कभी हमने पूर्व जन्मों के सत् संस्कार वालों और अपने साथी सहचरों को बड़े प्रयत्नपूर्वक ढूंढा है और 'अखण्ड- ज्योति परिवार की शृद्खला में गूंथकर एक सुन्दर गुलदस्ता तैयार किया था। मंशा थी इन्हें देवता के चरणों में चढ़ा येंगे। पर अब जब जब कि बारीकी से नजर डालते हैं कि कभी के अति सुरम्य पुष्प अब परिस्थितियों ने बुरी तरह विकृत कर दिये है। वे अपनो कोमलता, शोभा और सुगंध तोनों ही खोकर बुरी तरह इतनी मुरझा गये कि हिलाते- दुलाते हैं तो भी सजीवता नहीं आती उलटी पंखड़ियाँ भर जाती हैं। ऐसे पुष्पों को फेंकना तो नहीं है क्योंकि मूल संस्कार जब तक विद्यमान हैं तब तक यह आशा भी है कि कभी समय आने पर इनका भी कुछ सदुपयोग सम्भव होगा, किसी औषधि में यह मुरझाये फूल भी कभी काम आयेंगे। पर आज तो देव देवो पर चढ़ाये जाने योग्य सुरभित पुष्पों की आवश्यकता है सो उन्हीं की छांट करनी पड़ रही है।
अभी आज तो सजीवता ही अभीष्ट है और वस्तुस्थिति की परख तो कहने- सुनने- देखने- मानने से नहीं वरन् कसौटी पर कसने से ही होता है। सो परिवार को सजोवता- निर्जीवता- आत्मीयता, विडम्बना के अंश परखने के लिए यह वर्तमान प्रक्रिया प्रस्तुत की है। अगले बीस महीनों में यथार्थता आजायगो और जन- सम्पर्क की दिशा में किये हुए अपने प्रयासों की सफलता- असफलता का एक सही निष्कर्ष साथ लेकर हम विदा हो सकेंगे यह इसलिए भी आवश्यक है कि यहाँ से जाने के बाद हमें किसके लिए क्या और कितना करना है इसके सम्बन्ध में भी अपनी दृष्टि साफ हो जायगी। बेकार की घचापच छट जाने से अपने अन्तरिम परिवार को एक छोटी सीमा अपने लिए भी हलकी पड़ेगी बौर अधिक ध्यान से सींचे- पोसे जाने के कारण वे पौधे भी अधिक लाभान्वित होंगे
नव- निर्माण के लिए अभी बहुत काम करना बाकी है। विचार- प्रसार तो उसका बीजारोपण है। इसके बिना कोई गति नहीं। अक्षर ज्ञान की शिक्षा पाये बिना ऊंची पढ़ाई की न तो आशा है न सम्भावना है। इसलिए प्रारम्भ में हर किसी को अक्षर ज्ञान कराना अनिवार्य है। पीछे जिसकी जैमी अभिरुचि हो शिक्षा के विषय चुनना रह सकता है पर अनिवार्य में छूट किसी को नहीं मिल सकती। प्रारम्भिक अक्षर सबको समान रूप में पढ़ने पड़े गे। विचारों की उप- योगिता, महत्ता, शक्ति और प्रमुखता का रहस्य हर किसी के मस्तिष्क में कूट- कूट कर भरा जाना है और बताया जाना है कि व्यक्ति की महानता और समाज की प्रखरता उसमें सक्षिप्त विचार पद्धति पर ही सन्निहित है। परिस्थितियों के बिगड़ने- बनने का एकमात्र आधार विचारणा ही है। विवेक के प्रकाश में यह परखा जाना चाहिये कि हमने अपने ऊपर कितने अवांछनीय और अनुपयुक्त विचार अंट रखे है और उनने हमारी कितनी लोमहर्षक दुर्गति की है। हमें तत्त्वदर्शी की तरह वस्तुस्थिति का विश्लेषण करना होगा और निर्णय करना होगा कि किन आदर्शों और उत्कृष्टताओं को अपनाने के लिए कठिबद्ध हों ताकि वर्तमान के नरक को हटाकर उज्ज्वल भविष्य की स्वर्गीय सम्भावनाओं को मूर्तिमान् बना सकना सम्भव हो सके।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1986