उड़ती फिरे। वह कीर्ति असल में हमारे जड़ शरीर की नहीं वरन् उसके कर्ता आत्मा की, परमात्मा की है। यही सच्चा कीर्तन है। इस उलटे जमाने में ‘नर्तकी’ बनने वाले बहुत हैं पर ‘कीर्तन’ करने वाले विरले ही दिखाई पड़ते हैं।

✍🏻 अखण्ड ज्योति फरवरी 1943 पृष्ठ 15
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/February/v1.15

शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

👉 दूसरे की गलती से सीखें

🔷 किसी जंगल में एक सिंह, एक गधा और एक लोमड़ी रहते थे। तीनों में गहरी मित्रता थी। तीनों मिलकर जंगल में घूमते और शिकार करते। एक दिन वे तीनों शिकार पर निकले। उन तीनों में पहले से ही यह समझौता था कि मारे गए शिकार के तीन भाग किए जाएंगे।

🔶 अचानक उन्होंने एक बारहसिंगा देखा। वह खतरे से बेखबर घास चर रहा था। तीनों ने मिलकर उसकी पीछा किया और अंत में सिंह ने उसे मार गिराया।

🔷 तब सिंह ने गधे से कहा कि वह मरे हुए शिकार के तीन भाग करें। गधे ने शिकार के तीन भाग किए और सिंह से अपना एक भाग ले लेने के लिए कहा। यह देखकर सिंह क्रोधित हो गया। उसने गधे पर हमला कर दिया और अपने नुकीले दातों और पंजों से गधे को चीर-फाड़ दिया।

🔶 उसके बाद उसने लोमड़ी से कहा कि वह अपना हिस्सा ले ले। लोमड़ी बहुत चालाक और बुद्धिमान थी। उसने बारहसिंगे का तीन चौथाई से अधिक भाग सिंह की सेवा में अर्पित कर दिया और अपने लिए केवल एक चौथाई से भी कम भाग रखा। यह देखकर सिंह बहुत प्रसन्न हुआ और बोला- ”तुमने मेरे भोजन की सही मात्रा निकाली है। सच बताओ, कहां से यह चतुराई सीखी?“

🔷 चालाक लोमड़ी बोली- ”महाराज! मरे हुए गधे को देखकर मैं सब समझ गई। उसकी मूर्खता से ही मैंने सीखा है।“

शिक्षा – दूसरे की गलती से सीखें, दूसरों की गलतियों से सीख हासिल करनी चाहिए।

👉 आज का सद्चिंतन 21 September 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 21 September 2018


👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 14)

👉 लेखक का निजी अनुभव
 
🔷 अध्ययन, अनुभव, प्रयोग और विशेषज्ञों की पूछताछ से पता चला है कि आत्मिकी का प्रथम पक्ष है— साधक का परिष्कृत व्यक्तित्व और दूसरा पक्ष है— साधना-उपासना स्तर का उपक्रम। जीवन साधना को स्वास्थ्य और कर्मकाण्डपरक उपचारों को श्रृंगार स्तर का कहा जा सकता है। पर इन दिनों किसी भटकाव ने लोगों को ऐसा कुछ बता दिया है कि जीवन साधना की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। मात्र पूजापरक कर्मकाण्डों के ही बलबूते उस सारी महत्ता को हस्तगत किया जा सकता है जिसको कि शास्त्रकारों ने अपने अनुभव में और आप्तजनों ने अपने जीवनक्रम में समाविष्ठ करके वस्तुस्थिति की यथार्थता का पूरी तरह रहस्योद्घाटन किया है।
  
🔶 समस्त विश्व के, विशेषतया मानव समुदाय के भाग्य और भविष्य का भला-बुरा निर्धारण करने वाले इस प्रसंग पर अत्यन्त गहराई तक शोध करने के लिए आकुल-व्याकुल उत्कण्ठा से द्रवित होकर किसी दिव्य मार्गदर्शक ने संकेत किया कि— ‘‘इस तथ्य को प्रारम्भ से ही समझ लेना चाहिए।’’ अध्यात्म को अंकुरित, पल्लवित एवं पुष्पित होने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि इस प्रयोजन में प्रवेश करने वाले का व्यक्तित्व उत्कृष्टता से सुसम्पन्न हो। इसके पश्चात ही उपासनापरक कर्मकाण्डों की कुछ उपयोगी प्रतिक्रिया उपलब्ध होती है। यदि मनोभूमि और जीवनचर्या गन्दगी से भरी हो तो समझना चाहिए कि मन्त्र की, पूजा उपचार की प्रक्रिया प्राय: निरर्थक ही सिद्ध होगी। समय, श्रम और साधन सामग्री निरर्थक गँवाने के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगेगा। अध्यात्म दिव्य शक्ति के आधारभूत पुंज स्त्रोत हैं। विज्ञान जो सज्जा भर का प्रदर्शन करता है, उसमें आकर्षण और प्रलोभन के द्वारा बालबुद्धि को फुसलाने के लिए खिलौने जैसी चमक-दमक के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं।
  
🔷 इस संकेत से मार्गदर्शन मिला। विश्वास जमा। फिर भी भ्रान्तियों के जाल-जंजाल से निकलने के लिए आवश्यक समझा गया कि क्यों न अपनी काया की प्रयोगशाला में तथ्य का निरीक्षण-परीक्षण करके देखा जाए? इसमें हानि ही क्या है? अपने प्रयोग यदि खरे उतरते हैं तो उससे श्रद्धा विश्वास की अभिवृद्धि ही होती है। यदि मिथ्या सिद्ध होते हैं तो हानि मात्र इतनी ही है कि जैसे असंख्य अधकचरी स्थिति में सन्देेह भरी स्थिति में रह रहे हैं, उन्हीं में एक की और वृद्धि हो जाएगी। फिर विश्वास और साहसपूर्वक अपनी मान्यता बनाने या दूसरों से साहसपूर्वक कुछ कहने की स्थिति तो समाप्त हो जाएगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 17

👉 Living The Simple Life (Part 4)

🔷 The first few years I used a blue scarf and a blue sweater during chilly weather, but I eventually discarded them as not really essential. I am now so adjustable to changes in temperature that I wear the same clothes summer and winter, indoors and out. Like the birds, I migrate north in the summer and south in the winter. If you wish to talk to people out-of-doors, you must be where the weather is pleasant or people will not be out.

🔶 When the temperature gets high and the sun gets hot there is nothing so welcome as shade. There is a special coolness about the shade of a tree, but unless it is a big tree some shifting is required to stay in the shade. Clouds provide shade as they drift across the sun. A rock provides what I call deep shade; so does a bank early in the morning or late in the afternoon. Sometimes even the shade of a bush is appreciated, or that of a haystack. Man-made things provide shade too. Buildings, of course, and even signs which disfigure the landscape do provide shade.

🔷 So do bridges, providing shelter from the rain as well. Of course, one can wear a hat or carry an umbrella. I do neither. Once when a reporter asked if by chance I had a folding umbrella in my pockets I replied, ‘‘I won’t melt. My skin is waterproof. I don’t worry about little discomforts.’’ But I’ve sometimes used a piece of cardboard for a sun shade. Water is something you think of in hot weather, but I have discovered that if I eat nothing but fruit until my day’s walk is over I do not get thirsty. Our physical needs are so simple.

To be continued...

👉 दुष्प्रवृत्ति निरोध आन्दोलन (भाग 1)

🔷 विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन आज के हिन्दू समाज की सबसे बड़ी एवं सबसे प्रमुख आवश्यकता है। उसकी पूर्ति के लिए हमें अगले दिनों बहुत कुछ करना होगा। हमारा यह प्रयत्न निश्चित रूप में सफल होगा। अगले दिनों हवा बदलेगी और आज की खर्चीली वैवाहिक कुरीतियाँ पीढ़ी वालों के लिए एक कौतूहल की बात रह जायगी। कुछ वर्षों बाद भावी सन्तान को यह खोज करनी पड़ेगी कि हमारे पूर्वज थे तो बुद्धिमान पर ऐसी मूर्खतापूर्ण रीति-रिवाज के जंजाल में फँसकर इतना कमर तोड़ अपव्यय आखिर करते क्यों थे?

🔶 वह दिन निश्चित रूप में आने हैं। समय की माँग, युग की पुकार इतनी प्रबल होती है कि उसके द्वारा बड़े-बड़े प्रवाह मोड़ दिये जाते हैं। इस परिवर्तन का लाभ अगली पीढ़ी को मिलेगा, हमें तो इसके लिए भागीरथ तप ही करना है और प्रतिरोध करते हुए गोली न हो तो कम से कम गाली तो खाते ही रहना है। अन्ध मान्यताओं की भी नशेबाजी जैसी लत होती है, वह मुश्किल से छूटती है। इसलिए काम बहुत कठिन है। पर कठिन काम भी मनुष्य ही करते हैं। हम कठिनाइयों को चीरते हुए आगे बढ़ेंगे और समय को बदल डालने की प्रतिज्ञा पूरी करके रहेंगे।

🔷 विवाहोन्माद की जड़े काफी गहरी हैं। उन्माद रोगग्रस्त व्यक्ति के गले कोई बात उतारना काफी कठिन होता है। रूढ़ियों की चुड़ैल जिनकी गर्दन पर सवार है उनके लिए समझ की बात मानना अपनाना काफी कठिन होगा। यह प्रचार करते हुए जहाँ जाया जाय वहाँ प्रथम बार में ही सफलता मिल जाय, इसकी आशा कम ही होगी। कितनी ही बार प्रचारक को निराश और तिरस्कृत होकर लौटना पड़ेगा। ऐसी दशा में मानव मनोविज्ञान के अनुसार यह हो सकता है कि तिरस्कृत करने वाले और तिरस्कार सहने वाले के बीच मनोमालिन्य का अंकुर उत्पन्न हो जाय और उसके कारण आगे मिलने-जुलने या मधुर सम्बन्ध बनाये रहने में बाधा उत्पन्न होने लगे। यदि ऐसा हुआ तो उससे अपने मिशन को नुकसान ही पहुँचेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1965 पृष्ठ 46

http://literature.awgp.org/hindi/akhandjyoti/1965/July/v1.46

👉 चित्रों का भला और बुरा प्रभाव (भाग 1)

🔷 आपने कहीं न कहीं महात्मा गांधी के साथ या अलग से उन तीन बन्दरों का चित्र अवश्य देखा होगा जिसमें एक बन्दर दोनों हाथों से अपनी आंख बन्द किए है। जिसका तात्पर्य है ‘‘बुरी बात मत देखो’’ ‘‘बुराई की तरफ से अपनी आंखें बन्द करलो’’। किसी चित्र या दृश्य को देख कर उससे संबंधित अच्छाई या बुराई का प्रभाव अवश्य पड़ता है। बुरे चित्र देखने पर बुराइयां और अच्छे दृश्य देखने पर अच्छाइयां पनपती हैं।

🔶 वस्तुतः जो कुछ भी हम देखते हैं उसका सीधा प्रभाव हमारे मन में और मस्तिष्क पर पड़ता है। किसी चित्र या दृश्य विशेष को बार बार देखने पर उसका सूक्ष्म प्रभाव हमारे अन्तर मन पर अंकित होने लगता है। और जितनी बार उसे देखा जाता है उतना ही वह स्थाई और परिपक्व बनता जाता है। हमारा अव्यक्त मन कैमरे की प्लेट के समान है जिस पर नेत्रों के लेन्स से जो छाया गुजरती है वही उस पर अंकित हो जाती है! हम अच्छा या बुरा जो कुछ भी देखते हैं। उसका सीधा प्रभाव हमारे अन्तरमन पर, सूक्ष्म चेतना पर होता है।

🔷 प्रत्येक चित्र का अस्तित्व केवल उसके आकार प्रकार तथा रंग रूप तक ही सीमित नहीं रहता वरन् उसके पीछे कुछ आदर्श होते हैं कुछ विचार, धारणायें और मान्यतायें होती हैं। ये अच्छी भी हो सकती हैं और बुरी भी किन्तु होती अवश्य हैं। वस्तुतः चित्र की अपनी एक भाषा होती है जिसके माध्यम से चित्रकार समाज में अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है। प्रत्येक चित्र में उससे हाव, भाव, भंगिमा, पोशाक, अंग प्रत्यंग, मुख, मुद्रा आदि में कुछ संकेत भरे होते हैं। चित्र या दृश्य देखने के साथ-साथ उनसे सम्बन्धित अच्छी बुरी धारणा, संकेत भी मनुष्य के मन पर अंकित हो जाते हैं। हमारा मन इन आदर्शों, संकेतों को चुपचाप ग्रहण करता रहता है। चित्र दर्शन के साथ-साथ उसमें निहित अच्छाई भी मानस पटल पर अंकित हो जाती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए पृष्ठ 136

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

👉 बोया और काटा का सिद्धान्त

🔶 एक बार एक आदमी रेगिस्तान में कहीं भटक गया। उसके पास खाने-पीने की जो थोड़ी-बहुत चीजें थीं वो जल्द ही ख़त्म हो गयीं और पिछले दो दिनों से वो पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहा था।

🔷 वह मन ही मन जान चुका था कि अगले कुछ घंटों में अगर उसे कहीं से पानी नहीं मिला तो उसकी मौत पक्की है पर कहीं न कहें उसे ईश्वर पर यकीन था कि कुछ चमत्कार होगा और उसे पानी मिल जाएगा तभी उसे एक झोपड़ी दिखाई दी! उसे अपनी आँखों यकीन नहीं हुआ पहले भी वह मृगतृष्णा और भ्रम के कारण धोखा खा चुका था पर बेचारे के पास यकीन करने के आलावा को चारा भी तो न था आखिर ये उसकी आखिरी उम्मीद जो थी।

🔶 वह अपनी बची-खुची ताकत से झोपडी की तरफ रेंगने लगा जैसे-जैसे करीब पहुँचता उसकी उम्मीद बढती जाती और इस बार भाग्य भी उसके साथ था, सचमुच वहां एक झोपड़ी थी! पर ये क्या? झोपडी तो वीरान पड़ी थी! मानो सालों से कोई वहां भटका न हो। फिर भी पानी की उम्मीद में आदमी झोपड़ी के अन्दर घुसा अन्दर का नजारा देख उसे अपनी आँखों पे यकीन नहीं हुआ…

🔷 वहां एक हैण्ड पंप लगा था, आदमी एक नयी उर्जा से भर गया पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसता वह तेजी से हैण्ड पंप चलाने लगा। लेकिंग हैण्ड पंप तो कब का सूख चुका था आदमी निराश हो गया उसे लगा कि अब उसे मरने से कोई नहीं बचा सकता…वह निढाल हो कर गिर पड़ा!

🔶 तभी उसे झोपड़ी के छत से बंधी पानी से भरी एक बोतल दिखी! वह किसी तरह उसकी तरफ लपका! वह उसे खोल कर पीने ही वाला था कि तभी उसे बोतल से चिपका एक कागज़ दिखा उस पर लिखा था- इस पानी का प्रयोग हैण्ड पंप चलाने के लिए करो और वापस बोतल भर कर रखना नहीं भूलना।

🔷 ये एक अजीब सी स्थिति थी, आदमी को समझ नहीं आ रहा था कि वो पानी पिए या उसे हैण्ड पंप में डालकर उसे चालू करे!

🔶 उसके मन में तमाम सवाल उठने लगे अगर पानी डालने पे भी पंप नहीं चला अगर यहाँ लिखी बात झूठी हुई और क्या पता जमीन के नीचे का पानी भी सूख चुका हो लेकिन क्या पता पंप चल ही पड़े क्या पता यहाँ लिखी बात सच हो वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे!
फिर कुछ सोचने के बाद उसने बोतल खोली और कांपते हाथों से पानी पंप में डालने लगा। पानी डालकर उसने भगवान् से प्रार्थना की और पंप चलाने लगा एक-दो-तीन और हैण्ड पंप से ठंडा-ठंडा पानी निकलने लगा!

🔷 वो पानी किसी अमृत से कम नहीं था… आदमी ने जी भर के पानी पिया, उसकी जान में जान आ गयी, दिमाग काम करने लगा। उसने बोतल में फिर से पानी भर दिया और उसे छत से बांध दिया। जब वो ऐसा कर रहा था तभी उसे अपने सामने एक और शीशे की बोतल दिखी। खोला तो उसमे एक पेंसिल और एक नक्शा पड़ा हुआ था जिसमे रेगिस्तान से निकलने का रास्ता था।

🔶 आदमी ने रास्ता याद कर लिया और नक़्शे वाली बोतल को वापस वहीँ रख दया। इसके बाद वो अपनी बोतलों में पानी भर कर वहां से जाने लगा कुछ आगे बढ़ कर उसने एक बार पीछे मुड़ कर देखा फिर कुछ सोच कर वापस उस झोपडी में गया और पानी से भरी बोतल पे चिपके कागज़ को उतार कर उस पर कुछ लिखने लगा। उसने लिखा-
मेरा यकीन करिए ये काम करता है!

🔷 दोस्तों, ये कहानी संपूर्ण जीवन के बारे में है। ये हमे सिखाती है कि बुरी से बुरी स्थिति में भी अपनी उम्मीद नहीं छोडनी चाहिए और इस कहानी से ये भी शिक्षा मिलती है कि कुछ बहुत बड़ा पाने से पहले हमें अपनी ओर से भी कुछ देना होता है। जैसे उस आदमी ने नल चलाने के लिए मौजूद पूरा पानी उसमे डाल दिया।

🔶 देखा जाए तो इस कहानी में पानी जीवन में मौजूद अच्छी चीजों को दर्शाता है, कुछ ऐसी चीजें जिसकी हमारी नजर में value है। किसी के लिए ये ज्ञान हो सकता है तो किसी के लिए प्रेम तो किसी और के लिए पैसा! ये जो कुछ भी है उसे पाने के लिए पहले हमें अपनी तरफ से उसे कर्म रुपी हैण्ड पंप में डालना होता है और फिर बदले में आप अपने योगदान से कहीं अधिक मात्रा में उसे वापस पाते हैं।

👉 आज का सद्चिंतन 20 September 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 20 September 2018


बुधवार, 19 सितंबर 2018

👉 त्याग का अर्थ

🔷 “इच्छाओं के त्याग का अर्थ संसार को त्याग देना नहीं है। जीवन का ऐसा किसी प्रकार का निषेध मनुष्य को मनुष्यत्वशून्य बनाता है। ईश्वरत्व, मनुष्यत्व से रहित नहीं है। आध्यात्मिक का परमावश्यक कर्तव्य मनुष्य को अधिक मनुष्यत्व युक्त बनाना है। मनुष्य में जो सौंदर्य है, महानता तथा सात्विकता है, उन्हें मुक्त तथा व्यक्त करने का नाम आध्यात्मिक है। वाह्य-जगत में जो कुछ भी भव्य तथा सुन्दर है, उसे भी वह विकसित रहती है।

🔶 साँसारिक कार्यों में बाह्य त्याग तथा कर्तव्य और उत्तरदायित्व की उपेक्षा को वह आवश्यक नहीं मानती। वह केवल यही कहती है कि व्यक्ति के जो कार्य और उत्तरदायित्व है, उनका सम्पादन करते समय, उसकी आत्मा इच्छाओं के बोझ से मुक्त रहे। द्वैत के बन्धनों से मुक्त रहना ही पूर्णता है। बन्धनों के भय से जीवन से दूर भागने से यह मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। बन्धनों से बचने के प्रयत्न का अर्थ है जीवन से भयभीत होना। किंतु आध्यात्मिकता का अर्थ है ‘परस्पर विरोधों के वशीभूत हुए बिना जीवन का ठीक और पूर्ण ढंग से सामना करना।”

~ मेहरबाबा

👉 आनंद पर शर्त

🔷 एक दिन एक उदास पति-पत्नी संत फरीद के पास पहुंचे। उन्होंने विनय के स्वर में कहा,’बाबा, दुनिया के कोने-कोने से लोग आपके पास आते हैं, वे आपसे खुशियां लेकर लौटते हैं। आप किसी को भी निराश नहीं करते। मेरे जीवन में भी बहुत दुख हैं। मुझे उनसे मुक्त कीजिए।’ फरीद ने देखा, सोचा और झटके से झोपड़े के सामने वाले खंभे के पास जा पहुंचे। फिर खंभे को दोनों हाथों से पकड़कर ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्लाने लगे। शोर सुनकर सारा गांव इकट्ठा हो गया। लोगों ने पूछा कि क्या हुआ तो बाबा ने कहा-‘इस खंभे ने मुझे पकड़ लिया है, छोड़ नहीं रहा है।’ लोग हैरानी से देखने लगे।

🔶 एक बुजुर्ग ने हिम्मत कर कहा- ‘बाबा, सारी दुनिया आपसे समझ लेने आती है और आप हैं कि खुद ऐसी नासमझी कर रहे हैं। खंभे ने कहां, आपने खंभे को पकड़ रखा है।’ फरीद खंभे को छोड़ते हुए बोले, ‘यही बात तो तुम सब को समझाना चाहता हूं कि दुख ने तुम्हें नहीं, तुमने ही दुखों को पकड़ रखा है। तुम छोड़ दो तो ये अपने आप छूट जाएंगे।’

🔷 उनकी इस बात पर गंभीरता से सोचें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि हमारे दुख-तकलीफ इसलिए हैं क्योंकि हमने वैसी सोच बना रखी है। ऐसा न हुआ तो क्या होगा और वैसा न हुआ तो क्या हो सकता है। सब दुख हमारी नासमझी और गलत सोच के कारण मौजूद हैं। इसलिए सिर्फ अपनी सोच बदल दीजिए, सारे दुख उसी वक्त खत्म हो जाएंगे। ऐसा नहीं है कि जितने संबुद्ध हुए हैं, उनके जीवन में सब कुछ अच्छा-अच्छा हुआ हो, लेकिन वे 24 घंटे मस्ती में रहते थे। कबीर आज कपड़ा बुन कर बेचते, तब कल उनके खाने का जुगाड़ होता था। लेकिन वह कहते थे कि आनंद झरता रहता है नानक आनंदित होकर एकतारे की तान पर गीत गाते चलते थे। एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि सुख और दुख सिर्फ आदतें हैं। दुखी रहने की आदत तो हमने डाल रखी है । सुखी रहने की आदत भी डाल सकते हैं।

🔶 एक प्रयोग कीजिए और तुरंत उसका परिणाम भी देख लीजिए। सुबह सोकर उठते ही खुद को आनंद के भाव से भर लीजिए। इसे स्वभाव बनाइए और आदत में शामिल कर लीजिए। यह गलत सोच है कि इतना धन, पद या प्रतिष्ठा मिल जाए तो आनंदित हो जाएंगे। दरअसल, यह एक शर्त है। जिसने भी अपने आनंद पर शर्त लगाई वह आज तक आनंदित नहीं हो सका। अगर आपने बेशर्त आनंदित जीवन जीने का अभ्यास शुरू कर दिया तो ब्रहमांड की सारी शक्तियां आपकी ओर आकर्षित होने लगेंगी।

🔷 क्राइस्ट ने अद्भुत कहा है, ‘पहले तुम प्रभु के राज्य में प्रवेश करो यानी तुम पहले आनंदित हो जाओ, बाकी सभी चीजें तुम्हें अपने आप मिलती चली जाएंगी।

👉 आज का सद्चिंतन 19 September 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 19 September 2018


मंगलवार, 18 सितंबर 2018

👉 अच्छाई पलटकर आती है

🔶 ब्रिटेन में फ्लेमिंग नाम का एक किसान था. एक दिन वह अपने खेत में काम कर रहा था. तभी उसने किसी के चीखने की आवाज़ सुनी। आवाज़ की दिशा में जाने से किसान ने देखा एक बच्चा दलदल में धस रहा है। आनन-फानन में उसने एक लंबी सी टहनी खोजी और उसके सहारे से बच्चे को दलदल से बाहर निकाला।

🔷 दूसरे दिन किसान के घर के पास एक घोड़ागाड़ी आकर रुकी. उसमे से एक अमीर आदमी उतरा और बोला मैं उसी बच्चे का पिता हूँ, जिसे कल फ्लेमिंग ने बचाया था। अमीर व्यक्ति ने आगे कहा मैं इस अहसान को चुकाना चाहता हूँ, लेकिन फ्लेमिंग ने कुछ भी लेने से साफ मना कर दिया और कहा यह तो मेरा कर्तव्य था। इसी दौरान फ्लेमिंग का बेटा बाहर आया। उसे देखते ही अमीर व्यक्ति के मन में एक विचार आया। उसने कहा मैं तुम्हारे बेटे को अपने बेटे की तरह पालना चाहता हूँ। उसे भी वो सारी सुख-सुविधायें और उच्च शिक्षा दी जायेगी, जो मेरे बेटे के लिये होगी। ताकि भविष्य में वह एक बड़ा आदमी बन सके। बच्चे के भविष्य की खातिर फ्लेमिंग भी मान गया।

🔶 कुछ वर्षो बाद किसान फ्लेमिंग का बेटा लंदन के प्रतिष्ठित सेंट मेरीज हॉस्पिटल मेडिकल स्कूल से स्नातक हुआ और पूरी दुनिया ने उसे महान वैज्ञानिक, पेनिसिलिन के आविष्कारक ‘सर अलेक्जेंडर फ्लेमिंग’ के रूप में जाना।

🔷 कहानी अभी बाकी है. कई बरसों बाद, उस अमीर व्यक्ति का बेटा बहुत ही गंभीर रूप से बीमार हुआ। तब उसकी जान पेनिसिलिन से बचाई गई. उस अमीर व्यक्ति का नाम, रैंडोल्फ़ चर्चिल और बेटे का नाम, विंस्टन चर्चिल था, जो दो बार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी रहे।

🔶 इस कहानी से यह प्रेरणा मिलती है कि जीवन में किसी भी तरह किसी की मदद की जायें, तो अच्छाई पलट-पलट कर आपके जीवन में ज़रूर आती है।

👉 आज का सद्चिंतन 18 September 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 18 September 2018


सोमवार, 17 सितंबर 2018

👉 जीवन जीने की कला...

🔷 एक नगर में एक जुलाहा रहता था। वह स्वाभाव से अत्यंत शांत, नम्र तथा वफादार था। उसे क्रोध तो कभी आता ही नहीं था। एक बार कुछ लड़कों को शरारत सूझी। वे सब उस जुलाहे के पास यह सोचकर पहुँचे कि देखें इसे गुस्सा कैसे नहीं आता?

🔶 उन में एक लड़का धनवान माता-पिता का पुत्र था। वहाँ पहुँचकर वह बोला यह साड़ी कितने की दोगे? जुलाहे ने कहा - दस रुपये की।

🔷 तब लडके ने उसे चिढ़ाने के उद्देश्य से साड़ी के दो टुकड़े कर दिये और एक टुकड़ा हाथ में लेकर बोला - मुझे पूरी साड़ी नहीं चाहिए, आधी चाहिए। इसका क्या दाम लोगे?

🔶 जुलाहे ने बड़ी शान्ति से कहा पाँच रुपये। लडके ने उस टुकड़े के भी दो भाग किये और दाम पूछा ?जुलाहे अब भी शांत था। उसने बताया - ढाई रुपये। लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े करता गया। अंत में बोला - अब मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए। यह टुकड़े मेरे किस काम के ?

🔷 जुलाहे ने शांत भाव से कहा - बेटे ! अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे। अब लडके को शर्म आई और कहने लगा - मैंने आपका नुकसान किया है। अंतः मैं आपकी साड़ी का दाम दे देता हूँ।

🔶 संत जुलाहे ने कहा कि जब आपने साड़ी ली ही नहीं तब मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूँ? लडके का अभिमान जागा और वह कहने लगा कि, मैं बहुत अमीर आदमी हूँ। तुम गरीब हो। मैं रुपये दे दूँगा तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पर तुम यह घाटा कैसे सहोगे? और नुकसान मैंने किया है तो घाटा भी मुझे ही पूरा करना चाहिए।

🔷 संत जुलाहे मुस्कुराते हुए कहने लगे - तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते। सोचो, किसान का कितना श्रम लगा तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी स्त्री ने अपनी मेहनत से उस कपास को बीना और सूत काता। फिर मैंने उसे रंगा और बुना। इतनी मेहनत तभी सफल हो जब इसे कोई पहनता, इससे लाभ उठाता, इसका उपयोग करता। पर तुमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रुपये से यह घाटा कैसे पूरा होगा? जुलाहे की आवाज़ में आक्रोश के स्थान पर अत्यंत दया और सौम्यता थी।

🔶 लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। उसकी आँखे भर आई और वह संत के पैरो में गिर गया।

🔷 जुलाहे ने बड़े प्यार से उसे उठाकर उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा - बेटा, यदि मैं तुम्हारे रुपये ले लेता तो है उस में मेरा काम चल जाता। पर तुम्हारी ज़िन्दगी का वही हाल होता जो उस साड़ी का हुआ। कोई भी उससे लाभ नहीं होता।साड़ी एक गई, मैं दूसरी बना दूँगा। पर तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार अहंकार में नष्ट हो गई तो दूसरी कहाँ से लाओगे तुम? तुम्हारा पश्चाताप ही मेरे लिए बहुत कीमती है।

🔶 संत की उँची सोच-समझ ने लडके का जीवन बदल दिया। ये कोई और नहीं ये सन्त थे कबीर दास जी

👉 आज का सद्चिंतन 17 September 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 17 September 2018


👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 13)

👉 लेखक का निजी अनुभव
 

🔷 सत्य और तथ्य को कैसे जाना, परखा जाए? इसके लिए भौतिक क्षेत्र को आदर्शों के साथ जोड़ने पर क्या परिणाम निकल सकता है, इसकी खोजबीन करने का काम दूसरों के जिम्मे छोड़कर इन पंक्तियों के लेखक ने अपनी अभिरुचि, जानकारी एवं रुझान के अनुरूप यही उपयुक्त समझा कि वह अपने छोटे-से जीवन और थोड़े-से समय, साधन का उपयोग इस प्रयोजन विशेष के लिए कर गुजरे कि जब शरीर से प्राण श्रेष्ठ हैं तो फिर भौतिक-सम्पदा की तुलना में प्राण चेतना को वरिष्ठता का गौरव क्यों न प्राप्त होना चाहिए? अगले दिनों सतयुग की वापसी के लिए नए सिरे से नया प्रयत्न क्यों न होना चाहिए? खोज के लिए प्रयोगशाला चाहिए, साधन और उपकरण भी। यह सभी अपने ही काय-कलेवर में उपलब्ध किये जाने चाहिए और देखा जाना चाहिए कि परिष्कृत अध्यात्म व्यक्ति एवं संसार के लिए उपयोगी हो सकता है क्या?
  
🔶 भौतिक विज्ञानियों में से अनेकों ने अपनी अभीष्ट खोज के लिए प्राय: पूरी जिन्दगी लगा दी और लक्ष्य तक पहुँचने में उतावली नहीं बरती, तो परिष्कृत अध्यात्म का स्वरूप खोजने और परिणामों की जाँच-पड़ताल करने के लिए एक व्यक्ति की एक जिन्दगी यदि पूरी तरह लग जाए तो उसे घाटे का सौदा नहीं कहा जा सकता।
  
🔷 इन पंक्तियों का लेखक अपनी जिन्दगी के प्राय: अस्सी बरस पूरे करने जा रहा है। उसने उस पुरातन अध्यात्म को खोज निकालने के लिए अपने चिन्तन, समय, श्रम एवं पुरुषार्थ को मात्र एक केन्द्र पर केन्द्रित किया है कि यदि पुरातन काल का सतयुगी अध्यात्म सत्य है, यदि ऋषियों की उपलब्धियाँ सत्य हैं, तो उनका वास्तविक स्वरूप क्या रहा होगा और उसके प्रयोग से ऋद्धि-सिद्धि जैसे परिणामों का हस्तगत कर सकना क्यों कर सम्भव हुआ होगा? अनुमान था कि कहीं कोई खोट घुस पड़ने पर ही शाश्वत सत्य को झुठलाये जाने का कोई अनर्थ मार्ग में न अड़ गया हो।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 16

👉 Living The Simple Life (Part 3)

🔷 One outfit of clothing is enough. That’s all I’ve owned since my pilgrimage started in 1953. And I take good care of my things. I can always find a wash basin in a public restroom or a nearby stream to wash my clothes, and drying them is even easier: I just put them on and let the energy from the sun evaporate any dampness.

🔶 I wash my skin only with water; soap removes the natural oils. So do the cosmetics and creams most women use. The only footwear I need is an inexpensive pair of blue sneakers. They have soft fabric tops and soft rubber-like soles. I get them one size too large so I can wiggle my toes. I feel as free as though I were barefoot! And I can usually get 1,500 miles to a pair. I wear a pair of navy blue socks. There’s a reason why I chose navy blue for my wearing apparel - it’s a very practical color, doesn’t show dirt, and the color blue does represent peace and spirituality.

🔷 I don’t discard any article of wear until it becomes worn to the extent of being unusable. Once when I was about to leave town a hostess said, ‘‘Peace, I noticed your shoes were in need of repair, and I would have offered to repair them, but I know so much about sewing that I knew they couldn’t be repaired.’’ I said to her, ‘‘It’s a good thing I know so little about sewing that I didn’t know they couldn’t be repaired – so I just finished repairing them.’’

To be continued...

👉 मन को उद्विग्न न कीजिए (अन्तिम भाग)

🔷 महर्षि पातंजली ने व्यवहारिक जीवन में सफलता की कुञ्जी दे दी है:—
मैत्रीकरुणामुदितो पेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्य विषयाणां भावनातश्चिप्रसादनम्।
(समाधिपाद 33)

🔶 अर्थात्—हमें चाहिए कि दूसरों से मैत्री करुणा मुदिता और उपेक्षा वृत्तियों को काम में लाएँ। सुखी मनुष्यों से प्रेम करें, दुखियों एवं सन्तों के प्रति दया भाव दिखाएँ, पुण्यात्माओं के प्रति प्रसन्नता और पापियों की ओर से उदासीन रहें।

🔷 शान्ति धारण करने का अभ्यास करें। आपका मन, इन्द्रियाँ, भावनाएँ शान्त रहें। वातावरण यदि कोलाहल पूर्ण भी हो तो भी अंतःवृत्तियों को शान्त रखने की चेष्टा करें।
शाँति हमारी आत्मा का गुण है। हमारी सब वृत्तियाँ शाँति में आकर संतुष्ट हो जाती हैं। मन में संकल्प विकल्पों का नाश होता है। निस्वार्थता, अनिच्छा, वैराग्य, निर्मोह, अहं से मुक्ति ईश्वर की ओर वृत्ति, इच्छाओं का संयम हमें आन्तरिक शाँति और मन का संतुलन प्रदान करते हैं।

🔶 यदि हम अपने परिवार, मुहल्ले, शहर, प्राँत और देश भर में शाँति का अभ्यास करायें, और सभी इसके लिए प्रयत्न करने लगें, तो विश्व भर में शाँति स्थापित हो सकती है। प्रार्थना, जप, कीर्तन, चिन्तन और सद्विचारों को फैलाया जाय, उतना ही लाभ हो सकता है।

🔷 शाँति से बोलें, शाँति से चलें, शाँति से कार्य करें। परमेश्वर शाँति का अवतार है। ईश्वरीय तत्वों को मन से निकालें पहले मनुष्य मन में शाँति धारण करे फिर बाह्य परिस्थितियों की शिकायत करे। जितना आप बाह्य पदार्थों से अपना सम्बन्ध तोड़ कर आगे बढ़ेंगे, उतनी ही मनः शान्ति प्राप्त होगी।

.... समाप्त
📖 अखण्ड ज्योति, फरवरी 1955 पृष्ठ 14

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1955/February/v1.14

👉 ईश्वर को पाना है तो हम उसकी मर्जी पर चलें

🔷 ईश्वर की प्रप्ति के लिए ऐसा दृष्टिकोण एवं क्रिया- कलाप अपनाना पड़ता है, जिसे प्रभु समर्पित जीवन कहा जा सके ।। जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आत्मिक प्रगति का मार्ग अपनाना पड़ता और वह यह है कि हम प्रभु से प्रेरणा की याचाना करें और उद्देश्य यही है कि मनुष्य अपने लक्ष्य को, इष्ट को समझें और उसे प्राप्त करने के  लिए प्रबल प्रयास करें। उपासना कोई क्रिया कृत्य नहीं है। उसे जादू नहीं समझा जाना चाहिए। आत्म परिष्कार और आत्म विकास का तत्वदर्शन ही अध्यात्म है।

🔶 उपासना उसी मार्ग पर जीवन प्रक्रिया को धकेलने वाली एक शास्त्रानुमोदित ओैर अनुभव प्रतिपादित पद्धति है। इतना समझने पर प्रकाश की ओर चल सकना बन पड़ता  है। जो ऐसा साहस जुटाते हैं, उन्हें निश्चत रूप से ईश्वर मिलता है। अपने को ईश्वर के हाथ बेच देने वाला व्यक्ति ही ईश्वर को खरीद सकने में समर्थ होता है। ईश्वर के संकेतों पर चलने वाले में ही इतनी सामर्थ्य उत्पन्न होती है कि ईश्वर को अपने संकेतों पर चला सके।

🔷 बुद्धिमत्ता इसी में है कि मनुष्य प्रकाश की ओर चले। ज्योति का अबलम्बन ग्रहण करे। ईश्वर की साझेदारी जिस जीवन में बन पड़ेगी, उसमें घटा पड़ने की कोई सम्भावना नहीं है। यह शांति और प्रगति का मार्ग है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

रविवार, 16 सितंबर 2018

👉 चुभन

🔶 पुरानी साड़ियों के बदले बर्तनों के लिए मोल भाव करती शारदा ने अंततः दो साड़ियों के बदले एक टब पसंद किया। "नही दीदी, बदले में तीन साड़ियों से कम तो नही लूँगा।" बर्तन वाले ने टब को वापस अपने हाथ में लेते हुए कहा।

🔷 "अरे भैया, एक एक बार की पहनी हुई तो हैं..बिल्कुल नये जैसी। एक टब के बदले में तो ये दो भी ज्यादा हैं, मैं तो फिर भी दे रही हूँ।" "नही नही, तीन से कम में तो नही हो पायेगा।" वह फिर बोला।

🔶 एक दूसरे को अपनी पसंद के सौदे पर मनाने की इस प्रक्रिया के दौरान गृह स्वामिनी को घर के खुले दरवाजे पर देखकर सहसा गली से गुजरती अर्द्धविक्षिप्त महिला ने वहाँ आकर खाना माँगा।

🔷 आदतन हिकारत से उठी शारदा की नजरें उस महिला के कपड़ो पर गयी। अलग अलग कतरनों को गाँठ बाँध कर बनायी गयी उसकी साड़ी उसके वृद्ध शरीर को ढँकने का असफल प्रयास कर रही थी। एकबारगी उसने मुँह बिचकाया पर सुबह सुबह का याचक है सोचकर अंदर से रात की बची रोटियां मंगवायी।

🔶 उसे रोटी देकर पलटते हुए उसने बर्तन वाले से कहा "तो भैय्या क्या सोचा? दो साड़ियों में दे रहे हो या मैं वापस रख लूँ !"

🔷 बर्तन वाले ने उसे इस बार चुपचाप टब पकड़ाया और अपना गठ्ठर बाँध कर बाहर निकला। अपनी जीत पर मुस्कुराती हुई शारदा दरवाजा बंद करने को उठी तो सामने नजर गयी। गली के मुहाने पर बर्तन वाला अपना गठ्ठर खोलकर उसकी दी हुई साड़ियों में से एक साड़ी उस वृद्धा को दे रहा था।

🔶 हाथ में पकड़ा हुआ टब उसे अब चुभता हुआ सा महसूस हो रहा था......

👉 आज का सद्चिंतन 15 September 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 15 September 2018


👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 12)

👉 असमंजस की स्थिति और समाधान
 

🔶 इस असमंजस के बीच एक हल उभरता है कि भौतिक विज्ञान को अध्यात्म तत्त्व ज्ञान के साथ जुड़ना चाहिए था और अध्यात्मवाद का स्वरूप ऐसा होना चाहिए था जिसे प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर भी खरा सिद्ध किया जा सके।
  
🔷 भौतिकवादी मान्यताओं का अपना आकर्षण ही इतना बड़ा है कि उसने 99 प्रतिशत क्षेत्र को अपनी चपेट में ले लिया है। उसकी अच्छाई-बुराई भी आँखों के सामने है। मात्र अध्यात्म ही ऐसा है जो रहस्य बनकर रह रहा है। उसे नकारते इसलिए नहीं बनता क्योंकि शास्त्रकारों, आप्तजनों और ऋषिकल्प व्यक्तियों के आधार पर जो उत्कृष्टतावादी निष्कर्ष निकलता है, उसे अमान्य ठहराने का कोई कारण नहीं। उसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है। योगी अरविन्द, महर्षि रमण, समर्थ रामदास, रामकृष्ण परमहंस आदि प्रतिभाएँ उस पक्ष को अपनी वरिष्ठता के बल पर भी सही सिद्ध करती रही हैं।
  
🔶 रहस्य क्या है? यह खोजने की बात सामने आने पर भूतकाल की साक्षी और वर्तमान की दूरदर्शी विवेचना यही बताती है कि जन कल्याण अध्यात्म पर ही अवलम्बित हो सकता है। खोट इतना भर है कि आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान और प्रयोग परीक्षण में कहीं कुछ ऐसा अनुपयुक्त अड़ गया है जिसके कारण सूर्योदय रहते हुए भी पूर्णग्रहण जैसा कुछ लग जाने के कारण दिन होते हुए भी अन्धेरा छाने लगता है। अनुपयुक्त प्रयोग में तो विशिष्टता भी निकृष्टता में बदल सकती है। जिस प्रकार आदर्शों के अनुशासन को अस्वीकृत कर देने के कारण भौतिक विज्ञान की उपयोगिता और यथार्थता विनाशकारी परिणाम उत्पन्न कर रही हैं, सम्भवत: अध्यात्म ने भी उलटबाँसी अपनाई है और असली के स्थान पर नकली के आ विराजने पर उसकी भी प्रामाणिकता एवं उपयोगिता खतरे में पड़ गई है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 15

👉 Living The Simple Life (Part 2)

🔶 How good it is to work in the invigorating fresh air under the life-giving sun amid the inspiring beauty of nature. There are many who recognize this, like the young man I met whose life had been interrupted by the peacetime draft. While he was away, his father, who was in poor health, was not able to keep up the farm and so it was sold. The young man then undertook to do years of distasteful work in order to be able to buy another farm. How good it is to earn your livelihood helping plants to grow to provide people with food. In other words, how good it is to earn your livelihood by contributing constructively to the society in which you live — everyone should, of course, and in a healthy society everyone would.

🔷 My clothes are most comfortable as well as most practical. I wear navy blue slacks and a long sleeved shirt topped with my lettered tunic. Along the edge of my tunic, both front and rear, are partitioned compartments which are hemmed up to serve as pockets. These hold all my possessions which consist of a comb, a folding toothbrush, a ballpoint pen, a map, some copies of my message and my mail.

🔶 So you can see why I answer my mail faster than most - it keeps my pockets from bulging. My slogan is: Every ounce counts! Beneath my outer garments I wear a pair of running shorts and a short sleeved shirt - so I’m always prepared for an invigorating swim if I pass a river or lake. As I put on my simple clothing one day after a swim in a clear mountain lake I thought of those who have closets full of clothes to take care of, and who carry heavy luggage with them when they travel. I wondered how people would want to so burden themselves, and I felt wonderfully free. This is me and all my possessions. Think of how free I am! If I want to travel, I just stand up and walk away. There is nothing to tie me down.

To be continued...

👉 मन को उद्विग्न न कीजिए (भाग 5)

🔶 कुछ व्यक्ति संतोषवृत्ति को आलस्य और भाग्यवादी बनाने की वृत्ति मानकर बड़ा अत्याचार करते हैं। संतोष तो एक सात्विक वृत्ति है। यह हमें कर्त्तव्य पथ पर चलाती है और पश्चात् हमें मानसिक शक्ति एवं शान्ति प्रदान करती है। यह हमारी मनोवृत्तियों को अंतर्मुखी बनाती है और हमें स्वार्थ, लोभ और अन्य साँसारिक वृत्तियों से मुक्त करती है। हमारे सन्त महात्मा फकीर भिक्षुगणों ने अल्प में सन्तोष किया है। आत्म ज्ञान प्राप्त किया है। आत्म सन्तोषी व्यक्ति संसार की आकर्षक किन्तु नश्वर वस्तुओं को घृणा से देखना सिखाती हैं। सन्तोष से वैराग्य, विवेक, और सद्विचार की पद्धति आती है। लोभ जड़ मूल से नष्ट हो जाता है।

🔷 “मैं सन्तुष्ट हूँ। तनिक से लोभ से विचलित नहीं होता। क्रोध नहीं करता। अपने आप में पूर्ण हूँ। मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। मेरे पास यथेष्ट है”—ऐसे संकेतों को लेने से मनुष्य में आन्तरिक संतुलन आता है। आत्म संतोषी जो कुछ उसके पास है उसी से संतुष्ट रहता और अर्थ के अनर्थ से मुक्त रहता है।

🔶 क्रोध, ईर्ष्या और द्वेषभाव संतुलन को भंग करने वाले पाशविक विकार हैं। इनसे मुक्ति के लिए क्षमा महौषधि है। जिसने आपका बुरा भी किया है उसके प्रति भी क्षमा भाव रखना, उसकी अज्ञानता पर करुणा दिखाना मन को संतुलित रखता है। क्षमावान दया प्रेम और सहानुभूति से परिपूर्ण रहता है। यदि आप क्षमा का अभ्यास करें तो आध्यात्मिक दृष्टि से अशक्त बन सकते हैं, अपने क्रोध ईर्ष्या द्वेष के आवेशों को कन्ट्रोल कर सकते हैं। जो शक्ति उत्तेजना में नष्ट होती है वह बच सकती है। जिसे आप क्षमा करें उसकी चर्चा किसी से न करें अन्यथा आपका अहंभाव समझा जायगा।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति, फरवरी 1955 पृष्ठ 14

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1955/February/v1.14

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 14 September 2018


👉 आज का सद्चिंतन 14 September 2018


👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 11)

👉 असमंजस की स्थिति और समाधान  
 
🔷 इस असमंजस में एक और नई कठिनाई सामने है कि पुरातन की साक्षी को ध्यान में रखकर यदि जीवनचर्या और लोक व्यवहार को अध्यात्म तत्त्वज्ञान के स्तर पर विनिर्मित करने की बात सोची जाए तो यहाँ भी भारी विडम्बना सामने खड़ी होती है। प्रचलित अध्यात्म सिद्धान्तों और प्रचलनों में भी विकृतियों का, इतना अधिक अवांछनीयता का अनुपात घुस पड़ा है कि कसौटी पर कसते ही वह भी खोटे सिक्के की तरह अप्रामाणिक ही सिद्ध होते हैं।

🔶 लाखों सन्त-साधु लाखों भजनानन्दी, लाखों कर्मकाण्डी, पूजा व्यवसाई जिस स्थिति में रह रहे हैं, उनके स्तर को उलट-पुलट कर जाँचने से प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र में विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ शेष बच नहीं रहा है। किसी जमाने में थोड़े-से सन्त न केवल भारत को वरन् समस्त विश्ववसुधा को हर दृष्टि से समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाए रखने में समर्थ हुए थे, पर अब तो उनकी संख्या हजारों-लाखों गुनी हो गई है। इतने पर भी विश्वकल्याण की, भारतभूमि की गरिमा को बनाए रखने की बात तो दूर स्वयं के व्यक्तित्व को भी इतना गया-गुजरा बना बैठे हैं कि सहज विश्वास नहीं होता कि इस प्रयोजन में भी कुछ उत्कृष्टता एवं विशिष्टता शेष रह गई है।
  
🔷 कुछ दिन पूर्व गाँधी, बुद्ध जैसी कुछ ही प्रतिभाएँ प्रकट हुई थीं और अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व से संसार भर में आस्था, उत्साह और उल्लास की एक नई लहर चला सकने में समर्थ हुई थी; पर अब तो उनकी गणना आश्चर्यजनक गति से बढ़ जाने पर भी वातावरण को परिष्कृत करना तो दूर अपने आपको भी प्रामाणिक एवं प्रतिभावान बना पाना दीख नहीं पड़ता। इस निरीक्षण-परीक्षण से प्रतीत होता है कि जैसे लांछन भौतिकवाद पर लगाए जाते हैं, उससे भी अधिक प्रस्तुत अध्यात्मवाद पर लगाए जा सकते हैं। लगता है दोनों ही क्षेत्रों में अपने-अपने ढंग की विद्रूपता ने आधिपत्य जमा लिया है। धर्म के नाम पर जितनी विडम्बनाएँ चलती हैं, उन्हें देखते हुए उसे भी अपनाने योग्य मानने के लिए मन नहीं करता।
  
🔶 दोनों ही रास्ते अनुपयुक्त दीखने पर प्रश्न यह उठता है कि इनके अतिरिक्त कोई तीसरा विकल्प भी है क्या? आस्तिकता और नास्तिकता के, श्रेष्ठता और निकृष्टता के बीच क्या कोई मध्य मार्ग भी है। वहाँ भी न करने के अतिरिक्त कुछ सूझता नहीं। फिर क्या चुना जाए जबकि जीवन और मरण दोनों ही अनुपयुक्त अविश्वस्त दीखते हैं?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 14

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...